जाति पर भागवत का सिद्धांतः ‘नई बोतल में पुरानी शराब’

‘‘मैं (ईश्वर) सभी प्राणियों में हूं। नाम या रंग चाहे कोई भी क्यों न होसबकी काबिलियत एक सी है और सबका बराबर सम्मान है। सब मेरे हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार कोई ऊंचा या नीचा नहीं है। पंडित जो कहते हैं वह झूठ है। उच्च और निम्न जातियों के काल्पनिक विभाजन में उलझकर हम अपने राह से भटक गए हैं। यह विभ्रम दूर किया जाना चाहिए।”

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ये शब्द हैं हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के प्रोजेक्ट में जुटे आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत के। वे संत रैदास से जुड़े आयोजन के अवसर पर बोल रहे थे। आरएसएसभाजपा के अलावा अनेक संस्थाओं का पितृ संगठन है और ये सभी उसके लक्ष्य की प्राप्ति में उसकी मदद कर रहे हैं।

दलित नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने उचित मौका देखकर तुलदीसाद की रामचरितमानस के पुनःरीक्षण की अपनी मांग को दुहराया। रामचरितमानस में दलितों और महिलाओं के प्रति अपमानजनक बातें हैं। इसके ठीक विपरीत दकियानूसी शंकराचार्यों और अन्यों ने कहा कि जाति ईश्वर ने बनाई है और भागवत को इसका दोष ब्राम्हणों के सिर पर नहीं मढ़ना चाहिए। अपनी चमड़ी बचाने के लिए भागवत ने स्पष्टीकरण दिया कि पंडितों से उनका आशय विद्वानों से था ब्राम्हणों से नहीं। 

निःसंदेह दलितों को आकर्षित करने का हिन्दू राष्ट्रवादियों का यह सबसे ताजा प्रयास है। आरएसएस की मुश्किल यह है कि एक ओर वह पूर्व-आधुनिक जातिगत और लैंगिक रिश्ते बनाए रखना चाहता है तो दूसरी ओर उसे अपने एजेंडा को लागू करने के लिए इन वर्गों को अपने साथ जोड़ना जरूरी है।

जाति के संबंध में आरएसएस की सोच बदलती रही है। आरएसएस की स्थापना के पीछे एक कारण था दबे-कुचले तबकों का जमींदार-ब्राम्हण गठजोड़ के बंधन तोड़ने का संघर्ष। गैर-ब्राम्हण आंदोलन’] जिसका लक्ष्य जमींदार-ब्राम्हण गठजोड़ का विरोध करना थाकी प्रतिक्रिया में ही कुछ कुलीनों ने मिलकर इस संस्था का गठन किया था।  

जाति के बारे में आरएसएस का नजरिया सबसे पहले उसके द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने मनुस्मृति’ का महिमामंडन करते हुए कहा कि भारत का अतीत स्वर्णिम था क्योंकि उस समय इस पुस्तक में निर्धारित नियमों का पालन किया जाता था। अपनी पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफांइड’ में उन्होंने वर्ण-जाति प्रथा का समर्थन किया। उनके अनुसार इस पवित्र ग्रंथ (मनुस्मृति) में जिस जातिप्रथा का प्रतिपादन किया गया है वह वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। संघ के अनाधिकारिक मुखपत्र द आर्गनाइजर’ में इसे इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया, ‘‘यदि एक विकसित समाज को अहसास होता है कि विद्यमान भेदभावविज्ञान सम्मत सामाजिक ढांचे के कारण हैं और विभिन्न वर्ग समाज रूपी शरीर के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो इस विभिन्नता (अर्थात जाति व्यवस्था) को विकृति नहीं माना जाना चाहिए” (आर्गनाईजर, 1 दिसंबर 1952, पृष्ठ 7)

बाद में एक अन्य प्रमुख आरएसएस विचारकदीनदयाल उपाध्यायजो जनसंघ के अध्यक्ष भी रहेने एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया। संघ परिवार से जुड़े अनेक व्यक्तियों का दावा है कि यही सिद्धांत उनकी राजनीति का पथ प्रदर्शक है। एकात्म मानववाद की अवधारणा के अनुसार ‘‘चार जातियां (वर्ण) विराट पुरूष (आदि पुरूष) के अलग-अलग अंगों की तरह हैं…ये अंग एक दूसरे के पूरक हैं और अलग-अलग होते हुए भी एक हैं। उनके हितपहचान एवं संबद्धता एक है….यदि इस विचार को जीवित नहीं रखा गया तो जातिपूरक  की बजाए संघर्ष का कारण बन सकती है। लेकिन यह एक विकृति होगी” (दीनदयाल उपाध्यायइंटीग्रल ह्युमेनिस्मनई दिल्लीभारतीय जनसंघ, 1965, पृष्ठ 43)

इसी तरह की बातों के चलते हिन्दुओं के कुछ वर्गों में संघ का राजनीतिक आधार स्थापित हुआ। इस आधार के सशक्त होने के बादआरएसएस ने यह कहना शुरू किया कि सभी जातियां एक बराबर हैं। इस सिलसिले में उसने तीन प्रमुख पुस्तकें प्रकाशित कीं।

आरएसएस के विचारकों द्वारा लिखित इन पुस्तकों में यह दावा किया गया है कि मध्यकाल में मुसलमानों के अत्याचारों के कारण अछूतों एवं नीची जातियों का उद्भव हुआ। ये तीन पुस्तकें हैं हिन्दू चर्मकार जाति’, ‘हिन्दू खटीक जाति’ एवं हिन्दू वाल्मिकी जाति’।

संघी नेताओं का दावा है कि ये जातियां विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों के कारण अस्तित्व में आईं और पूर्व में हिन्दू धर्म में जातियां नहीं थीं। एक अन्य आरएसएस नेता भैयाजी जोशी के अनुसार किसी भी हिन्दू धर्मग्रंथ में शूद्रों को अछूत नहीं बताया गया है। मध्यकाल में इस्लामिक अत्याचारों’ के कारण अछूत और दलित अस्तित्व में आए। जोशी आगे कहते हैं, ‘‘चन्वरवंषीय क्षत्रिय हिन्दुओं के स्वाभिमान (गरिमा) को नष्ट करने के लिएविदेशी अरब हमलावरोंमुस्लिम शासकों और गौभक्षकों ने उन्हें गायों को मारनेउनकी खाल उतारने और उनके शवों को निर्जन स्थानों पर फेंकने जैसे निकृष्ट कार्य करने के लिए बाध्य किया। इसी प्रकार विदेशी हमलावरों ने स्वाभिमानी हिन्दू बंदियों को दण्डित करने के लिए उनसे यही काम करवाए और चर्मकर्म (चमड़ी संबंधी कार्य करने वाली) को एक जाति बना दिया।” और अबसबसे ताजा दौर है जिसमें वर्ण व्यवस्था के लिए पंडितों को दोशी ठहराया जा रहा है। 

सच यह है कि जाति प्रथा बहुत पुरानी है और अछूत व्यवस्था हमेशा से उसका हिस्सा रही है। आर्य स्वयं को श्रेष्ठ समझते थे और अनार्यों को कृष्णवर्णअनास (बिना नाक वाले) व अमनुष्य कहते थे (ऋग्वेद, 10वां मंडलश्लोक 22.9)। ऋग्वेद में ऐेसे उद्धरण हैं जिनसे यह पता चलता है कि नीची जातियों के लोगों का उच्च जातियों के मनुष्यों के नजदीक आना प्रतिबंधित था और उन्हें गांवों के बाहर रहना होता था। इसका यह आशय नहीं है कि ऋग्वेद के काल में जाति प्रथा पूर्ण विकसित हो चुकी थी परंतु यह जरूर है कि तब भी समाज चार वर्णों में बंट चुका था और यही व्यवस्था मनुस्मृति काल आते-आते तक कठोर जाति व्यवस्था में बदल गई। 

अछूत व्यवस्था लगभग पहली सदी ईस्वी में जाति व्यवस्था का अंग बनी। मनुस्मृतिजो दूसरी या तीसरी सदी में लिखी गई थीमें तत्कालीन लोक व्यवहार को संहिताबद्ध किया गया है और इससे पता चलता है कि उत्पीड़क वर्गों द्वारा पीड़ितों पर कितने घृणित प्रतिबंध और नियम लादे जाते थे। 

सच जो भी हो अपनी जड़ें मजबूत करने के बाद आरएसएस अब दलित और ओबीसी वर्गों को अपने साथ लाना चाहता है। संघ ने काफी साल पहले दलितों और ओबीसी के बीच काम करने के लिए सामाजिक समरसता मंच और आदिवासियों को अपने झंडे तले लाने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की थी। इन दोनों संस्थाओं ने पिछले कुछ दशकों में अपना विशाल नेटवर्क तैयार कर लिया है। इनके प्रयासों से समाज के कई वर्ग संघ की विचारधारा से जुड़े हैंभाजपा को चुनावों में लाभ प्राप्त हुआ है और देश में हिन्दुत्ववादियों की संख्या में वृद्धि हुई है। ये संस्थाएं ब्राम्हणवादी धार्मिकता और सेवा को बढ़ावा देती हैं।

समय के साथ वंचित वर्गों को संघ के एजेंडे की असलियत समझ में आने लगी है। इससे चुनाव जीतना थोड़ा और मुश्किल हो जाएगा। यही कारण है कि अब जाति के उद्भव के बारे में नए सिद्धांत प्रस्तुत किए जा रहे हैं। संघ जानता है कि उसके मूल समर्थक उसकी विचारधारा में इतने घुलमिल चुके हैं कि अब अगर वह कुछ वर्गों को लुभाने के लिए अलग भाषा का प्रयोग भी करेगा तब भी वे उससे दूर नहीं जाएंगे। 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनियालेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)