शकील अख्तर
नवजोत सिंह सिद्धु को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाते ही कांग्रेस में परिवर्तन का नया दौर शुरू हो गया। कांग्रेस हाई कमान ने दो स्पष्ट संदेश दिए हैं। एक, राज्यों के क्षत्रप अपने आपको मालिक न समझें दूसरे राज्यों में फ्यूचर लीडरशीप ( भविष्य का नेतृत्व) विकसीत करने का काम शुरू हो गया है।
पंजाब में सिद्धु को बनाना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही मुख्यमंत्री अमरिन्द्र सिंह को उनकी सही जगह दिखाना भी। पंजाब और राजस्थान दोनों जगह मुख्यमंत्री अपने आपको पार्टी समझने का मुगालता पालने लगे थे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की शराफत को वे उनकी कमजोरी समझ रहे थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोनिया धीमे फैसला लेती हैं। मगर ये समझना की वे फैसला ले ही नहीं सकतीं कुछ नेताओं को अब भारी पड़ने वाला है।
पंजाब के बाद राजस्थान का नंबर आ सकता है राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को बहुत फायदा पहुंचाया। बगावत से लड़ने के नाम पर उन्होंने कार्यकर्ताओं के गुस्से और मांगों को दबा दिया। मगर कार्यकर्ताओं में फिर से बैचेनी शुरू हो गई है। सरकार का आधा समय निकल गया। लेकिन अभी तक बोर्ड और कारपोरेशनों में नियुक्तियां नहीं हुई हैं। इनकी संख्या 70 है। ये राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष से लेकर सदस्यों तक इसमें पार्टी के तमाम बडे नेताओं के साथ सक्रिय कायकर्ताओं को भी काम मिलता है।
गहलोत के पिछले कार्यकाल में भी चार साल तक यह नियुक्तियां नहीं हुईं थी। आश्चर्य यह है कि हाईकमान बार बार गहलोत से इन नियुक्तियों के लिए कह रहा है। मगर मुख्यमंत्री पिछली बार 2008 से 2013 तक की तरह इस बार भी मामले को टाल रहे हैं। इसका पूरा फायदा अफसरशाही को मिलता है। राजस्थान में कांग्रेसियों की यह मुख्य शिकायत है कि सरकार अफसर चला रहे हैं। गहलोत का यह तीसरा कार्यकाल है और हर बार कार्यकर्ता यही कहते हैं कि मेहनत हम करते हैं मगर सरकार अफसर चलाते हैं। नतीजा हर बार गहलोत सरकार गंवा देते हैं। एक बार भी दोबारा सरकार वापस नहीं ला पाए।
राजस्थान में मामला बहुत गंभीर है। दिल्ली में अक्सर यह समझा जाता है कि समस्या गहलोत बनाम सचिन पायलट की है। मगर असली समस्या कार्यकर्ताओं की अनदेखी की है। हालांकि यह कांग्रेस की पुरानी समस्या है। मगर अब जब से केन्द्र में मोदी सरकार आई है और उसने अपने हर कार्यकर्ता को एडजस्ट किया है तबसे कांग्रेस में बैचेनी ज्यादा बढ़ गई है। केन्द्र में ही नहीं राज्यों में भी भाजपा ने संघ के कार्यकर्ताओं को काम पर लगाया है। मध्य प्रदेश में भी जब कमलनाथ की सरकार थी तो वहां भी निगम मंडलों में नियुक्तियां नहीं हुई थीं। जब सरकार जाने लगी तब कुछ जगह भरी गईं। मगर वे चार दिन भी काम नहीं कर पाए। शिवराज ने आते ही संघ परिवार को लोगों को नियुक्त कर दिया।
भाजपा के मुकाबले कांग्रेस के मुख्यमंत्री सत्ता को अपने हाथों में ज्यादा रखते हैं। राजस्थान में अभी मंत्रिमंडल में भी 9 स्थान रिक्त पड़े हैं। मुख्यमंत्री 35 विभाग देख रहे हैं। विधायकों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। सबकि चिन्ता 2023 में होने वाले चुनाव हैं। जिसके लिए सबसे ज्यादा यह बात कही जा रही है कि हर बार यही स्थितियां रहती हैं और सरकार कभी वापसी नहीं कर पाती है। अफसरशाही से नाराज जनता तख्ता पलट देती है।
हाईकमान के सामने राजस्थान बड़ा जटिल संकट है। सचिन की बगावत से उनकी विश्वसनीयता कम हुई है। इसका फायदा गहलोत उठाते हैं। मगर सिर्फ इसी एक वजह से हाईकमान गहलोत को पूरी छूट देने के मूड में अब नहीं लगता। गहलोत जब 1998 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब बड़े जाट नेता परसराम मदेरणा
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। दावा उनका था। मगर हाई कमान ने गहलोत को बनाया। और उसके बाद से गहलोत राजस्थान के एकमात्र नेता बन गए। कांग्रेस को चिंता वहां नेतृत्व की दूसरी और तीसरी लाइन विकसित करने की है। राजस्थान में कांग्रेस के बड़े बड़े नेता हुए हैं। हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर, मदेरणा, सीपी जोशी, जयनारायण व्यास, मोहनलाल सुखाड़िया, नवलकिशोर
शर्मा, नटवर सिंह, राजेश पायलट, जगन्नाथ पहाड़िया, बरकत उल्लाह खान एक लंबी लिस्ट है। मगर आज वहां कांग्रेस को नेतृत्व के नाम पर शून्य नजर आ रहा है। हालांकि हालत भाजपा में भी ऐसी ही है। वसुन्धरा राजे के अलावा भाजपा को वहां कोई दूसरा नेता खड़ा करना मुश्किल नजर आ रहा है। मगर भाजपा का एडवान्टेज यह है कि उनके पास नरेन्द्र मोदी जैसा शक्तिशाली नेता है। अगर राजस्थान में भाजपा को बहुमत मिला तो मोदी हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड की तरह किसी भी नेता को मुख्यमंत्री बना सकते हैं। ऐसा इन्दिरा गांधी के समय कांग्रेस ने भी किया था। बरकत उल्लाह खान को मुख्यमंत्री बना दिया था।
मगर पिछले दो दशक से ज्यादा समय से कांग्रेस में एक विचित्र समस्या पैदा हो गई है। मेहनत सोनिया गांधी ने की। गांव गांव घूमीं। 2004 में वाजपेयी जैसे बड़े नेता की सरकार पलट कर कांग्रेसियों के हाथ में सत्ता सौंप दी। लेकिन सत्ता मिलते ही कांग्रेसी जनता और कार्यकर्ताओं को भूलने लगे। यह हाल सोनिया के 1998 में पार्टी अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरू हो गया था। सोनिया ने सबसे पहले शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश से दिल्ली लाकर स्थापित किया। मदनलाल खुराना की सरकार थी और आलू प्याज की महंगाई में चली गई। उस समय दिल्ली कांग्रेस के बड़े बड़े दिग्गज थे। जगप्रवेश चन्द्र, हरिकिशन लाल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर। लेकिन सोनिया ने शीला को मुख्यमंत्री बनाया। और शीला ने मुख्यमंत्री बनते ही सारे बड़े नेताओं की जड़ें काटना शुरू कीं। नतीजा 1999 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन सिंह सहित कांग्रेस के सातों उम्मीदवार हार गए। तब से दिल्ली में कांग्रेस का नेतृत्वविहिन होने का सिलसिला शुरू हो गया। आज दिल्ली में केजरीवाल इसी का फायदा उठा रहे हैं कि न यहां कांग्रेस के पास कोई नेता है न भाजपा के पास।
भाजपा को तो देश में नरेन्द्र मोदी के रूप में एक विकल्प मिल गया। मगर कांग्रेस अभी भी इन्दिरा गांधी जैसे मजबूत नेतृत्व के इंतजार में है। राहुल ने अभी संघियों चले जाओ कहकर थोड़ी हिम्मत दिखाने की कोशिश की है। मगर कांग्रेस के दुनिया जहान देखे नेताओं के लिए इतनी सी झिड़की नाकाफी है। वे खुद से कहीं नहीं जाने वाले। राहुल को खुद ज्यादा हिम्मत दिखाते हुए उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा। इस तरह कहने से किसी पर कोई असर नहीं होगा।
हां, अगर पंजाब के मैसेज को राहुल दूसरे राज्यों में तेजी से लागू करते दिखे तो पार्टी में रेनसा (नव जागरण, पुनर्निर्माण) की स्थिति बन सकती है। पिछले 22- 23 साल के सोनिया काल में संदेश यह गया कि पार्टी में एक बार जम जाओ फिर कोई नहीं हिलाएगा। असम में तरुण गगोई ने यही किया। शीला की तरह उन्होंने भी 15 साल राज किया। लेकिन पार्टी का भट्टा बैठा दिया। हरियाणा में भुपेन्द्र सिंह हुड्डा दस साल रहे। वहां कांग्रेस के एक से एक दिग्गज नेताओं की पांत हमेशा रही। बंसीलाल, भजनलाल, चौधरी वीरेन्द्र सिंह। जो देवीलाल जैसे बड़े विपक्षी नेता को हमेशा चैलेंज देते रहे मगर आज खट्टर को चुनौति देने वाला कोई नहीं है। ऐसे ही महाराष्ट्र से नेतृत्व खत्म हुआ। ये वे राज्य हैं जहां पांच सात साल पहले तक कांग्रेस का राज था।
अब सबसे अहम सवाल! क्या कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में नई पीढ़ी के आए बिना राज्यों में नया नेतृत्व विकसित करने की यह पहल सफल साबित हो सकती है? क्या राहुल अध्यक्ष बनेंगे? अगर हां तो जल्दी ही कांग्रेस में उनकी सोच के मुताबिक दूसरी और तीसरी पीढ़ी का नेतृत्व विकसित होना शुरू हो जाएगा। और अगर वे फिर हिचके तो पंजाब का यह प्रयोग अर्थहीन होगा। नई पीढ़ी निराश होगी एवं क्षत्रपों की खुद मुख्तारी और बढ़ जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)