भाजपा अपने हिन्दू मुसलमान पिच पर बड़े भरोसे से खेल रही थी। मगर वह भूल गई थी कि सितारों के आगे जहां और भी हैं। बाजी रातों रात पलट सकती है। पिच अचानक मंडल कमंडल में बदल गया। मुख्यमंत्री योगी ने सांप्रदायिक विभाजन करते हुए कहा कि मुकबाला 80-20 का है। उनके मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ते हुए ऐलान किया कि मुकाबला 85-15 का है। और 15 में भी बंटवारा है। ये सीधा मंडल का उद्घोष है। इसी मंडल ने ओबीसी, दलित को पिछले तीन दशकों से सत्ता में भागीदारी दे रखी है। और अब वे जाति के गणित और बहुजन समाज की ताकत को अच्छी तरह समझ गए हैं।
राजनीति एक छोटे से समय के लिए हिन्दू मुसलमान में झूलकर वापस दो दिशाओं की तरफ जा रही है। एक तीस साल पुराना मंडल है तो दूसरा कांग्रेस का जाति, धर्म से परे सबको साथ लेकर चलने वाली पुरानी राजनीति। प्रियंका गांधी ने इसमें महिला हिस्सेदारी का नया प्रयोग किया है। और माहौल में इलका असर भी दिखाई देने लगा है। उन्नाव में बलात्कार से पीड़ित लड़की की मां को टिकट देकर प्रियंका ने एक जबर्दस्त पहल की है। सारी पार्टियां इससे दबाव में आ गई हैं। और उनसे ज्यादा मीडिया। गोदी मीडिया आंखें बंद करके कांग्रेस, सपा, बाकी दलों का विरोध कर रहा है। मगर बलात्कार पीड़िता की मां का विरोध करना उसके लिए भी कहीं न कहीं मुश्किल हो जाएगा। वैसे उसके लिए कोई नैतिक समस्या नहीं है। वह नैतिक अनैतिक के पैमानों से बहुत दूर आ चुका है। उन्नाव में भाजपा विधायक सेंगर ने पीड़िता लड़की के साथ पूरे परिवार पर अत्याचार किए। पिता की हत्या कर दी गई। चाचा को जेल भेजा गया। खुद उस गाड़ी चढ़ाई गई। चाची मारी गई। मगर मीडिया पीड़िता के परिवार के समर्थन में नहीं खड़ा हुआ। हाथरस में भी यही हुआ। मीडिया या तो खामोश रहा या अप्रत्यक्ष रूप से बलात्कारियों के पक्ष में ही माहौल बनाता रहा।
यह वही मीडिया है जिसने निर्भया के समय सरकारें बदलने का बीड़ा उठाया हुआ था। और केन्द्र और दिल्ली दोनों की सरकारें बदल भी दीं। बहुत हुआ नारी पर वार का नारा वह ऐसे लगाती थी जैसे वह बहुत बड़ी महिला समर्थक हो। मगर आज वह केवल मोदी समर्थक बन कर रह गई है। उसका इतना पतन हो गया कि वह अपने लिए ईमानदार शब्द सुनकर बिदकने लगी है।
एक एंकर से अखिलेश यादव ने कहा कि मेरी लिस्ट में आपका नाम ईमानदार पत्रकार के रूप में है। मगर एंकर तो यह सुनते ही आपा खो बैठी। पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष को उंची आवाज में बरजने लगी। अखिलेश ने बहुत संयम रखा। लेकिन चैनल और उसकी एंकर पूरी तरह एक्सपोज हो गईं। आज समय उनके साथ है तो वे चाहे जो कह सकते हैं। एंकर किंग मेकर समझती हैं। इन्होंने ही कहा था कि आदित्य ठाकरे का कुछ नहीं हो सकता। ये भी राहुल गांधी बनेगा। यह नई पत्रकारिता है। कब तक चलेगी कहना मुश्किल है। मगर जिस दिन खत्म होगी। ये खुद और इनके मालिक हाथ जोड़कर जगह जगह माफियां मांगते घूमेंगें। सरकार के लिए ऐसे पत्रकार और एंकर केवल उपयोग की चीज हैं। आज अरनब गोस्वामी और दीपक चौरसिया एक्सपोज हो गए हैं तो कोई उनका फोन भी नहीं उठाता। ये दोनों पत्रकार “ईमानदार” पत्रकार से बड़े पत्रकार रहे हैं। लेकिन आज साइड लाइन कर दिए गए हैं।
ऐसे में यूपी चुनाव में अब मीडिया के पास अपने कलंक कम करने का एक मौका है। वह बाकी 402 सीटों पर भाजपा का समर्थन करे। मगर एक उन्नाव में वह बलात्कार पीड़िता की मां आशा सिंह का विरोध न करे। कम से कम इतनी शर्म तो उसकी आंखों में होना चाहिए कि वहां वह और कुछ न कर सके तो विरोध तो न करे। नई नई झूठी झूठी कहानियां न चलाए। बलात्कारी का महिमा मंडन न करे। उसका इतना ही योगदान बहुत होगा।
इस सीट पर सपा, बसपा को भी आशा सिंह का समर्थन करके बलात्कार और बलात्कारियों के खिलाफ एक मैसेज देना चाहिए। निर्भया के मामले में तो कांग्रेस सत्ता में रहते हुए भी बलात्कार पीड़िता के पक्ष में पूरी मजबूती से खड़ी रही। उसे न्याय दिलाया। जबकि वह कोई राजनीतिक मामला नहीं था। लेकिन उस समय का पूरा विपक्ष, मीडिया कांग्रेस के पीछे पड़ा रहा। उनका उद्देश्य ही सरकार बदलना था। इसीलिए वे अन्ना हजारे को लेकर आए थे। 2014 में सरकार बदलते ही अन्ना गायब हो गए। भारत के लोगों को बेवकूफ बनाने का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। 1999 में वाजपेयी का सत्ता में आना एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा था। मगर उसके अलावा चाहे 1977 में जनता पार्टी या 1989 में जनता दल हो भाजपा ने पहले कांग्रेस के खिलाफ एक झूठा माहौल बनाया फिर खुद पीछे रहकर जेपी, वीपी का महिमामंडन करके सत्ता हासिल की। 1967 में भी लोहिया की आड़ लेकर कई राज्यों में संविद सरकारें बनाई थीं।
भारतीय राजनीति इसी तरह भावनाओं में बहती रहती है। कांग्रेस जो देश की सबसे पुरानी पार्टी है इन भावनाओं के साथ काम करने में हिचक जाती है। उसके साथ जो आजादी की लड़ाई के मूल्य जुड़े हुए हैं। उनकी वजह से वह अपने भाइचारे, प्रगतिशीलता, अंधविश्वास विरोधी, गरीब समर्थक, धर्म, जाति से परे की राजनीति में ही रास्ते खोजती है। कई बार सफलता मिलती है। कई बार नहीं भी मिलती। लेकिन देश के लोगों को एक विश्वास होता है कि कोई है जो भारत के मूल विचार समन्वय, शांति के लिए काम करता है।
साम्प्रदायिक राजनीति की अपनी सीमाएं हैं। उत्तर प्रदेश इस बार यही देख रहा है। अचानक बाजी किस तरह साप्रदायिक हाथों से फिसली यह किसी की समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन इसमें कोई बड़ा छुपा रहस्य नहीं है। यह सिम्पल बात है। जनता की ताकत। उसका अपना हित अनहित का जानना। गांव में कहते हैं कि रोटी तो हम भी खाते हैं। इसका मतलब होता है कि सोच समझ सकते हैं। यह सवाल तो गांव से लेकर शहर तक हर जगह है कि अगर हिन्दू मुसलमान ही हर समस्या का इलाज है तो चीन डर कर क्यों नहीं भाग रहा? वह अरुणाचल में नाम बदल रहा है। लद्दाख में हमारे इलाके वाली पेंगांग लेक पर पुल बना रहा है। घुसपैठ का क्षेत्र बढ़ा रहा है। वह क्यों नहीं डर रहा?
चीन छोड़िए ये आवारा पशु नहीं डर रहे। खेत के खेत साफ करे जा रहे हैं। ऐसी सर्दी में किसान रात रात भर पहरा देता है। मगर प्रेमचंद की पूस की रात की तरह सुबह देखता है कि जानवर खेत चर गए। मंहगाई, बेरोजगारी, खाद की कमी, कोरोना की तीसरी लहर में फिर सरकारी चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, महिला सुरक्षा किसी पर भी तो हिन्दू मुसलमान राजनीति का असर नहीं हो रहा। सिर्फ मुसलमान परेशान नहीं हो रहा। हिन्दू भी उतना ही परेशान है।
तो जनता को और खासतौर पर गरीब, पिछड़ी, दलित जनता को यह समझ में आया। और जब जनता की समझ में आया तो उनके वोट से विधायक और मंत्री बने नेताओं की समझ में फौरन आ गया कि अब हिन्दू मुसलमान राजनीति नहीं चलेगी। और उनके भाजपा छोड़ने का सिलसिला इतना तेज है कि अखिलेश को कहना पड़ा कि बस अब और नहीं। अब भाजपा से आए किसी और व्यक्ति को शामिल नहीं करेंगे।
अखिलेश में गजब का आत्मविश्वास आया है। यह दरअसल सफलता दिखने से पैदा हुआ है। वे कह रहे हैं कि जनता से पहले भाजपा ने योगी को गोरखपुर रवाना कर दिया। मुख्यमंत्री योगी को मथुरा, अयोध्या, प्रयागराज किसी भी प्रसिद्ध धार्मिक स्थल से टिकट न देकर मोदी और अमित शाह ने उन्हें भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों के बराबर खड़ा कर दिया। योगी के समर्थक उन्हें मोदी का विकल्प बताने लगे थे। मोदी वाराणसी से लड़ते हैं। अगर योगी भी कहीं ऐसी जगह से लड़ जाते तो वे मोदी के बराबर आ जाते। भाजपा ने इसे नहीं होने दिया। इस बात का सबसे ज्यादा मजा अब अखिलेश ले रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्वलेषक हैं)