खबरदार! मुल्क के हालात 1857 की शिकस्त से भी बदतर हैं!

1857 में देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता और हार के बाद जो राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संकट पैदा हुआ था उसके ख़िलाफ़ संगठित तरीक़े से आवाज़ बुलंद की गयी। हालाँकि उस वक़्त भी मुल्क व मिल्लत का एक बड़ा तब्क़ा ग़लत फ़हमी का शिकार था। अंग्रेज़ो की ग़ुलामी को अपना मुक़द्दर समझ बैठा था लेकिन सर सैयद अहमद खान जैसे कुछ समझदार, ज़िम्मेदार लोग उठ खड़े हुए और एक मंसूबे के तहत तहरीक शुरू की। अपनी क़ुर्बानियां पेश कीं जिसके नतीजे में बाक़ायदा जंग ए आज़ादी की तहरीक वजूद में आयी और फिर 1947 में अंग्रेज़ों से मुल्क आज़ाद हो गया। इस पूरी तहरीक और जद व जेहद के पूरे सफ़र में उर्दू ज़बान व अदब का जो किरदार है वो किसी से भी पोशीदा नहीं है।

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उर्दू के सहाफ़ियों, अदीबों, शायरों, दानिश्वरों और उलमा-ए-कराम ने जो क़ुर्बानियां पेश की हैं वो नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश हैं। मुझे लगता है कि आज मुल्क के जो हालात हैं, मुल्क जिस बोहरान का शिकार है। मुल्क का मुसलमान जिस शिकस्त व नाकामी से दो चार है,  सियासी, समाजी, आर्थिक, भाषाई, अदबी व सक़ाफ़ती, तालीमी व तदरीसी एतबार पसमांदगी से दो चार है वो 1857 के बाद पैदा होने वाली सूरत ए हाल से कम नहीं बल्कि ज़्यादा संगीन है। उस वक़्त बाहरी लोगों से मुक़ाबला था लेकिन आज अपने लोगों से मुक़ाबला है। उन लोगों से मुक़ाबला है जो मुल्क को फिर से ग़ुलाम बनाने की साज़िशें कर रहे हैं। जो सच को झूठ और झूठ को सच कर रहे हैं। तारीख़ व तहज़ीब बदलने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा देश गंगा जमुनी तहज़ीब के लिए पूरी दुनिया में मशहूर व मक़बूल है और इस तहज़ीब को फ़रोग़ देने में उर्दू ज़बान का अहम किरदार है। 

आज़ादी के साथ साथ जब मुल्क तक़्सीम हुआ तो उसकी ज़द में मिल्लत के साथ साथ उर्दू ज़बान भी आयी। हालाँकि जो पढ़ा लिखा तब्क़ा था वो समझ रहा था कि मुल्क की तक़्सीम में न तो मुसलमानों का कोई रोल है और न उर्दू ज़बान का लेकिन मुल्क की फ़िरक़ा परस्त ताक़तें,  बतौर ख़ास आर एस एस इस बात को ख़ामोशी के साथ बहुसंख्यक तब्क़ा में फैलाती रही है कि इसके लिए उर्दू और मुसलमान दोनों ज़िम्मेदार हैं। चुनाँचे उर्दू और मुसलमान दोनों के ख़िलाफ़ नफ़रत की मुहिम चलाई गयी। यही वजह है कि जब भी मौक़ा मिला तो फ़िरक़ा परस्तों की जानिब से मुसलामानों और उर्दू ज़बान पर इल्ज़ाम आयद किया जाता था लेकिन उनके ख़िलाफ़ नाम निहाद सेक्युलर हुकूमतों ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की। मुल्क के जो बड़े अदबी मरकज़ थे वो ज़वाल पज़ीर हो गए। प्राइमरी की सतह पर बतौर लाज़मी मज़मून उर्दू पढ़ाई जा रही थी उसको ख़त्म कर दिया गया। उर्दू मीडियम स्कूलों को बंद कर दिया गया। उसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद हुयी लेकिन हुकूमत में शामिल मुस्लिम रहनुमाओं की कितनी अहमियत होती है हम सबको मालूम है चुनाँचे कोई नतीजा बरामद नहीं हुआ। 

नाम निहाद सेक्युलरिज़्म की मजबूरी समझ लीजिये या फिर कोई और नाम दे दीजिये लेकिन सच्चाई यह है कि इस कश्मकश में उर्दू ज़बान को फ़रोग़ देने के लिए कुछ पढ़े लिखे लोगों ने उर्दू अकादमियों की बुनियाद रखी। मेरी नज़र में तो यह सिर्फ आंसू पोछने वाली बात थी वरना होना तो यह चाहिए था कि प्राइमरी सतह पर उर्दू ज़बान को बहाल किया जाता। ख़ैर क़ौमी राजधानी दिल्ली समेत मुल्क के कई सूबों में उर्दू अकादमी का क़याम अमल में आया। 31 मार्च 1981 को  दिल्ली उर्दू अकादमी की बुनियाद रखी गयी। उस वक़्त मुल्क की प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी थीं। यह वो मौक़ा था जब इंदिरा गांधी को दूसरी सियासी ज़िन्दगी नसीब हुयी थी। इसके बाद उन्हें उर्दू ज़बान व अदब की फ़िक्र हुयी या यह कह लें कि मुसलमानों की याद आयी। क्यूंकि अब मुसलामानों को सुनहरी ख़्वाब दिखाने वाली कुछ मक़ामी पार्टियां वजूद में आ रही थीं। ख़ैर मैं उसकी तफ़्सील में इस वक़्त नहीं जाना चाहता, कहना यह है कि दिल्ली उर्दू अकादमी का क़याम अमल में आया और अगर देखा जाए तो इस अकादमी का सफ़र बहुत अच्छा रहा। इस अकादमी को उर्दू ज़बान को फ़रोग़ देने की लिए काम करने का मौक़ा मिला लेकिन जब से दिल्ली में केजरीवाल सरकार आयी है तब से दिल्ली उर्दू अकादमी को तबाह व बर्बाद करने के मंसूबे बनाये जा रहे हैं।

मुसलामानों के वोट बैंक पर सरकार बनाने वाली केजरीवाल सरकार को न तो मुसलामानों की फ़िक्र है और न ही उर्दू ज़बान व अदब की। इसकी मुस्लिम और उर्दू दुश्मनी तो भाजपा से भी ज़्यादा ख़तरनाक मालूम होती है। दिल्ली उर्दू अकादमी जिसमे कभी 40 से ज़्यादा लोगों का स्टाफ़ था, आज हालत यह है कि 4 से 6 मुलाज़मीन इसमें मुस्तक़िल मुलाज़िम हैं और यह बात हम सुनी सुनाई नहीं कह रहे हैं बल्कि उर्दू अकादमी जाकर, वहां के लोगों से मुलाक़ात करने के बाद कह रहे हैं। जो वाईस चेयरमैन हैं वो उर्दू से बिलकुल न वाक़िफ़ हैं। वो ठीक से उर्दू का एक जुमला भी नहीं बोल सकते। इसी तरह उपमुख्य मंत्री जो अकादमी के चेयरमैन हैं उनको भी उर्दू से कोई सरोकार नहीं। यही नहीं बल्कि जो इस वक़्त अकादमी के ऑफ़िसर हैं उन्हें भी उर्दू नहीं आती। आख़िर ऐसा क्यों है? क्या हम उर्दू के चाहने वालों की ज़िम्मेदारी नहीं है कि इसके लिए एकजुटता के साथ आवाज़ बुलंद करें। यह हक़ीक़त है की उर्दू ज़बान की लड़ाई भी सियासी लड़ाई है लेकिन सियासी लड़ाई के लिए भी तो लोग चाहिए और वो लोग चाहिए कि जो उर्दू से मुहब्बत करते हैं। ख़ैर हमारी छोटी सी कोशिश की वजह से अब दिल्ली उर्दू अकादमी की जानिब से कुछ ऐलान शुरू हुआ है जो ख़ुशी की बात है।

इसके साथ ही दिल्ली में एक और उर्दू का क़ौमी इदारा है। मेरी मुराद क़ौमी कौंसिल बराय फ़रोग़ ए उर्दू ज़बान से है। इसके मक़ासिद उर्दू अकादमियों से ज़रा ज़्यादा वसीह हैं और इसका दायरा रियासती नहीं बल्कि क़ौमी है जैसा कि नाम से भी ज़ाहिर होता है। इसका क़याम पहली अप्रैल 1995 में अमल में आया था। यह उर्दू के साथ साथ फ़ारसी और अरबी के फ़रोग़ के लिए भी पाबंद था। इस इदारे ने भी काफ़ी अच्छे काम किये और हुकूमत की तरफ़ से इसके बजट में भी ख़ातिर ख़्वाह इज़ाफ़ा किया गया। आज की तारीख़ में इस इदारे का बजट क़रीब 100 करोड़ रूपए सालाना है। इस इदारे ने मुल्क भर में अपने कंप्यूटर सेण्टर भी खोले जहाँ असात्ज़ा की तक़र्रुरी भी हुयी। उर्दू, अरबी और फ़ारसी के कोर्स शुरू किये गए। इसका फ़ायदा भी काफ़ी हुआ। मुसलमानों के साथ साथ ग़ैर मुस्लिम भाइयों ने भी उर्दू ज़बान पढ़ी। कई दस्तावेज़ी किताबे भी छापी गयीं। क़ौमी और बैनुल अक़वामी सेमिनारों का आयोजन किया गया। कुल मिलाकर यह काफ़ी अच्छा सफ़र रहा लेकिन जब से केंद्र में मोदी सरकार आयी है इस इदारे पर तलवार सी लटक गयी है। यही नहीं बल्कि जो भी अक़लियतों से ताल्लुक़ रखने वाले इदारे हैं वो भी ख़ुद को ग़ैर महफूज़ समझ रहे हैं और क्यों न समझें जबकि मुल्क का 25 करोड़ मुस्लमान ख़ुद को ग़ैर महफ़ूज़ तसव्वुर कर रहा है तो फिर इससे ताल्लुक़ रखने वाले इदारों का ग़ैर महफ़ूज़ होना फ़ितरी है।

लेकिन बात यह है कि हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? क्या हम ख़ामोश बैठ जाएंगे या फिर ख़ुद को और इदारों को बचाने के लिए कुछ करेंगे। मुझे नहीं लगता कि उर्दू के इदारों को बचाने के लिए अब तक कोई मुनज़्ज़म मुहिम चलाई गयी है। उर्दू अकादमी हो या उर्दू कौंसिल क्या इनको बहाल कराने के लिए किसी ने कोई कोशिश की ?आज दूसरी क़ौमे अपने इदारों और अपने को बचाने के लिए कोशिशें कर रही हैं लेकिन मिल्लत ए हिन्द ख़ामोश तमाशाई मालूम हो रही है। अल्लाह का शुक्र है कि हमने उर्दू कौंसिल के लिए भी आवाज़ बुलंद की और इसके डायरेक्टर प्रोफ़ेसर शेख़ अक़ील अहमद से मुलाक़ात करके अपनी शिकायात दर्ज कराई हैं लेकिन फिर वही बात है कि यह मसला किसी एक का नहीं है बल्कि इसके लिए सबको आगे आना होगा। सबको एक साथ मिलकर आवाज़ बुलंद करनी होगी। नुक़सान और फ़ायदे से ऊपर उठकर काम करना होगा क्यूंकि मौजूदा हुकूमत में मुसलमानों का कुछ भला होगा सोचना ख़्वाब ए ग़फ़लत से ज़्यादा कुछ नहीं। हम उम्मीद करते हैं कि अपने इदारों की हिफाज़त के लिए लोग सर जोड़कर बैठेंगे और मिलकर इसके लिए आवाज़ बुलंद करेंगे। याद रखिये कि यह इदारे सिर्फ़ ज़बान व अदब के नहीं बल्कि अब हमारी तहज़ीब व सक़ाफ़त और दीनयात से भी सरोकार रखते हैं।

हज़ार बर्क़ गिरे लाख़ आंधियां उठ्ठें

वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं।

(लेखक AIMIM के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष हैं, ये उनके निजी विचार हैं)