दीपक असीम
राहत इंदौरी के जाने के बाद गड़बड़ यह हो रही है कि कुछ लोग केवल उजला पहलू देखना चाहते हैं तो कुछ केवल काला। राहत इंदौरी बीच में हैं। बहुत सारे उजले भी और बहुत सारे काले भी। जैसे दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हों। करीब पंद्रह साल पहले अपने दोस्तों से उन्होंने कहा कि हमें धर्मनिरपेक्षता के लिए काम करना चाहिए। फिर संगठन का नाम भी उन्होंने सुझाया – सेकुलर। एक काला सा बोर्ड भी इसके लिए तैयार हुआ। मगर फिर ज्यादा कुछ हो नहीं पाया।
राहत साहब को अपनी गलतियों का अंदाजा था। पछतावा भी था। राहत साहब ने गलतियां कीं, मगर वे आगे भी बढ़े और आगे बढ़ कर उन्होंने अपनी पिछली कुछ गलतियों को मिटा दिया। अंत भला तो सब भला। कहते हैं कि खात्मा ईमान पर होना चाहिए और उनका खात्मा इस यकीन के साथ हुआ कि मुहब्बत ही कायम रहेगी और मुहब्बत से ही सब कुछ बचेगा, केवल मुहब्बत ही सुंदर है। इसीलिए वे आखरी दौर में इश्क की शायरी की तरफ मुड़ गए। इश्क करना उनके लिए आसान था, मगर इश्क की शायरी उनके लिए नए रास्ते पर चलने जैसा था। इसीलिए यहां भी उन्होंने नारा सा लगाया और आव्हान सा किया – इश्क दोनों की ज़रूरत है, चलो इश्क करें। बाद में वे रूमानी भी होने लगे – हाथ जब उससे मिलाना तो दबा भी देना…।
मजमे में कामयाब तो ये शायरी खूब होती थी, मगर खुद राहत इंदौरी के मेयार पर यह शायरी खरी उतर नहीं रही थी। एक बार नशे में वे रोने लगे। कहने लगे मेरे जाने के अगले ही दिन बाद मैं भुला दिया जाउंगा। मैंने बड़ी शायरी की ही नहीं। एक शेर मेरा ऐसा नहीं है, जो मेरे बाद याद रखा जाए। मुशायरों की शोहरत मुझे खा गई। मैंने मंच को खराब किया सो अलग। अब जब मैं देखता हूं कि कोई शायर आ कर मेरी नकल करता है और जज्बाती शायरी पढ़ता है, इस्लामिक नारेबाजी वाले शेर पढ़ता है, तो मुझे बड़ा दुख होता है। मुझे लगता है कि इसका जिम्मेदार मैं हूं, मैंने ही यह सब शुरू किया। कहीं से किसी नौजवान का कोई अच्छा शेर वे सुन लेते थे, तो बहुत दाद देते थे। ऐसे समय पर खुद उन्हें अपनी उस कमतरी का एहसास होने लगता था, जो उन्हें सबसे ज्यादा खला करती थी।
मगर राहत इंदौरी अपने खुद के आकलन में कुछ गलती कर गए। वे अपने प्रति कुछ ज्यादा ही कठोर थे। उन्होंने अपने हिस्से का काम कर दिया था। उनका काम इश्क की शायरी करना नहीं था। वे दबे हुए, कुचले हुए और जुल्म का शिकार अल्पसंख्यकों में हौसला जगाने वाले शायर थे। अल्पसंख्यकों को संघर्ष के लिए प्रेरित करना उनका काम था और उनमें जीत का यकीन भरना भी – फिर एक बच्चे ने लाशों के ढेर पर चढ़ कर / ये कह दिया कि अभी खानदान बाकी है…। अबके जो फैसला होगा वो यहीं पर होगा/ मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली। खाक से बढ़कर कोई दौलत नईं होती / छोटी मोटी बात पे हिजरत नईं होती। अल्पसंख्यकों को जायज संघर्ष के लिए प्रेरित करना और उनमें हौसला भरना एक बारीक काम है। कभी कभी हाथ बहक भी जाता है। इसलिए कुछ ऐसे शेर भी हो गए जिन्हें सांप्रदायिक करार दिया जाता है। मगर उन शेरों को इस नजरिये के साथ देखा जाना चाहिए कि वे भारत के अल्पसंख्यकों की भावना को अभिव्यक्त करने वाले शेर हैं।
श्रीनगर के बाजारों में हर तीसरी चौथी दुकान का नाम इकबाल पर है। अल्लामा इकबाल पर। जिन दुकानों का नाम इकबाल पर नहीं है, उनके साइन बोर्डों पर इकबाल का कोई शेर उर्दू में लिखा है। कश्मीरियों को लड़ने और जीने का हौसला अल्लामा इकबाल की शायरी से मिलता है। बाकी भारत के अल्लामा इकबाल राहत इंदौरी हैं। अल्लामा इकबाल की इस्लामिक शायरी का बचाव भी होता है और उस पर आरोप भी लगते हैं। यही राहत इंदौरी की शायरी के साथ भी हो सकता है, आगे भी होगा। अल्पसंख्यकों पर जुल्म जैसे जैसे बढ़ेंगे, राहत इंदौरी और लोकप्रिय होते चले जाएंगे। अभी तो समझिए कि उनकी शोहरत का दौर शुरू हुआ है।
उनका एक और बड़ा काम है। उन्हें अपने वक्त का दाग़ भी कहा जा सकता है। दाग पर भी आरोप है कि उन्होंने बड़ी और गहरी शायरी नहीं की, मगर उर्दू ज़बान को संवारा। राहत इंदौरी ने भी यही काम किया। उनकी किताबें खंगाल लीजिए कहीं कोई बहुत कठिन शब्द या फारसी अरबी की इज़ाफतें नहीं मिलेंगी। उनका कहना था कि अगर एक भी कठिन शब्द आया तो श्रोता का ध्यान भटक सकता है। उन्होंने शायरी को सहजता दी, सरलता दी।
यह सच है कि शेर कहते हुए उन्हें यह अहसास रहता था कि इसे मंच से पढ़ा जाना है। जैसे संपत सरल व्यंग्य लिखते हैं तो उन्हें पता रहना है कि यह कहीं छपेगा नहीं, इसे मंच से पढ़ा जाएगा। मंच पर पढ़ने के लिहाज से लिखा गया व्यंग्य वो नहीं हो सकता, जो छपने के लिए लिखा गया व्यंग्य होता है। मंच पर पढ़ने के एहसास के साथ लिखी गई शायरी में अगर लाउडनेस नहीं होगी तो क्या होगा? राहत इंदौरी की शायरी एक नई विधा पर विचार करने को कहती है और वो है मंचीय शायरी। गालिब और मीर अपनी दुरूहता और भावों की बारीकियों के चलते मुशायरे में गारंटी से हूट हो जाएं। मगर राहत इंदौरी हिट रहें। इसका मतलब यह कि दोनों विधाएं अलग हैं, प्लेटफार्म अलग हैं। जैसे एक्टिंग तो वही है, मगर टीवी पर क्लोज़ अप में और चेहरे के भावों में बात होती है, मंच पर नाटक करते हुए संपूर्ण देह के साथ लाउडनेस भी चाहिए। जबकि फिल्म में दोनों का संगम होना चाहिए। राहत इंदौरी कहा करते थे कि कौन बड़ा शायर है, कौन छोटा है, इसका फैसला समय करता है।
उनकी शायरी की तरह उनकी मैकशी भी लाउडनेस को पसंद करती थी। शुरू में तेज़ाब जैसी शराबें पीने के बाद उन्हें कभी स्कॉच नहीं जमी। हमेशा रेगुलर ब्रांड की विस्की पी। एक बार तो हजार का नोट देकर साढ़े तीन सौ की बोतल मंगाई और साढ़े छह सौ रुपये वेटर को टिप दे दी। सवाल पैसे का नहीं, पसंद का था। दो तीन पैग जल्दी से गटक कर फिर चौथे में वे धीरे धीरे पीते थे। सामने वाले से कहते थे तुम भी जल्दी खींच लो तो एक जैसा नशा हो जाए। उनके साथ पीना और उनके बराबर पीना शौकिया शराबी के बस की बात नहीं थी। उनका एक पसंदीदा इंदौरी लफ्ज़ था – आंग में आना…। उनका कोई पुराना दोस्त एक दो पैग का सुरूर होने के बाद कहा करता था – दारू आंग में आ गई। अर्थात शराब अंग में काम करने लगी है।
फिल्मों में उनका करिअर बहुत लंबा नहीं रहा। इसका एक कारण तो यह था कि फिल्में उन्हें कुछ ऐसा नहीं दे सकती थीं, जो उनके पास नहीं था। मुशायरों में उनकी बहुत शोहरत थी। पैसा मुशायरों से बहुत मिलता था। एक गीत महीने भर में रेकार्ड हुआ और उसके लाख रुपये मिले, तो यह घाटे का सौदा था। राहत साहब नगद मेहनताने और नगद दाद के शौकीन थे। मुशायरे में उसी समय दाद मिला करती थी। मुशायरा खत्म होते ही लिफाफा जेब में पहुंच जाया करता था। मुंबई में बहुत थकाने वाला काम था। पहले कहानी सुनो, सिचुएशन समझो, किरदारों की जहनियत पकड़ो। फिर संगीतकार से धुन सुनो, उसे बोल लिखकर दिखाओ। फिर वो बोल बदलने को कहे तो बोल बदलो। कभी डायरेक्टर भी कह सकता था कि मज़ा नहीं आया फिर से लिखो।
यह बहुत समय खाने वाला काम था। फिल्मी दुनिया में जमे रहने का दूसरा खतरा यह था कि राहत साहब मुशायरों के बेताज बादशाह थे। उनकी गैरमौजूदगी में कोई और इस बादशाहत पर कब्जा कर सकता था। मुशायरों में राहत साहब सबसे बड़े बने रहना चाहते थे और अंत तक बने रहे। फिल्मों का एक और बुरा पहलू यह था कि अगर आपने बहुत अच्छे गीत लिखे, मगर फिल्म पिट गई, तो आपका भी भाव डाउन हो जाता है और काम मिलना बंद। मुशायरों में अच्छा भली मौके की दुकान छोड़ कर मुंबई में फिल्मी गीतों का नया बिजनेस जमाना उन्हें नहीं जमा। फिल्मों के वे ऐसे शौकीन भी नहीं थे और बड़े हीरो हिरोइन से मिलने का कोई उन्हें शौक भी नहीं था। फिल्मी लोगों के साथ पीना तक उन्हें नहीं सुहाता था। फिल्म वाले धीरे धीरे पिया करते थे और राहत साहब को उनके यहां उनके पैग खत्म होने का इंतज़ार करना पड़ता था। अन्नू मलिक से वे कहते कि मैं नीचे सिगरेट पीने जा रहा हूं और फ्लाइट में बैठ कर इंदौर आ जाया करते या किसी मुशायरे में चले जाते। तीन दिन बाद अन्नू मलिक को याद आती तो कहते अभी मलाड में हूं या अंधेरी में हूं शाम को मिलता हूं और फ्लाइट पकड़कर मुंबई चले जाया करते। जाहिर है यह सब ज्यादा नहीं चल सकता था।
वे बहुत उदार थे। दस पंद्रह साल पहले तक वे अपने नए पुराने दोस्तों की महफिल जमाया करते थे। बस स्टैंड के पास किसी बार में सबको बुलाया जाता। राहत इंदौरी मेजबान होते। अगर टेबल पर दस लोग बैठे हों तो राहत इंदौरी को दसों की पसंद की शराबें पता होती थीं। कौन पानी के साथ पीता है, कौन सोडे के साथ यह भी मालूम रहता था। मजाल है जो किसी का गिलास खाली हो जाए। वे सबसे तेज़ और सबसे ज्यादा पीते थे। मगर सबका ऐसा खयाल रखते थे, जैसे मां खाना खिला रही हो। किस का सोडा खत्म हुआ, किसकी प्लेट से चखना कम हो रहा है, कौन आज कम पी रहा है, सब ध्यान रहता था। फिर सबको प्यार से खाना खिलाते थे। गरीब दोस्त आर्डर करने में सकुचाते थे, तो वे पहले ही इतना आर्डर करते थे कि किसी को कम नहीं पड़े। अगर कोई कहे कि इतना क्यों मंगा रहे हो, तो कहते थे मुझे पसंद है, मैं खाउंगा। मगर खुद खाते थे तुअर की दाल और चावल। साथ में तली हुई हरी मिर्च मंगा लेते थे। महफिल खत्म होती तो पूछते कि कौन किस तरह आया है। जो लोग पैदल या टैंपो से आए होते, उनके लिए रिक्शा मंगाते, रिक्शा वाले को एडवांस में पैसे देते और कहते इन्हें घर तक छोड़ना। शायरों के इतिहास में बहुत मेहमाननवाज़ शायर रहे होंगे, मगर ऐसी मेहमाननवाज़ी तो किसी ने नहीं की होगी।
वे निजी जीवन में बहुत मुहब्बत वाले थे। उनके पेंटरी के जमाने वाले सारे दोस्त हिंदू थे। उनके सारे तीज त्योहारों पर राहत इंदौरी खुशी मनाते थे और होली भी खेलते थे। तमाम साइन बोर्ड पेंटरों से उनकी दोस्ती अंत तक रही। दोस्त मर गए तो उनके बच्चों से बात चीत रही। निजी बातचीत में भी राम और कृष्ण का जिक्र बहुत सम्मान से करते थे। सारी हिंदू परंपराओं से प्यार करते थे। उन्होंने अपनी पोती का नाम मीरा रखा। बेटे का नाम सतलज है, जो एक खास नदी का नाम है। उन पर बहुत बातचीत करने के बाद भी लगता है कि अभी तो कुछ भी नहीं कहा गया। खैर ये अंत नहीं शुरूआत है।