अलविदा 2020 तुझे इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि कुछ लोग आंख से आंख मिलाकर खड़े रहे

अली ज़ाकिर

साल 2020 के गुज़र जाने में अब कुछ ही घंटे बाक़ी हैं। लोग अपने अपने तरीक़े से इस साल का मूल्यांकन कर रहे हैं। यही वो साल है जिसमें भारत समेत दुनिया भर में कोरोना आया, कोरोना के कारण दिल्ली समेत कई शहरों में चल रहा ‘शाहीनबाग़’ आंदोलन हटाना पड़ा। यह आंदोलन नस्लवादी क़ानून के ख़िलाफ दिसंबर 2019 में शुरु हुआ था। हर किसी के पास इस साल को याद रखने वजुहात मौजूद हैं। लेकिन इस संवाददाता के पास 2020 को याद रखने के कई और कारण हैं।  ये साल इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि ज़ालिम हुक़ूमत के खिलाफ कुछ लोग आंख से आंख मिलाकर खड़े रहे, बहोत से गय्यूर नौजवानों ने लोकतंत्र बचाने के लिए अपने सीने पर गोलियां खाई। कितने नौजवानों ने हक़ की आवाज़ बुलंद करते हुए जेल में बंद हो गए लेकिन हिम्मत नहीं हारे, टूटे नहीं अंत तक डटे रहे।

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ये साल इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि किस तरह से दंगाइयों ने पूर्वी दिल्ली में संप्रदायिक उन्माद का नंगा नाच किया। किस तरह प्रशासन बेबस एवं मूकदर्शक बना रहा। ये साल इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि एक अदृश्य बीमारी का हव्वा खड़ा कर के सरकार और मीडिया ने गरीब, मजदूर बेसहारा लोगो को हजारों किलोमीटर भूखे, नंगे पैर, पैदल चलने को मजबूर किया। सैकड़ों प्रवासियों ने प्यास की वजह से बीच रास्ते मे दम तोड़ दिया। कुछ मालगाड़ी से कट कर मरे तो कुछ भूख से दम तोड़ दिए।

ये साल इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि साम्प्रदायिक मीडिया का सहारा लेकर सरकार ने किस तरह बेगुनाह, अमन-शांति के पैरोकार एक मजहबी तंजीम को बदनाम किया। उन्हें मुजरिम बनाने और महामारी फैलाने का आरोपी बनाने का सडयंत्र करती है। कैसे इनकी छवि खराब करने के लिए ज़हरीले ऐंकर 24X7 टीवी पर चिल्लाते रहे।

ये साल इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि देश के अन्न उगाने वाले किसान महीनों से पूंजीवादी कानून के खिलाफ सड़कों पर सोने को मजबूर है। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। उनको आतंकी और खालिस्तानी बताकर बदनाम करने की कोशिश जारी है। सैकड़ों किसान अब तक लौट कर वापस घर नहीं जा पाए बल्कि ये दुनिया छोड़ गए।

और आख़िर में सबसे महत्वपूर्ण- ये साल इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि कुछ क़ौमी रहनुमा जरा सी प्रसाशनिक दबाव में अपनों की मुखबिरी करने और सरकारी गवाह बनने से नहीं चूके। नफरत के खिलाफ जो आवाज़ उठाने की नौटंकी करते थे पुलिस की डर से अपने लोगों का साथ छोड़ गए। दिन-रात क़ौम की रहनुमाई का ढिंढोरा पीटने वाले स्वयंभू क़ायद-ए-मिल्लत जो सामने बड़े एक्टिविस्ट बने फिरते थे। और घर के अंदर शाहीन बाग़ के आंदोलनकारियों को बुरा भला कह रहे थे वो आज मुखबिरी करके खुलेआम बाहर घूम रहे हैं और अभी भी चोरी छिपे बेगुनाह लड़कों को फंसाने का काम कर रहे है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)