अलविदा! लाखों लोगों को ज़िंदगी देने वाली डॉ. विश्वनाथ शांता! हिन्दुस्तान आपका कर्ज़दार रहेगा

अशोक पांडेय

जब गुजरात का चोट्टा सुनार नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक के बारह हजार करोड़ रुपये ले भागा था, उसके सीईओ सुनील मेहता ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था – “हम इस कैंसर को निकाल फेकेंगे। यह कैंसर 2011 से लगा हुआ है और हम सर्जरी कर के इसे हटा रहे हैं।” मद्रास की रहने वाली डी.वी. शांता ने मेहता के बयान में इस्तेमाल किये गए ‘कैंसर’ शब्द पर आपत्ति करते हुए उन्हें एक खत लिखा जिसमें कहा गया था “आपके बैंक में हुए घोटाले के सिलसिले में आपके द्वारा जिस सन्दर्भ में कैंसर शब्द का जिक्र किया गया है उससे मैं बहुत व्यथित हूं। भ्रष्टाचार एक अपराध है जिस पर शर्म की जानी चाहिए। कैंसर अपराध नहीं है। मैं नहीं चाहती कि कैंसर शब्द अपराध, निराशा या भय के साथ जोड़ कर देखा जाये, शर्म के साथ तो कतई नहीं।” बीमारी और उपचार की राजनीति, सामाजिकता और स्मृति जैसे संवेदनशील विषय पर गंभीर शोध कर चुकी मंदिरा चक्रवर्ती ने डी.वी. शांता के इस बयान को अपनी थीसिस में शामिल किया है।

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कौन थीं ये डी.वी. शांता?

जिस तमिल परिवार में विश्वनाथन शांता उर्फ़ वी. शांता का 11 मार्च 1927 को जन्म हुआ था उसने दुनिया को दो-दो नोबेल विजेता दिए, नाना सी.वी. रमण और मामा एस. चन्द्रशेखर मद्रास से मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और एमडी की डिग्रियां हासिल करने के बाद वी. शांता ने जिस साल पब्लिक सर्विस कमीशन का इम्तहान निकाला, उसी साल देश की पहली डिग्री होल्डर डॉक्टर और उनकी प्रेरणास्रोत डॉ. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी ने अड्यार कैंसर इंस्टीटयूट की स्थापना की। परिवार के विरोध के बावजूद वी. शांता ने कैंसर-स्पेशलिस्ट बनने का फैसला किया और 1955 में डॉ. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी को ज्वाइन कर लिया। तब वह बारह बेड्स वाला एक छोटा सा कॉटेज हॉस्पिटल था। वी. शांता ने अपना पूरा जीवन इस अस्पताल को दे दिया और न जाने कितने कैंसर मरीजों के जीवन में पॉजिटिव हस्तक्षेप किया। वी. शांता ने उस समय कैंसर पर शोध करना शुरू कर दिया था जब इस बीमारी का अकल्पनीय अज्ञान था और लोग उसके बारे में ज़रा भी नहीं जानते थे।

उन्होंने कैंसर के प्रकारों और उनके उपचार का गहरा अध्ययन किया और समर्पित डाक्टरों की एक पूरी फ़ौज खड़ी की। एक इंटरव्यू में वी. शांता याद करती हैं कि जब डॉ. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी ने कैंसर के लिए अलग अस्पताल खोलने का फैसला किया तो तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री टी. एस. एस. राजन ने इसका विरोध करते हुए कहा कि अलग से कैंसर अस्पताल खोलने में कोई तुक नहीं है क्योंकि कैंसर सिर्फ बुजुर्गों को होता है जो वैसे भी मर ही जाते हैं। डॉ. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी की एक छोटी बहन कैंसर की शिकार हो चुकी थी और उन्होंने किसी भी तरह के विरोध के बावजूद कैंसर के मरीजों की सेवा करने का फैसला कर रखा था।

The President, Dr. A.P.J. Abdul Kalam presenting the Padma Bhushan Award – 2006 to the Chairperson of the Cancer Institute, Chennai, Dr. (Ms.) V. Shanta, in New Delhi on March 20, 2006.

वी. शांता के काम को कोई तीस साल बाद पहचान मिलना शुरू हुई जब 1986 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बीस साल बाद उन्हें भारतीय सरकार ने पद्मभूषण और पद्मविभूषण भी दिया। 2005 में उन्हें प्रतिष्ठित रैमन मैगसेसे अवार्ड के लिए छांटा गया। इस अवार्ड की कमेटी ने उनके सम्मानपत्र पर लिखा – “एक ऐसे समय में जब भारत में स्पेशलाइज्ड मेडिकल इलाज एक बड़ा व्यवसाय बन गया है, डॉ. शांता का प्रयास अपने संस्थान के मन्त्र-वाक्य – “सभी की सेवा” – को जीवित रखने का है। उनके संस्थान में हर साल आने वाले करीब एक लाख में से साठ प्रतिशत मरीजों का इलाज या तो मुफ्त होता है या उस पर सब्सिडी दी जाती है। सत्तासी साल की शांता आज भी मरीजों को देखती हैं, सर्जरी करती हैं और दिन के चौबीसों घंटे सेवा के लिए उपलब्ध रहती हैं।”

अड्यार कैंसर इंस्टीटयूट के पास आज कोई सवा चार सौ बेड्स हैं जिनमें से तीन सौ मुफ्त हैं। यानी 66% मरीजों से इलाज का पैसा नहीं लिया जाता। जब 1955 में वी. शांता ने इस संस्थान में प्रवेश किया था, उन्हें तीन साल तक ऑनरेरी काम करना पड़ा यानी उन्हें कोई तनख्वाह नहीं दी गयी। यह तब था जब वे उस जमाने की गिनी-चुनी महिला डाक्टरों की तरह जनरल फिजीशियन या गायनोकॉलॉजिस्ट बनकर हजारों रुपये हर माह कमा सकती थीं। फिलहाल तीन सालों के बाद उन्हें दो सौ रुपये प्रति माह की तनख्वाह मिलना शुरू हुई और कैम्पस में आवास मुहैया कराया गया। वे 13 अप्रैल 1955 को अडयार इंस्टीट्यूट में आई थीं। 19 जनवरी 2021 को यानी वे यहां से अपनी मृत्यु के बाद ही गईं।

लाखों लोगों का जीवन बचा चुकी इस महान स्त्री के साठ सालों की तपस्या की सूचना ही जब इक्का-दुक्का अखबारों में छपा करती थीं जाहिर है उनके जाने की खबर ने तो अखबार-चैनलों बड़ी सुर्खी नहीं ही बनना था। सलाम विश्वनाथन शांता! हिन्दुस्तान आपका ऋणी रहेगा।