दलित राजनीति और बसपा का मूड, क्या यह मायावती का आखिरी चुनाव होगा?

शकील अख्तर

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सबसे खतरनाक होता है फाल्स ( झूठा- छली) नेतृत्व! कोई समुदाय बिना नेतृत्व के इतना नुकसान नहीं उठाता जितना गलत नेतृत्व के हाथों. और अगर वह समुदाय समाज का सबसे कमजोर और शोषित तबका हो तो निज स्वार्थ से उपर न उठ सकने वाला नेतृत्व उसके अंधेरों को और बढ़ा सकता है. उत्तर प्रदेश में मायावती इन दिनों यही कर रही हैं. अपने घर की सुरक्षित चारदिवारी में बैठी मायवती ट्वीट करके  सारी समस्याओं की जिम्मेदारी सपा और कांग्रेस पर डाल देती हैं और साथ ही भाजपा की राज्य और केन्द्र सरकार से बड़े विनम्र अंदाज में गुजारिश कर देती हैं कि सरकार भी इसका उचित संज्ञान ले तो बेहतर!

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. हर पार्टी ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है. पोजिशनें क्लीयर कर दी हैं. भाजपा की मदद करने के लिए दूर दक्षिण से औवेसी साहब आ गए हैं. उत्तर प्रदेश में उनका कोई अस्तित्व नहीं है. पंचायत या नगरपालिका तक में एक सीट नहीं है. मगर वे सीधे मुख्यमंत्री योगी को चैलेंज देते हैं कि अब दोबारा सरकार नहीं बनाने देंगे. और मजेदार बात यह है कि योगी इसका जवाब देते हैं और औवेसी को बड़ा और राष्ट्रीय नेता बताते हुए कहते हैं कि हमें यह चुनौती मंजूर है!

यूपी के चुनाव पूर्व राजनीतिक स्थितियों की यह एक बानगी है. औवेसी खुद को सबसे बड़ा विपक्ष घोषित करें और मुख्यमंत्री योगी उसे स्वीकार करके औवेसी की ललकार का जवाब दें. इस नूरा कुश्ती का माहौल बनाने का मतलब है कि जनता को यह समझाना कि बाकी दल और नेता कहीं नहीं हैं. असली मुकाबला योगी और

औवेसी में ही होना है. मीडिया इसे खूब चला रहा है. टीवी इस तरह कहानियां बना रहा है जैसे यूपी का सारा चुनाव औवेसी के इर्दगिर्द ही रहने वाला है. ऐसे में दलित वोट क्या करेगा? चुनाव के हिन्दु मुसलमान रंग में आते ही दलित भगवा होना शुरू हो जाएगा और 2017 विधानसभा की तरह फिर धर्म के नाम पर वोट डाल आएगा. वह हाथरस की दलित लड़की का सामुहिक बलात्कार, रात को उसके शव को चुपचाप जलाना, सोनभद्र का जनसंहार सब भूल जाएगा और हिन्दु मुसलमान भावनाओं में बहने लगेगा. मायावती चाहेंगी तो भी वह नहीं रुकेगा. और मायावती क्या चाहेंगी यह कहना ही अभी सबसे मुश्किल है. या इसे इस तरह

कहना चाहिए कि इस चुनाव का सबसे बड़ा रहस्य ही यह है कि मायावती क्या करेंगी. जिसे उनकी आखिरी पारी कहा जा रहा है वह कैसे खेलेंगी? अगले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होना है. कई लोगों को उम्मीदें हैं. मोदी जी के होने का यही फायदा है कि वह किसी को भी दे सकते हैं. और किसी को भी निराश कर सकते हैं. कोविंद को दिया और आडवानी जी अभी भी शायद हिम्मत नहीं हारे हैं. खैर तो मायावती भी और कांग्रेस के एक दो सीनियर लोग भी जो मोदी जी का यशोगान कर चुके हैं सीरियस उम्मीदवार हैं. वैसे लाइन में तो मुलायम सिंह से लेकर शरद पवार तक कितने ही लोग हैं. मगर मोदी जी की राजनीति के लिए कौन उपयोगी होगा और अगले साल तक भाजपा में कौन प्रभावशाली होगा, मोदी, अमित शाह या योगी सब कुछ इसी पर निर्भर करेगा.

 

खैर वह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए बहुत सारे लोगों को लालायित रखना एक अलग कहानी हो जाएगी फिलहाल यह कि एक समय ऐसा था जब देश के पहले दलित प्रधानमंत्री के तौर पर मायावती का नाम लिया जा रहा था. 2009 में अमेरिका में एक क्रान्ति हुई. बराक ओबामा पहले ब्लैक राष्ट्रपति चुने गए. पूरी दुनिया में एक बड़ा मैसेज गया. भारत में भी कहा जाने लगा कि यहां भी पहले दलित प्रधानमंत्री का समय आ गया है. और इसके लिए पूरे देश में एक नाम चर्चा में रहा और वह था मायावती का नाम. लेकिन ज्यादा समय नहीं बीता कि अब प्रधानमंत्री तो छोड़िए मुख्यमंत्री की भी कोई बात नहीं करता और उप राष्ट्रपति के लिए भी उनके सारे समर्पण के बावजूद कई किन्तु, परन्तु लगाए जाते हैं.

भारतीय राजनीति में मायावती का उत्थान और पतन एक दिलचस्प कहानी है. लेकिन यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है बल्कि एक पूरे समुदाय की आशा और निराशा की कहानी है. मायवती दलितों की मसीहा के तौर पर राजनीति में चमकी थीं. मगर देश के दूसरे दलित नेताओं की तरह वे भी सत्ता की चकाचौंध में अपने समुदाय के दुःख दर्द भूल गईं. डा. डॉ. बी.आर अंबेडकर के बाद कोई दलित नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने देश के इस सबसे दमित, शोषित तबके के विश्वास को खंडित नहीं किया हो. डॉ. बी.आर अंबेडकर के बाद कांशीराम ने दलितों के मुद्दों को उठाया मगर संगठन को मजबूत करने के बदले वे मायवती को मजबूत कर गए.

मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनीं और हर बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वे दलितों से अपनी दूरी बढ़ाती चली गईं. आज उनके नजदीक या उनके सलाहकारों में कोई दलित नहीं है. कांशीराम जी के साथ रहे लोगों में से भी सबको मायावती अपने से दूर कर चुकी हैं. सारी राजनीति पार्टी के महासचिव और अब मीडिया प्रमुख भी बना दिए गए सतीश मिश्रा के हाथों में है. मायावती सिर्फ ट्वीट करती हैं. वह भी कौन लिखता है किसी को नहीं पता. हाथरस में दलित लड़की के साथ अत्याचार की इतनी बड़ी घटना हुई. पहली बार ऐसा हुआ कि पीड़ित परिवार अकेला पड़ गया. उसके घर के बाहर बड़ी बड़ी सभाएं करके धमकियां दी गईं. मगर मायावती एक बार भी परिवार से मिलने नहीं गईं. राहुल और प्रियंका गांधी दो दो बार गए. पुलिस ने उन्हें रोका लाठीचार्ज किया. राहुल को धक्के देकर गिराया. प्रियंका ने अपने हाथों पर लाठियां रोकीं. मगर मायवती घर से ही ट्वीट करती रहीं कि दलितों पर अत्यचार कांग्रेस के राज में भी होते थे.

भविष्य किसी को नहीं पता. मगर दलित राजनीति का यह व्यक्तिवादी दौर विचार के लिए बहुत घातक साबित हुआ. सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय, समानता यह सब विचार देश में पिछले तीस पेंतीस साल की देन हैं. इन विचारों ने राजनीति बदल दी. देश में दलित और ओबीसी नेताओं की नई पौध पैदा कर दी. लालू यादव, मुलायम, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान मायावती, अखिलेश सब ने इस परिवर्तन का लाभ उठाया. मगर बड़ा सवाल यह है कि वापसी में अपने समाज या उस विचार को कितना मजबूत किया जिसके सहारे वे सफल हुए?

विचार को मजबूत न करके केवल खुद को मजबूत करने का क्या परिणाम होता है यह अभी सबने रामविलास पासवान प्रकरण में देखा. विचार और समुदाय को छोड़कर जिस परिवार को मजबूत करने के लिए उन्होंने सारे उसूल, संबंध ताख पर रख दिए थे वही परिवार आज आपस में लड़ने में लगा है. बेटे को स्थापित करने के लिए उन्होंने सब अपमान सहे. अपने आखिरी दल बदल के बाद वे मोदी सरकार में मंत्री तो जरूर रहे मगर उनका इतने सालों का जो रौब रुतबा था वह गायब था. लाचार मंत्री की तरह उन्होंने ये 6 साल काटे थे. लेकिन ये त्याग भी व्यर्थ गया जब उनके न रहने के बाद बेटे चिराग को कहना पड़ा कि उसने मोदी जी का साथ दिया मगर अब उसका साथ कोई नहीं दे रहा.

पता नहीं मायावती ने इससे क्या सबक लिया? मगर अवसरवादी नेताओं की राजनीतिक विरासत का यही हश्र होता है. जब आप नहीं होते या आपका वोट बैंक खिसक जाता है तो न कोई आपको पूछता है न आपके द्वारा बनाए गए राजनीतिक वारिसों को! और सबसे बुरा सलूक करता है इतिहास. जो आपको नायको की श्रेणी से उठाकर खलनायकों की श्रेणी में डाल देता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)