नोटबंदी के पांच साल: खुद की ठंड के लिये, यह निज़ाम हमें ऊन की फसल ढोने वाली भेड़ से अधिक नहीं समझता है।

जब नोटबंदी की घोषणा, 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे प्रधानमंत्री जी कर  रहे थे, तो अधिसंख्य देशवासियों की तरह मैं भी टीवी के सामने बैठा हुआ था । सेना प्रमुखों से मिलते हुए पीएम की फ़ोटो स्क्रीन पर उभरी और एक घोषणा सुनायी दी कि, प्रधानमंत्री देश को एक आवश्यक सन्देश देंगे । सेना प्रमुखों से भेंट के बाद ऐसी घोषणा से लगा कि, शायद सीमा पर कुछ गड़बड़ी हो गयी हो, या बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई बात होने वाली हो । पर एलान हुआ 1000 और 500 रूपये के नोट उसी रात 12 बजे के बाद कुछ चुनिंदा जगहों को छोड़ कर, वैध नहीं रहेंगे। यह भी एक प्रकार की आपात घोषणा थीं। 8 नवम्बर को रात 12 बजे के बाद से 500 और 1000 के नोट हमेशा के लिये रद्द कर दिए गए । उनकी वैधता समाप्त कर दी गयी । ऐसा करने के तब तीन कारण पीएम ने बताये थे।

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काले धन की समाप्ति

यह नहीं हो पाया क्यों कि जितने राशि के बड़े नोट चलन में थे, उनमें से लगभग सभी नोट बैंकों में वापस आ चुके हैं। काले धन पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा। आरबीआई ने तभी कालेधन सम्बंधित अपने आकलन में कहा था कि अधिकतर कालाधन, सोने या प्रॉपर्टी के रूप में है, न क़ि नकदी में। नोटबंदी का काले धन के कारोबार पर बहुत कम असर पड़ेगा। यह बात भी आज वह बात सच साबित हुई।

आतंकियों को धन की आपूर्ति बाधित करना

इस पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। आतंकी घटनाएं होती रही। आखिरी बड़ी घटना पुलवामा हमला है जिनमे 40 सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गए। उसके बाद जम्मूकश्मीर मे रोज ही आतंकी घटनाएं हो रही हैं।

नक़ली नोटों की पहचान और उनसे मुक्ति

लेकिन जिस प्रकार से लगभग सभी नोट जमा हो गए, उनसे तो यही स्पष्ट है कि, नक़ली नोट या तो इसी भीड़ भड़क्के में जमा कर दिए गये या उनकी संख्या अनुमान से कम थी। यह भी कहा गया था कि इससे मकान सस्ते हो जाएंगे,  लेकिन 2019 में रिजर्व बैंक की एक के अनुसार, ‘‘पिछले चार साल में घर लोगों की पहुंच से दूर हुए हैं। इस दौरान आवास मूल्य से आय (एचपीटीआई) अनुपात मार्च, 2015 के 56.1 से बढ़कर मार्च, 2019 में 61.5 हो गया है। यानी आय की तुलना में मकानों की कीमत बढ़ी है।”

जब यह सब नहीं हो पाया तो, गोलपोस्ट बदल कर कहा गया कि इससे कैशलेस भुगतान प्रणाली में तेजी आएगी, जिससे कालेधन के उत्पादन पर रोक लगेगी। पर जब यह भी दांव विफल हो गया तो, कहा गया कि लेस कैश भुगतान प्रणाली आएगी। कुल मिला कर जिन उम्मीदों को लेकर, सरकार ने यह कदम उठाया था, वे उम्मीदे तो पूरी न हो सकीं अलबत्ता इस एक निर्णय ने देश की विकासशील अर्थव्यवस्था को बेपटरी कर दिया। इस प्रकार जिन उद्देश्यों के लिए यह मास्टरस्ट्रोक और साहसिक कदम उठाया गया था, जिसकी विरूदावली तब गायी जा रही थी, वह अपने किसी भी लक्ष्य को पूरा नहीं कर सका। अब तो इसे मास्टरस्ट्रोक कहने वाले भी इसकी उपलब्धियों पर बात नही करते हैं । इस अजीबोगरीब मास्टरस्ट्रोक के निर्णय से, लाखो लोगों की रोज़ी रोटी छिन गयी, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, रीयल स्टेट सेक्टर, अनौपचारिक व्यावसायिक क्षेत्र, तबाह हो गए। 2016 के बाद सभी आर्थिक सूचकांकों में जो गिरावट आना शुरू हुयी वह अब तक जारी है।

नोटबन्दी की नीति के पीछे की समझ में सबसे महत्वपूर्ण विंदु यह है कि, अर्थशास्त्रियों के अनुसार, काला धन केवल नकद में नहीं होता है। आय और धन में अंतर है।  कालाधन का इकट्ठा होना,  आर्थिक गतिविधि पर आधारित एक प्रक्रिया ही है। अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने स्क्रॉल वेबसाइट में एक लेख इस सम्बंध में लिखा है। उनके अनुसार, अगर कोई डॉक्टर 50 मरीजों को देखता है और 30 तक भुगतान करने की घोषणा करता है, तो बाकी के द्वारा भुगतान किया गया पैसा उंसकी काली आय है। अर्थशास्त्र में इसे अंडर-इनवॉइसिंग का एक उदाहरण कहा जाता है, जो लगभग सभी व्यवसायों मे नियमित रूप से होता है। इसी काली आय में से जो बचत होती है, वह वर्षों में जमा होने वाली संपत्ति बन जाती है।

धन को विभिन्न रूपों में रखा जाता है, जैसे कि अंडरवैल्यूड इन्वेंट्री या विदेशों में टैक्स हेवन में रखी गई शेष राशि। नकदी, जिस पर कोई रिटर्न नहीं मिलता है, वह कालेधन की एक छोटी राशि होगी, यानी, समस्त काले धन का 1% लगभग। इस प्रकार, यदि नोटबन्दी, काले धन को नष्ट करने में कामयाब भी होती तो केवल 1% काला धन, जो नक़द में और, ₹1000 और ₹500 के नोटों में रहता, वही समाप्त होता।  लेकिन, फिर भी, अंडरवैल्यूड  चालान के माध्यम से चली आ रही, काली आय को उत्पन्न करने की प्रक्रिया तो जारी ही रहेती। उसे रोकने का सरकार के पास क्या उपाय है ?

प्रोफेसर अरुण कुमार, जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हैं, ने कुछ आंकड़े भी दिए हैं। उनके अनुसार, “जून 2017 में अनुमान लगाया गया कि 10 जनवरी, 2017 तक 99% तक की सारी रद्द मुद्रा, बैंकों को वापस हो जाएगी। अगस्त 2017 में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा इसकी पुष्टि भी की गई। मुद्रा का शेष 1% भाग, सहकारी बैंकों और विदेशों में या न जाने कहाँ था। यानी रद्द हुयी सारी करेंसी बैंकों में वापस आ गयी। फिर क्या काला धन रहा ही नहीं या सरकार, नोटबन्दी के पहले, नोटबन्दी के कारणों और परिणामों का अनुमान नहीं लगा सकी थी ?”

अर्थव्यवस्था के लिए नकदी मुद्रा शरीर मे रक्त प्रवाह की तरह होता है, जो शरीर के सभी अंगों को पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। नकद धन का प्रवाह, समस्त आर्थिक लेनदेन को गति प्रदान करता है, और जनता को, उंसकी आय उत्पन्न करने में मदद करता है।  अगर शरीर से 85% खून निकाल लिया जाए और 5% हर हफ्ते बदल दिया जाए, तो शरीर नहीं बचेगा।  इसी तरह, जब अर्थव्यवस्था में कुल प्रचलित, मुद्रा का 85% भाग निकाल दिया गया और लगभग एक वर्ष में थोड़ा-थोड़ा करके उसे बदल दिया गया, तो देश की अच्छी खासी अर्थव्यवस्था ढहने लगी। तभी डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि, इस नोटबन्दी ने जीडीपी को 2% का नुकसान होगा और वह हुआ भी। कोरोना के पहले ही जीडीपी नीचे गिरने लगी थी। लेकिन सरकार को यह आभास हो जाने पर भी कि, उसने एक बेहद अव्यावहारिक और अर्थव्यवस्था के लिये घातक निर्णय ले लिया है, यदि कुछ दिनों के भीतर रद्द हुयी मुद्रा को बहाल कर दिया गया होता, तो नुकसान कम होता और हो सकता है, उसकी भरपाई भी हो जाती।

भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य रीढ़, असंगठित क्षेत्र है, जिसमें देश के समस्त कार्यबल का 94% कार्यबल कार्यरत है।  इसमें सूक्ष्म और लघु इकाइयाँ, मैन्युफैक्चरिंग यूनिट, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन, छोटे व्यापारी, घरेलू कर्मचारी, रोजाना कमाने खाने वाले, टैक्सी, ऑटो चालक, कृषि सेक्टर आदि आदि, वे सभी, जो न तो नियमित और तयशुदा वेतन पाते हैं और न ही जिनकी नियमित आय है, शामिल हैं। वित्तीय लेनदेन का काम, यह सेक्टर पूरी तरह से, नकदी के साथ काम करता हैं न कि औपचारिक बैंकिंग सिस्टम के माध्यम से। नकदी का सबसे अधिक असर इसी सेक्टर पर पड़ा। नक़द के अभाव में जब यह सेक्टर प्रभावित हुआ तो, अर्थव्यवस्था में, मांग की कमी के कारण, संगठित क्षेत्र भी प्रभावित होने लगा, क्योंकि लोगों की आय कम हो गई थी और असंगठित क्षेत्र बिना नकदी के काम नहीं कर सकता था।

हालांकि, आधिकारिक वित्तीय आंकड़ों से पता चलता है कि नोटबन्दी के साल, 2016-17 में, विकास दर, दशक के लिए सबसे अच्छी विकास दर रही। नोटबन्दी के समर्थक, यह उदाहरण देकर नोटबन्दी के फैसले को नीतिगत रूप से तो सही ठहराते हैं और विफलता का दोष बैंकिंग और सिस्टम को देते हैं। सिस्टम, ठीक से काम करे, यह जिम्मेदारी भी सरकार की ही है। साल 2016-17 में विकास दर के बढ़ने का कारण यह था कि, तब असंगठित क्षेत्र का डेटा उपलब्ध नहीं था, इसलिए जीडीपी डेटा इसके अध्ययन के लिए एक प्रॉक्सी के रूप में संगठित क्षेत्र का उपयोग करता था।  हो सकता है कि विमुद्रीकरण से पहले यह बात सही हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि, नोटबन्दी के बाद, अर्थव्यवस्था की मंदी का दौर शुरू हो गया। विमुद्रीकरण के बाद, अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले, इसके दीर्घकालिक प्रभाव स्पष्ट रूप से आज भी दिखाई दे रहे हैं।  बढ़ती बेरोजगारी और समाजिक विषमताओं में वृद्धि के कारण मांग में गिरावट आई है। यह परिणाम 2020 में कोविड -19 महामारी की चपेट में आने से पहले का का है।

नोटबन्दी एक बेहद अनुचित कदम था जिसने अपने लक्ष्यों में से, एक भी लक्ष्य हासिल नहीं किया, भले ही गोलपोस्टों को समय समय पर बदल कर के बेहतर दिखाने की कोशिश की जाती रही हो। सरकार ने भी इसकी विफलता को समझा तो, पर वह इसकी विफलता को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं कर पायी। इसीलिए, 2016 के बाद के चुनावों में इसे उपलब्धि के रूप में कभी भी, प्रदर्शित नहीं किया गया। नोटबन्दी ने समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों – महिलाओं, किसानों और श्रमिकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला – जबकि काली अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने में यह विफल रही।

चाहे, नोटबन्दी के समय, लाइनों में खड़े खड़े, मरते लोगों से जुड़ी खबरें हो, या जीएसटी के कुप्रबंधन से परेशान और बर्बाद होते, मध्यम वर्ग के व्यापारी हों, या 2020 के लॉक डाउन के बाद सैकड़ो किलोमीटर सड़को पर घिसटते हुए कामगारों के रेलें हों, या दिल्ली सीमा पर धरनो में बैठे किसान हों, या आज हमारे आसपास अस्पतालों की बदइंतजामी और प्राणवायु के इंतज़ार में मरते हुए लोग हो, एक भी अवसर पर न तो प्रधानमंत्री ने और न ही सरकार ने इस पीड़ित जनता के लिये कोई संवेदना  जताई और न ही उनके मन मे, किसी अफसोस का लेशमात्र भी भाव जगा।

अब कुछ उदाहरण देखिये

नोटबन्दी का वह वाक्य याद कीजिए, ताली बजा कर यह कहना कि, “घर मे शादी है”, और फिर अंगूठा नचा कर कह देना कि, “पास मे पैसे नहीं है,” यह देहभाषा और यह सम्वाद मेरे मस्तिष्क से नहीं निकल पाता है।

यही हाल 2020 के कामगारों के विस्थापन पर था और प्रधानमंत्री ने एक शब्द तक नही कहा, न तो संवेदना के और न ही उस बदइंतजामी पर।

11 महीने से किसान अपनी मांगों को लेकर धरने पर बैठे हैं और 700 से अधिक किसान वहां मर चुके हैं, पर एक शब्द भी प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं निकला। बात बात पर निकलने वाली ट्वीट ध्वनि भी इस बेहद महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक जनआंदोलन पर, मौन हो जाती है।

जब लोग इस महामारी से या तो मर रहे थे या मरणासन्न थे, तब प्रधानमंत्री, ‘मोगैम्बो खुश हुआ’ की तर्ज पर अपनी जनसभाओं में भीड़ को देख कर आह्लादित थे। आह्लाद के उन पलों में एक जिम्मेदार शासक के रूप में, उनके मन मे क्या यह बात भी कभी आयी थी कि, सरकार को संवेदनशील भी होना चाहिए।

सरकार के समर्थक कहते हैं सकारात्मक सोचना चाहिए और हर बात पर राजनीति नही की जानी चाहिए। सकारात्मक सोच के इस भाषण पर मुझे धूमिल की एक कविता याद आती है-

जनता,

अपने देश की जनता,

एक भेड़ है,

जो दूसरों की ठंड के लिये,

अपनी पीठ पर,

ऊन की फसल ढोती है !

हम सबको यह निज़ाम, अपनी ठंड के लिये, आपनी पीठ पर, ऊन की फसल ढोने वाली भेड़ से अधिक नहीं समझता है, और हम में से अधिकतर, विशेषकर, सरकार के समर्थक मित्र ऐसी भेड़ बन भी चुके हैं। वे भी इस बदहाल अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई, विकराल होती बेरोजगारी और बदइंतजामी से दुःखी हैं। मौत, बदइंतजामी और महामारी ने उनके घर भी जाने से परहेज नही किया है, पर वे उस बैगपाइपर को कैसे कोसें, कैसे तन कर खड़े हों, उसके सामने, जिसे उन्होंने अवतार मान रखा है। कैसे पूछें उससे  यह सवाल कि हमे ले किधर जा रहे हो ! वे यह यकीन तक नहीं कर पा रहे हैं कि, बैगपाइपर की मुग्ध ध्वनि मोहनिद्रा में, मदहोश कर, उन्हें दरिया में झोंक देने के लिये, अभिशप्त है। ऐसे माहौल में जब हम सभी आर्थिक सूचकांकों मे नीचे जा रहे हैं, धर्मांधता के वायरस से बुरी तरह संक्रमित हो रहे हैं, और सरकार, खामोश बनी सिवाय चुनावी रणनीति बनाने के,  कहीं दिख नहीं रही हो तो, आज सकारात्मक बाते कहने का अर्थं है, एक ऐसी भेड़ बन जाना जो सिर पर एक बाल्टी रख कर घूम रही है और कह रही है कि वह सकारात्मक सोच रही है!

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)