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जन्मदिन विशेषः राहत इंदौरी, अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे​, फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे​

ज़ाहिद ख़ान

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उर्दू शायरी में राहत इंदौरी, वह चमकता रौशन नाम है, जिनकी पूरे तीन दशक तक मुशायरों में बादशाहत क़ायम रही। सिर्फ़ उनका नाम ही मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत होता था। लोग उनका नाम सुनकर ही मुशायरे में खिंचे चले आते थे। सामयीन में ऐसी शोहरत और मोहब्बत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है। राहत इंदौरी की सिर्फ शायरी ही नहीं, उनके कहन का अंदाज़ भी निराला था। सच बात तो यह है कि ज़्यादातर सामयीन उनकी शायरी के साथ-साथ, उसे बयां करने की अदायगी के दीवाने थे। राहत इंदौरी जैसे शायर दुनिया में एक मुद्दत के बाद आते हैं।

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शुरुआत में मुशायरों के अंदर वह अपनी शायरी तरन्नुम में पढ़ा करते थे, लेकिन बाद में तहत में पढ़ने लगे। आगे चलकर उन्होंने अपना ख़ुद का एक अलग स्टाइल बना लिया। एक नया लहज़ा ईजाद किया, जो लोगों को ख़ूब पसंद आया। उनके शे’र पढ़ने-सुनाने की शैली मक़बूल हो गई। राहत इंदौरी ने ज़्यादातर ग़ज़ल ही लिखीं और वे भी छोटी बहर की। लेकिन उनकी इन ग़ज़लों का मौज़ू और लफ़्ज़ों का जादू दोनों ही सामयीन पर गहरा असर करता था। सादा और आमफ़हम ज़बान में वे सब कुछ कह जाते थे, जिसके लिए कई शायर अरबी—फ़ारसी के कठिन अल्फ़ाज़ और बड़ी बहर का इस्तेमाल करते हैं। यही वजह है कि उनके शे’र अवाम में कहावतों और मुहावरों की तरह दोहराए जाते थे। उनका एक नहीं, ऐसे कई मक़बूल शे’र हैं, जो बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं।

एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों

दोस्ताना मौत से…ज़िंदगी से यारी रखो।

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए

कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए।

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे

कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते।

दोस्ती जब किसी से की जाए

दुश्मनों की भी राय ली जाए।

राहत इंदौरी अपनी ज़िंदगी में हमेशा इस कौल के क़ायल रहे,‘‘शे’र उसी को कहिए जो दिल से निकले और दिल तक पहुंचे।’’ वाकई, उनके शे’र और तमाम अशआर दिल से निकलते थे और बहुत जल्द ही सभी के दिलों में अपनी जगह बना लेते थे। वे मिजाज़ से एहतिजाज और बगावत के शायर हैं। उन्होंने रोमानी शायरी बहुत कम की है लेकिन जितनी भी लिखी, उसकी रंग-ओ-बू औरों से जुदा है। भाषा की रवानगी और खिलंदड़पन उसमें खूब नज़र आता है। शायरी में भाषा और बोलियों को किस तरह से बरता जाता है, कोई यह हुनर उनसे सीखे।

उसकी कत्थई आंख़ों में हैं जंतर-मंतर सब

चाक़ू-वाक़ू, छुरियां-वुरियां, ख़ंजर-वंजर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है

फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब

आख़िर मैं किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते हैं

कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब।

तिस पर उनके सुनाने का मस्ताना अंदाज़ सामयीन पर और भी जादू कर जाता था।  आम शायरों में जो इशारों में बात करने का हुनर होता है, वह राहत इंदौरी में बिलकुल नहीं था। शायरी में वे अपनी बात बेख़ौफ़ और बेबाक तरीके से रखते थे। सिस्टम की गड़बड़ियों को सामने लाने और हुकूमत से सीधे-सीधे टकराने का माद्दा उनमें था। यदि अवाम में हम राहत इंदौरी की मक़बूलियत की वजह तलाशें, तो उसमें उनके उन शे’रों का बड़ा योगदान है, जो सत्ता या सिस्टम के ख़िलाफ़ लिखे गए हैं। जिनमें सिस्टम की नाकामियों और नकारेपन पर गहरी चोट है। मज़लूम, बेबस अवाम राहत इंदौरी के इस तरह के शे’र सुनती, तो उन्हें लगता कि यह उन्हीं के जज़्बात की तर्जुमानी है। जो बात वे नहीं कह पा रहे हैं, कोई तो है जो उनको अपनी आवाज़ दे रहा है। हुकूमत, सरमाएदारों और फ़िरकापरस्त ताक़तों को चैलेंज कर रहा है। इस मामले में उनका शजरा पाकिस्तान के अवामी शायर हबीब जालिब से मिलता था। हमारे मुल्क में आज जिस तरह के हालात हैं, उसमें उनके कई शे’र प्रासंगिक हो गए हैं। जबकि यह शे’र आज से कई बरस पहले लिखे गए थे। ख़ास तौर पर सीएए और एनआरसी कानून के खिलाफ मुल्क में जो तहरीक चली, उसमें राहत इंदौरी की यह ग़ज़ल तो जैसे एक नारा बन गई।

लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में

यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

जो साहिबे मसनद हैं, कल नही होंगे

किरायेदार हैं कोई ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में

किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।

कुछ ऐसे ही तेवर इन शे’रों के हैं,

वो गर्दन नापता है, नाप ले

मगर जालिम से डर जाने का नहीं।

सारा दिन ज़ेल की दीवार उठाते रहिए

ऐसी आज़ादी की हर शख़्स रिहाई मांगे।

अपने मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब और सतरंगी विरासत से उन्हें हद दर्जे की मोहब्बत थी। लिहाज़ा जब भी कभी इस पर जरा सी भी आंच आती, उनका दर्द और गुस्सा उनकी शायरी में झलक जाता था। उनके पाठक और श्रोता भी उनसे इसी तरह के कलाम की उम्मीद करते थे। राहत इंदौरी को मालूम होता था कि वे क्या लिख रहे हैं और इसका अवाम पर क्या असर होगा ? हुकूमत और सियासतदां इस पर क्या रद्देअमल करेंगे ? कई बार उनका लहज़ा इतना तल्ख़ हो जाया करता था कि राहत इंदौरी के मुख़ालिफ़ीन, जहर उगलने लगते थे। उनके ख़िलाफ़ तरह—तरह के इल्जाम लगाते थे। लेकिन अपनी आलोचनाओं की उन्होंने कभी परवाह नहीं की। उन्होंने वही लिखा, जो उनके दिल को भाता था। मुख़ालिफ़ीन के विरोध और आलोचनाओं की वजह से राहत इंदौरी ने अपना स्टैंड नहीं बदला। वे मुशायरों के एंग्री यंग मैन थे। जिनकी हर अदा, उनके दीवानों को पसंद थी। राहत इंदौरी की ग़ज़लों में ऐसे कई शे’र हैं, जो जितने लिखते वक्त सामयिक थे, उतने ही आज मौज़ू हैं। और आगे भी उनकी प्रासंगकिता बनी रहेगी।

जिन चिरागों से तआस्सुब का धुआं उठता है

उन चिरागों को बुझा दो, तो उजाले हों।

या फिर जब वे यह कहते हैं कि –

अपने हाकिम की फ़कीरी पर तरस आता है

जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे।

तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठता था। कई मर्तबा वे बतकही के अंदाज में बड़ी मानीखेज बातें कह जाते थे,

आप हिंदू, मैं मुसलमान, ये इसाई, वो सिख़

यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क़ करें।

सरहद पर तनाव है क्या?

ज़रा पता तो करो चुनाव है क्या ?

मुल्क में उर्दू का क्या मुस्तक़बिल है, उर्दू की कैसे हिफ़ाज़त की जाए ? इस सवाल पर उनकी स्पष्ट राय थी, जिससे शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाक़ी ज़ताए, ‘‘उर्दू हमारी मुल्क की आबोहवा में घुली हुई है। यह हमारी सरज़मीं से पैदा हुई। कई स्थानीय बोलियों से मिलकर बनी है। लिहाज़ा जब तक यह बोलियां ज़िंदा रहेंगी, उर्दू भी ज़िंदा रहेगी। हमें किसी सरकारी इदारे और हुक़ूमत से यह तवक़्क़ो नहीं करना चाहिए कि वह उर्दू को बचाएगी। उर्दू की हिफ़ाजत और उसे फ़रोग देने का जिम्मा हर उर्दू वाले का है। अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाएं, बर्ताव में लाएं, कोर्स में शामिल करें और उसे ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गार से जोड़ें। यदि किसी ज़बान को पढ़ने वाले ही नहीं होंगे, तो वह ज़बान कैसे बचेगी।’’ सिर्फ अकेले उर्दू ही नहीं, उनकी यह बात मुल्क की हर ज़बान और बोली के लिए फिट बैठती है। उनके अशआर के साथ उन्हें खिराज़-ए-अक़ीदत…

अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे​,

फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे​,

ज़िन्दगी है तो नए ज़ख्म भी लग जाएंगे​,

अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे।

(लेखक प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन पर केंद्रित दो अहम किताबों तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़रऔर तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़रके लेखक हैं।