नूपुर शर्मा के बयान पर अक्सर बीजेपी आरएसएस के मित्र यह सवाल भी पूछते हैं कि नूपुर ने क्या गलत कहा, उसने तो वही कहा जो हदीस में लिखा है। लेकिन वे यह सवाल सबसे पूछते हैं पर न तो अपने संगठन से पूछते हैं, न अपनी पार्टी से और न ही अपने नेता से जिसे वे देवाधिदेव मान कर चलते हैं। मैं उनसे कहता हूं, यही सवाल अपने दल के नेता और सरकार से क्यों नहीं आप पूछते हैं? लेकिन सरकार से पूछने का साहस तो वे को चुके हैं। अब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का ताजा बयान देखिए, वे फरमाते हैं, नरेंद्र मोदी, देवताओं के भी देवता हैं! अब भला देवाधिदेव, यानी देवताओं के देवता से भी उनका भक्त, कोई सवाल पूछने का साहस कर सकता है?
सरकार ने तो नूपुर को फ्रिंज एलिमेंट्स कह दिया और पार्टी ने सस्पेंड। अगर नूपुर ने कुछ गलत नहीं कहा था तो, सरकार ने, उसे फ्रिंज एलीमेंट क्यों कहा गया और पार्टी ने निलंबित भी किया। और यदि नूपुर ने कुछ ऐसा किया या कहा है तो, क्यों नहीं उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा रही है? भ्रम की ऐसी स्थिति बीजेपी और आरएसएस के लिए नई नहीं है। विचार धुंधता का इतना इतिहास उतना ही पुराना है, जितना इनका अस्तित्व।
दरअसल, अपनी पार्टी और नेता का हर मुद्दे पर बचाव करते करते जो दासत्व बीजेपी के मित्रों के मन में विकसित हो गया है, उसके कारण, उनके मन में, अपने नेता ओर पार्टी से कुछ भी सवाल पूछने का साहस अब नहीं बचा। फासिस्ट मनोवृति ऐसी ही परिस्थितियों में पनपने लगती है। लोकतंत्र का मतलब केवल मतों से चुनी हुई सरकार ही नहीं होता है, बल्कि सरकार से हर मसले पर, आंख से आंख मिलाकर पूछताछ करने की हिम्मत ही लोकतंत्र का मूल है। सरकार को बराबर यह एहसास दिलाएं रखना जरूरी है कि, सरकार कितनी भी ताकतवर हो, जनता, सरकार से अधिक ताकतवर है।
इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब लोकतंत्र के नाम पर चुने गए नेताओं ने खुद को, जब धीरे धीरे, सत्ता की सारी शक्तियां अपने पास केंद्रित कर लीं तो उन्होंने खुद को ही सम्राट घोषित कर दिया। यह अलग बात है कि जब जनता जागी और परिस्थितियां बदलीं तो, ऐसे महाबली भूलुंठित भी हुए। आधुनिक काल में इस मनोवृत्ति के दो उपयुक्त उदाहरण, इटली के मुसोलिनी और जर्मनी के हिटलर का है। दोनों ही प्रखर राष्ट्रवाद और अपनी अस्मिता के प्रश्न पर सत्ता में जनता से चुन कर आए थे। दोनों ही बेहद लोकप्रिय भी थे। शुरुआती समय में जो सब्जबाग दिखाया उससे उनकी लोकप्रियता शिखर छूने लगी।
इन शासकों ने, जनता को उनकी अस्मिता, गर्वानुभूति और भावुकता के मुद्दे पर ही बझाये रखा। प्रतिशोध, घृणा, जातीय और नस्लीय अस्मिता के नशे में जनमानस ऊभ चूभ करने लगा। जब, जनता की माली हालत बिगड़ने लगी तो हिटलर ने, अपना निकम्मापन छुपाने के लिए यहूदियों को प्रताड़ित करना शुरू किया। इस कारण यहूदियों का नरसंहार हुआ, साथ ही जब द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, दोनो ही देश बुरी तरह पराजित हो गए। लोकप्रियता का सारा मुलम्मा उतर गया। जनता जब नशे से बाहर आई, तब तक वह बरबाद हो चुकी थी। मुसोलिनी को जनता ने लैंप पोस्ट पर लटका दिया और हिटलर ने खुद को गोली मार ली।
सरकार चुन कर यह मान लेना कि अब जनता की कोई भूमिका नहीं है यह लोकतंत्र की मूल भावना के ही खिलाफ है। सरकार एक तंत्र है जो सुचारू रूप से तभी चल सकता है, जब उस पर निरंतर नजर रखी जाय, उसे ईश्वरीय सत्ता बिलकुल न माना जाय, और जनता के मन में यह भाव हो कि, सरकार उनके ही दम से है। कोई भी सत्ता चाहे वह कितने भी प्रगतिशील मुद्दो पर चुन कर आई हो, वह स्वभावतः प्रतिगामी होती है। सत्ता की तासीर ही ऐसी होती है। सत्ता घोड़े की तरह और जनता, सवार की तरह, होती है और घोड़ा सवार पहचानता है। यदि सवार सतर्क और घोड़ा हांकना जानता है तो, घोड़ा सवार के इशारे से चलता है अन्यथा सवार को ही पटक देता है। जो मित्र घुड़सवारी जानते होगें वे मेरी बात से सहमत होंगे।
फासिस्ट सत्ता को, राजतंत्र के राजा की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। राजतंत्र एक स्थापित शासन पद्धति रही है। राजा को जन स्वीकार्यता दिलाने के लिए उसमें ईश्वर का अंश देखा जाता था। वह जनता द्वारा चुन कर नहीं, बल्कि वंशानुगत या वीर भोग्या वसुधरा की नीति से सत्ता में आता था। पर फासिस्ट सत्ता, लोकतंत्र के माध्यम से चुन कर आती है और जो चुना गया है उसे हटाया भी जा सकता है, यही मूल भय फासिस्ट सत्ता को सदैव डरा कर रखता है। दुनिया का हर फासिस्ट कितना भी खुद को ताकतवर समझे, वह अंदर से बेहद डरा हुआ और एकाकी होता है। यह डर ही उसे आक्रामक बनाए रखता है। यह आक्रामकता उसके प्रचार में भी दिखती है और गोयबेल का उदाहरण इसका सबसे उत्तम प्रमाण है।
इसलिए सरकार पर नजर रखनी चाहिए क्योंकि सरकार किसी को अवतार बनाने के लिए नहीं, जनता और देश के हित के लिए चुनी गई है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि, सरकार समर्थक मित्र, महंगाई, बेरोजगारी, रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं से परेशान नहीं हैं। वे भी उसी समाज और आर्थिकी में जी रहे हैं जिनमे हम सब जी रहे हैं। पर वे तो अपनी व्यथा कह भी नहीं पा रहे हैं। ऐसी स्थिति बेहद कष्टप्रद होती है। जनता का जितना दायित्व एक बेहतर सरकार चुनने का है उससे अधिक दायित्व, उसका यह भी है कि, उसके द्वारा चुनी गई सरकार, देश के संविधान के अनुसार चले और लोककल्याण के मार्ग से विचलित न हो, इसके लिए निरंतर सजग रहे। एक सजग और समृद्ध लोकतंत्र में न तो अवतारवाद के लिए कोई स्थान होता है और न ही विकल्पहीनता जैसे कोई स्थिति। लोकतंत्र में, अवतारवाद और विकल्प हीनता का भाव, फासिज्म का पहला चरण होता है।