पलश सुरजन
तीन कृषि कानूनों की वापसी का विधेयक संसद में पारित करवा कर केंद्र सरकार ने यह मान लिया था कि अब एक साल से आंदोलनरत किसान अपने घरों को लौट जाएंगे। लेकिन कानून वापसी के बावजूद किसानों की घर वापसी नहीं हुई, क्योंकि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी समेत कुछ और मांगें सरकार से पूरी करवाना चाहते हैं। इनमें आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों को मुआवजा और उनकी याद में स्मारक बनाना, जिन किसानों पर आंदोलन के दौरान मुकदमे दर्ज हुए, उन्हें वापस लेने की मांगें भी शामिल हैं।
लोकसभा में कुछ सांसदों ने आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों का आंकड़ा सरकार से जानना चाहा, साथ ही ये पूछा कि क्या सरकार का उक्त आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के परिजनों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का विचार है। इस पर केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बुधवार को संसद में बताया है कि सरकार के पास दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान मरने वाले किसानों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। विपक्ष की ओर से मृतक किसानों के परिवारों को आर्थिक मुआवजा दिए जाने के सवाल पर केंद्रीय मंत्री ने कहा कि चूंकि सरकार के पास किसानों की मौत का कोई रिकॉर्ड नहीं है, ऐसे में आर्थिक सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता।
मानवीय स्वभाव है कि जब आप किसी के बारे में फ़िक्रमंद होते हैं, किसी का भला चाहते हैं तो उसका सुख, उसकी खुशी आपकी प्राथमिकता होती है। आप ये जानने की कोशिश करते हैं कि उसके जीवन में कोई मुश्किल तो नहीं है, वो अगर किसी तक़लीफ़ से गुजर रहा है, तो उसे कैसे दूर किया जा सकता है, इस बारे में विचार किया जाता है। न कि ये कहा जाता है कि मैं तुम्हारा हितैषी तो हूं, लेकिन मुझे पता ही नहीं है कि तुमने कौन सी तक़लीफ़ें उठाई हैं, इसलिए तुम्हारे लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। इस वक़्त मोदी सरकार का किसानों के लिए रवैया कुछ इसी तरह का है।
कृषि मंत्री ने कितनी आसानी से संसद में यह जवाब दे दिया कि सरकार के पास किसानों की मौत का कोई रिकार्ड नहीं है। यानी एक साल से अधिक दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान किस हाल में आंदोलन कर रहे थे। इस दौरान उनको किन तकलीफों से गुजरना पड़ा, इस बारे में सरकार को कुछ पता ही नहीं है। क्या सरकार का सूचनातंत्र इतना कमजोर है कि सरकार को राजधानी की सीमा पर चल रहे आंदोलन की भी पूरी जानकारी नहीं मिल सकी। इससे पहले कोरोना काल में हुई मौतों के बारे में भी सरकार का यही अनजान रहने वाला चेहरा सामने आया था। चीन ने भारत की सीमा पर कहां तक अतिक्रमण किया इस बारे में भी सरकार ने चुप्पी साध रखी थी। पेगासस जासूसी कांड पर भी सरकार कुछ नहीं कहना चाहती। आखिर देश में घट रही हर वो बात, जिस पर जनता परेशान है, उससे सरकार इतनी अनजान क्यों है।
ख़ैर, कृषि मंत्री का जवाब आधिकारिक तौर पर संसद में दर्ज हो गया है, तो मृतक किसानों के परिजनों को मुआवजा भी नहीं मिलेगा, ये अभी तय हो गया है। अब आगे इस मामले को अदालत में ले जाया जाए, तो बात अलग है। जब किसानों की मौत के बारे में सरकार के पास कोई जानकारी ही नहीं है, तो ये बात भी तय है कि कोई स्मारक भी शहीद किसानों की याद में सरकार की ओर से नहीं बनेगा। वैसे भी सरकार यदि स्मारक और मुआवजे की बात मान लेगी तो यह उसकी विफलता को ही साबित करेगी।
ग़लतियां इंसानों से ही होती हैं, इसलिए सरकार का भी कोई ग़लती करना जुर्म नहीं है। मगर उस ग़लती को न मानना, अपनी विफलता को जुमलों और वादों के बोझ में दबा देना, ये गलत है। मोदी सरकार ने तो कृषि कानूनों की वापसी करते हुए भी यह नहीं माना कि इन कानूनों को पारित कर उसने कोई बेजा काम किया है। सरकार की नजर में कानून सही हैं, उनका विरोध गलत है। लेकिन फिर भी कानून वापसी हुई तो यह उम्मीद बंधने लगी कि अब बाकी मांगें भी सरकार मान लेगी। अभी सरकार ने एमसएपी के लिए भी किसान संगठनों से पांच नेताओं के नाम मांगे हैं। आंदोलनकारी किसानों में से बहुत से लोग इसे भी बड़ी जीत की तरह देख रहे हैं। अब किसान संगठनों के बीच इस बात को लेकर विमर्श चल रहा है कि आंदोलन जारी रखा जाए या खत्म कर घर लौटा जाए।
एक साल से अपने घरों और खेतों से दूर रहकर आंदोलन करना और हर रोज सरकार और सरकार समर्थकों की ओर से चली जा रही चालों का जवाब देना आसान नहीं है। ऐसे में आंदोलन खत्म कर किसान घर लौटते हैं, तो आश्चर्य नहीं। मगर इसके साथ ही सरकार की नीयत पर नजर रखना जरूरी है। कृषि मंत्री ने तो मंगलवार को संसद में ये भी बताया था कि 2020 में किसानों की आत्महत्या के मामलों में कमी आई है और पिछले साल के मुकाबले इनकी संख्या 5,579 रही है। जबकि एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या रुकने की बजाय बढ़ रही है। देश में 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र में 10,677 लोगों की आत्महत्या की, इसमें 5,579 किसान और 5,098 खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याएं शामिल हैं।
दस हज़ार से अधिक लोगों ने जिंदा रहने की जगह मौत को गले लगाया, तो इसके पीछे जरूर बड़ी वजहें ही रही होंगी। मगर इन वजहों को जानने की जगह आंकड़ों के दम पर ये दिखाने की कोशिश की जाए कि सरकार किसानों का भला चाहती है, लेकिन कुछ किसान इस बात को समझ ही नहीं रहे, तो फिर आगे कुछ कहने-समझने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है। हालांकि किसानों ने अपनी इच्छाशक्ति के बूते सरकार को कुछ झुकने पर तो मजबूर कर दिया है, मगर राजनीति के पेंचोखम में किसानों के हित उलझ कर न रह जाएं, यह देश को देखना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)