तारिक़ अनवर चंपारणी
2013 में एक फ़िल्म राँझना आयी थी। इस फ़िल्म को एक प्रेम कहानी के रूप में फ़िल्माया गया है मगर इसके पीछे एक राजनीति छुपी थी। भले ही सिनेमा को समाज का आईना समझा जाये मग़र फ़िल्म का इस्तेमाल एक प्रोपगंडा के लिए भी खूब किया जाता है। राँझना को देखने के बाद ऐसा मालूम पड़ता है कि यह फ़िल्म 2014 के लोकसभा चुनाव को नज़र में रखते हुए ही बनायी गयी थी। अगर इस फ़िल्म के अलग-अलाव किरदारों और घटनाओं पर गौर किया जाये तब यह फ़िल्म एक प्रेम कहानी से बहुत अलग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र में रखते हुए बनायी गयी थी।
बनारस के अस्सी घाट से शुरू हो रही इस फ़िल्म में एक तमिल भाषी ब्राह्मण लड़का कुंदन(धनुष) की कहानी है।कुंदन के परदादा को कांशी नरेश बनारस की मंदिर में पूजा-पाठ करने के लिए तमिलनाडु से लेकर आये थे। एक तमिल परिवार का दक्षिण भारत से उत्तर भारत के वाराणसी में आना भारतीयता की भावना को प्रदर्शित करता है। नरेंद्र मोदी जब लोकसभा चुनाव से पहले वाराणसी गये थे तब उनका स्टेटमेंट था “मैं ख़ुद आया नहीं बल्कि गंगा मैया ने बुलाया है”। इस फ़िल्म में वाराणसी को सम्पूर्ण भारत की संस्कृति को एक भावनात्मक रूप से जोड़कर दिखाया गया है। नरेंद्र मोदी भी गुज़रात से चलकर वाराणसी चुनाव लड़ने इसी भारतीयता की भावना को साबित करने आये थे।
फ़िल्म में भट्टा पारसौल की घटना को दिखाया गया है। मई,2011 में उत्तरप्रदेश के भट्टा पारसौल में किसानों और पुलिस के बीच गोलीबारी हुई थी। इस घटना के बाद काँग्रेस सांसद राहुल गाँधी के नेतृत्व में एक जनांदोलन खड़ा हो गया था। लेकिन फ़िल्म में बहुत ही चतुराई से राहुल गाँधी के जीवन का एकमात्र जनांदोलन भट्टा पारसौल से भी राहुल गाँधी को निकालकर जेएनयू के छात्रों के हवाले कर दिया गया है। राहुल गाँधी के कैरेक्टर को जेएनयू की महिला नेत्री के हवाले कर देना बहुत चतुराई वाला काम है। इसका दो लाभ मिला। एक, जेएनयू के हवाले करने पर आलोचकों की नज़र इस तरफ़ नहीं पड़ी क्योंकि किसानों के मुद्दों पर जेएनयू हमेशा मुखर रहा है। दूसरा, बहुत आसानी से राहुल गाँधी के संघर्षों को दरकिनार करने की कोशिश की गयी क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने राहुल गाँधी का ही चेहरा था।
इस फ़िल्म में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी का चित्रण किया गया है। बीएचयू की छवि को एक आध्यात्मिक एवं प्रेम भावना से ओतप्रोत एक सेक्युलर गढ़ने की कोशिश की गयी है। इसलिए ही एक मुस्लिम प्रोफेसर(गुरुजी) इंजमाम कल्बे हैदर का करैक्टर दिखाया गया है। जब्कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को बुर्क़ा, पर्दा, हिज़ाब के साथ-साथ लड़कियों के लिए बंदिश के तौर पर फ़िल्माया गया है। यानी इस बात को दर्शाने की पूरी कोशिश की गयी है कि बीएचयू एक स्वतंत्र विचार रखने वाला संस्थान है जब्कि एएमयू के सहारे मुसलमानों का रूढ़िवादी चित्रण किया गया है।
इश्क़ और मुहब्बत के नाम पर फ़िल्म में मुसलमानों का साम्प्रदायिक चित्रण भी हुआ है। पहले गुरुजी की बेटी ज़ोया(सोनम कपूर) के द्वारा एक हिन्दू लड़का कुंदन के प्यार को ठुकरा देना और फिर निकाह के समय अकरम ज़ैदी का मुस्लिम न होकर सिक्ख होने पर हत्या कर देना एक साम्प्रदायिक एंगल देने की कोशिश है। भाजपा द्वारा 2014 का लोकसभा चुनाव भी हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक सांस्कृतिक लड़ाई की तरह पेश करके ही लड़ा गया था।
जेएनयू पर हो रहे हमला को लेकर लोगों की अपनी-अपनी राय है। बड़े-बड़े पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने अपनी तरह से इस सम्बंध में विचार व्यक्त किया है। मुझें लगता है कि यह हमला कोई अचानक से नहीं हुआ है। इसके लिए लोगों को पहले से मानसिक रूप से तैयार किया गया है। पहले जेएनयू के प्रति एक नकारात्मक छवि गढ़ने की कोशिश की गयी। 2014 में लोकसभा का चुनाव होना था और भाजपा सत्ता में वापस आने के लिये पूरी मेहनत कर रही थी। जब जेएनयू के विरोध में जनमत तैयार कर लिया गया तब JNU पर सरकारी हमला शुरू हुआ। जनमत तैयार करने की शुरूआत 2013 में हो चुकी थी। यदि हम राँझना फ़िल्म को समझना शुरू कर देते है तब जेएनयू पर हो रहे हमला को समझना भी आसान हो जायेगा। मेरी जानकारी में जेएनयू के अंदर की राजनीति पर बनी यह पहली फ़िल्म थी।
फ़िल्म में जेएनयू को राजनीतिक रूप से मनोरोगी बताने की कोशिश हुई है। इसलिए जब कुंदन ज़ोया का पीछा करते हुए हॉस्टल पर चढ़ते हुए पकड़ा जाता है और ख़ुद को चोर बताता है उसके बाद कि बहस बहुत ही लाज़वाब है। छात्र जिस तरह से चोरी को स्टेट की विफ़लता और ग़रीबी से जोड़कर चोरी को न्यायसंगत बताते है यह जेएनयू को लेकर समाज मे एक ग़लत अवधारणा बनाने की कोशिश की गयी है। बल्कि इसी बहस के दौरान जब कुंदन को चोरी के आरोप में पुलिस के हवाले करने की बात होती है तब एक छात्र का तर्क होता है कि यदि पुलिस के हवाले करते है तब इसका अर्थ है कि हमलोग स्टेट के सिस्टम में यक़ीन करते है इसलिए पुलिस के हवाले नहीं किया जाये। इस तर्क से एक आमजनमानस में यह धारणा बैठाने की कोशिश थी कि जेएनयू वाले हमेशा सरकार के विरुद्ध होते है। आज जेएनयू को देशविरोधी गतिविधियों के अड्डा के रूप में स्थापित किया जा चुका है जब्कि दूसरा सबसे बड़ा डिबेट टैक्सपेयर या सरकारी फण्ड के दुरुपयोग को लेकर है।
इस फ़िल्म में जेएनयू को भारतीय संस्कृति के लिए ख़तरा के रूप में भी फिल्माया गया है। यूनिवर्सिटी कैंपस के भीतर खुलेआम सिगरेट, शराब और गाँजा का सेवन करते हुए फिल्माया गया है। इससे आम लोगों के विचारों में जेएनयू एक आदर्श के रूप में स्थापित नहीं होकर नकारात्मक छवि बनायी गयी है। जिस तरह से छात्रसंघ अध्यक्ष जसजीत बीच सड़क पर शराब की बोतल लिए हुए एक नयी छात्रा ज़ोया को अपनी बाहों में जकड़ता है इससे दूरस्थ समाज मे बैठें लोगों में खींज ही बढ़ी है। बल्कि चुनाव प्रचार के दौरान ज़ोया और जसजीत का एक साथ चिपककर सोना भी जेएनयू की संस्कृति के रूप में फिल्माया गया है। क़ूल मिलाकर जेएनयू को महिला अत्याचार, अनैतिक सम्बन्ध और अंतरधार्मिक विवाह के गुफ़ा के रूप में चित्राया गया है। राजस्थान के रामगढ़ से भाजपा विधायक रामदेव आहूजा के द्वारा कंडोम वाले ब्यान को हल्का में नहीं टाला जाना चाहिये बल्कि इस फ़िल्म के द्वारा पहले से ही आम लोगों के मन मे यह धारणा बैठा दिया गया था।
फ़िल्म जब आयी थी उस समय दिल्ली में अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था। अचानक से एक धड़ा अलग होकर अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में नयी पार्टी का गठन कर लिया था। इस फ़िल्म में भी जेएनयू के छात्र मिलकर एक राजनीतिक दल का गठन करते है। इसलिए बहुत से लोग इस फ़िल्म को केजरीवाल से जोड़कर भी देखते है मगर ऐसा नहीं है। इसके लिए मेरे पास कई तर्क है। पहला, केजरीवाल अपना पहला चुनाव दिसंबर, 2013 में लड़ता है जब्कि फ़िल्म जून 2013 में रिलीज होती है। दूसरा, पूरी फ़िल्म में कोई भी कैरेक्टर ऐसा नहीं है जिससे केजरीवाल की शिक्षा या उसके संघर्षों के आसपास फिल्माया गया है। तीसरा, केजरीवाल की पार्टी का एक भी लीड चेहरा में महिला नहीं थी। जब्कि जसजीत के मरने के बाद ज़ोया पार्टी को लीड कर रही थी। चौथा, फ़िल्म में नॉमिनेशन होते हुए यह कही भी नहीं दिखाया गया है साथ ही वोटिंग होते हुए भी नहीं दिखाया गया है। हाँ, इतना जरूर दिखाया गया है कि जेएनयू के छात्रों की पार्टी ने अंत मे अपना समर्थन दिया है। यदि इस समर्थन वाले बिंदु को ध्यान में रखते हुए 2013 का दिल्ली विधानसभा चुनाव और 2014 का लोकसभा चुनाव में जेएनयू के छात्रों के रोल को देखना चाहिये। जेएनयू के छात्रों ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी क्षेत्र में केजरीवाल के समर्थन में प्रचार किया था। शायद यही कारण था कि इस फ़िल्म के जरिये पहले ही जेएनयू के शराब, गाँजा, सिगरेट, सेक्स और अंतरधार्मिक विवाह के गुफ़ा के तौर पर चित्रण करके लोगों के सामने पेश किया गया। ताकि आम लोगों के मन मे जेएनयू के बारे में बन चुकी पूर्वनिर्धारित धारणा के कारण जेएनयू के छात्रों कुछ सफ़लता नहीं मिल सके। 2013 से बनी चली आरही इस धारणा के कारण आज भी जेएनयू हमलों का शिकार हो रहा है।
इस फ़िल्म का सबसे अहम किरदार कुंदन है। कुंदन भी मोदी जी की तरह एक असाधारण परिवार का लड़का है। वह भी मोदी जी की तरह एक दिन घर छोड़कर निकलता है और दोबारा वापस नहीं लौटता है। इस बीच वह चोरी करने के लिए हॉस्टल पर चढ़ता है। मोदी के जीवन से भी गहना चोरी की कहानी जुड़ी हुई है। कुंदन जेएनयू कैंपस में चाय बेचता है और मोदी जी गुज़रात के किसी स्टेशन पर चाय बेचते है। चाय बेचते हुए में कुंदन की किस्मत पलटती है भट्टा पारसौल की घटना के बाद राजनीतिक तेवर चढ़ता है। वास्तविक जीवन में चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी उसी बनारस लोकसभा से चुनाव लड़ते है जिस बनारस के अस्सी घाट से कुंदन की कहानी शुरू होती है और एक चाय बेचने वाला इस देश का प्रधानमंत्री बन जाता है।
लेकिन इस पूरे फ़िल्म में एक बात जो सबसे अधिक परीशान करती है वह स्वरा भास्कर का काम करना है। जब पूरी फ़िल्म ही जेएनयू और प्रधानमंत्री मोदी के इर्दगिर्द घूम रही थी उस फ़िल्म में स्वरा का काम करना मेरे लिए बहुत परिशानी का कारण है। कई लोग इसे प्रोफेशनल एथिक्स से जोड़कर देखेंगे। लेकिन स्वरा के बचाव में यह तर्क उचित नहीं है। वह जेएनयू की छात्रा रही है और स्वयं को लेफ्ट एवं प्रगतिशील विचारधारा से जोड़कर देखती है। फ़िर भी वह एक ऐसे फ़िल्म में अदाकारी कर रही है जिस फ़िल्म ने स्वरा के अल्मा मैटर के ऊपर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है बल्कि बदनामी का दरवाज़ा खोल दिया है। यह चूक अनजाने में भी नहीं हो सकती है क्योंकि स्क्रिप्ट पहले ही पढ़ लिया जाता है। स्वर भास्कर की माँ इला भास्कर सिनेमेटोग्राफी की भारत की चोटी की प्रोफेसर में से एक है। अगर इसे चूक मान भी लिया जाये तब इला भास्कर के फेलोशिप पर एक सवालिया निशान है।