दीपक असीम
जिस सरकार में बैठे लोग अंडा खाना पाप समझते हों और बच्चों को मिड डे मील में अंडा देने का विरोध करते हों, वो शराब के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते होंगे, यह कैसे माना जा सकता है? शराब को लेकर एक दुचित्तापन हिंदी भाषी राज्यों की तमाम सरकारों में मिल जाएगा। गांधी जी चूंकि शराबबंदी के हिमायती थे इसलिए शराब को लेकर एक हिकारत कांग्रेस सरकारों में रही और शराब बैन तो नहीं की, मंहगी करते चले गए जैसे कह रहे हों कि हम बैन नहीं कर रहे मगर इतनी मंहगी कर रहे हैं कि शराब पीना मुश्किल हो जाए। शराब को लेकर दोगली सोच का एक कारण यह रहा कि सत्ता में शीर्ष पर हिंदू सवर्ण ही बैठे, जो अपना खान-पान पूरे देश पर लादना चाहते थे और आज भाजपा में भी वही सवर्ण वर्ग सत्ता के शीर्ष पर काबिज है, जो अपना खान-पान सब पर थोपना चाहते हैं। सरकारों को बाद में समझ आया कि ये तो कमाई का भी बड़ा ज़रिया है और ऊपरी इनकम का भी। बड़ी बड़ी शराब लॉबियां हैं जो नेताओं का हर नखरा उठाने को तैयार हैं और पार्टी फंड को एक इशारे पर धन से लबालब भर सकती हैं। कोरोना काल में जब सब चीज़ें बंद थी, तब शराब की दुकाने सबसे पहले खोली गईं क्योंकि राज्य सरकार के पास कर्मचारियों को पगार देने के पैसे नहीं थे।
शराब के प्रति सवर्ण वर्ग के नेताओं की हिकारत का एक नतीजा यह हुआ कि सरकारी शराब की क्वालिटी पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया गया। अगर कोई ऐसा करता तो राजनीतिक रूप से भी नुकसान में रहता कि मंत्री जी को शराबियों का बड़ा खयाल है। शराबी शब्द बड़ा भ्रमित करने वाला है। अंग्रेजी में इसका मतलब होगा अल्कोहलिक यानी शराब का आदी। हिंदी पट्टी में जिसने एक बार भी गिलास उठा लिया उसे धड़ल्ले से शराबी कहा जा सकता है। कभी कभार पीने वाले शौकीनों को भी शराबी कहा जा सकता है और एक बार किसी को शराबी कह दिया जाए तो दुनिया भर की निंदा-आलोचना के टोकरे उस पर उलटे जा सकते हैं। ना तो शराब को लेकर हमारी सोच साफ है और ना शराबियों को लेकर।
महाराष्ट्र में कदम कदम पर बार मिल जाएंगे। मगर ज़हरीली शराब से वहां कोई कभी मरा हो याद नहीं आता। इसी तरह केंद्र शासित प्रदेश गोवा, दमन, दीव आदि में शराब सस्ती भी है और बहुत पी भी जाती है। वहां भी ज़हरीली शराब को लेकर कोई कांड नहीं हुआ। यह ठीक है कि इंदौर कलेक्टर मनीष सिंह ने अवैध शराब के धंधेबाजों पर अंकुश लगाने का संकल्प ले लिया है और अब शराब के अवैध कारोबारियों की खैर नहीं है, मगर यह जड़ काटना नहीं है। जड़ काटने के लिए आबकारी नीति और सरकार की सोच में बदलाव की ज़रूरत है। शराब राजस्व का जरिया ही नहीं है, कुछ लोगों की थकान दूर करने, मनोरंजन करने, तनाव कम करने का साधन भी है। सिखों और ईसाइयों में शराब का चलन अच्छा खासा है। आदिवासियों और दलित वर्ग में शराब का सांस्कृतिक महत्व है। उनके कई उत्सव शराब के बिना अधूरे हैं। युवा वर्ग भी शराब का शौकीन है। शराब को लेकर सोच बदलनी होगी। अवैध शराब बंद हो सकती है बशर्ते सरकार अपनी शराब को कड़ी निगरानी में बनवाए और उसमें क्वालिटी एड करे। साथ ही सबसे सस्ती शराब के भाव न्यूनतम मज़दूरी की दर के हिसाब से तय करे। लोगों की आय और शराब के बीच एक बैलेंस होना चाहिए। अवैध शराब क्या होती है? जो फैक्ट्री से बिना टैक्स दिये ले ली जाती है। नकली शराब भी अवैध शराब कहलाती है जो स्प्रिट और रंग मिलाकर बनाई जाती है। नौसादर और रसायनों से मिलकर बनने वाली शराब भी अवैध शराब है। इन सभी शराबों की यूएसपी इनका सस्ता होना है। अगर सरकारी शराब ही सस्ती और सुरक्षित होगी तो कोई क्यों अवैध खरीदेगा।
अहातों की गुंडागर्दी भी बार की लायसेंस फीस कम करके रोकी जा सकती है। महाराष्ट्र में किसी भी बार पर चले जाइये दो तीन चीज़ों की गारंटी होती है। पहली यह कि शराब नकली नहीं मिलेगी, कम नहीं मिलेगी और बहुत महंगी नहीं मिलेगी। महाराष्ट्र के तमाम बारों में पानी, गिलास और कोई एक चखना मुफ्त भी दिया जाता है। महाराष्ट्र में शराब मध्य प्रदेश के मुकाबले महंगी है, मगर बार मे बैठ कर पीना यहां महंगा है। केंद्र शासित प्रदेश दमन-दीव-गोवा आदि में भी शराब न सिर्फ बहुत सस्ती है, पीने वाले को पापी समझ कर ना शराब बेची जाती है ना पिलाई जाती है। यहां तो अहातों का हाल यह है कि पीने वाले को लगता है वो खून करके यहां छिपने आया है। जो इनकी शर्तें हैं माननी ही पड़ेंगी।
दुनिया की तमाम सरकारें सस्ती और सुरक्षित शराब देना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं। अपने ही देश में कुछ राज्यों की सरकारें शराब को लेकर वो सोच नहीं रखती, जो हिंदी पट्टी के राज्यों में रखी जाती है। नगालैंड में तो शराब का लायसेंस का कोई मतलब ही नहीं है। जिसे घर में बनानी है बनाए और बेचे। अंग्रेजी शराब वहां बाहरी लोग चौराहे पर दुकान किराये से लेकर बेचते हैं और पैसा पुलिस के अलावा स्थानीय आदिवासी गैंग को देते हैं। इन सबको पैसा देने के बाद भी नगालैंड में शराब महंगी नहीं है। पेट्रोल और डिजल की तरह अपने देश में शराब दुनिया में सबसे महंगी बिकती है। शराब को लेकर हमारी सोच और हमारी करतूतें हमारे पाखंड का ही एक नमूना है। अगर हम सोच में बदलाव नहीं करते तो शराब कांड होते रहेंगे। अभी तक गरीब गुरबा के हिस्से में आने वाली ज़हरीली शराब अब महंगे बार में भी आ गई है। आबकारी नीति को बदलने, तर्कसंगत बनाने और जनता के प्रति उसकी जवाबदेही तय करने का समय आ गया है। याद रहे शराब पीना कोई पाप नहीं है। बहुत लोग बहुत कारण से पीते हैं। जब आप कोई तनाव लेकर पागलपन के डॉक्टर के पास जाते हैं तो वो भी पहली दवा आपको नशे के रूप में ही देता है जो आपका दिमाग़ को आराम देती है।