दीपक असीम
विनोद दुआ जैसे पत्रकार का निधन पत्रकारिता जगत के लिए बड़ा नुकसान है। वे उन पत्रकारों में से थे जो सत्ता की आंखों में आंख डाल कर तीखे से तीखा सवाल पूछ सकते थे। उन्होंने ऐसा किया भी। एनडीटीवी की शुरुआती साख जमाने में विनोद दुआ का बड़ा योगदान रहा। वे इस अर्थ में टीवी साहित्यकार थे, कि अपने कार्यक्रमों में मौजूदा सत्ता पर व्यंग्य भी किया करते थे, मखौल भी उड़ाया करते थे। मगर वो मोदी युग से पहले का ज़माना था। सत्ता से सवाल पूछने वाले पत्रकार को ट्रोल नहीं किया जाता था, देशद्रोही नहीं कहा जाता था पुरस्कृत किया जाता था। उन्हें पद्मश्री मिला। बाद में उन पर मी टू अभियान के तहत एक महिला पत्रकार ने यौन उत्पीड़न का आरोप भी लगाया। एनडीटीवी से सम्बन्ध खत्म होने के बाद वे यू ट्यूब पर अपना शो चलाने लगे। भाजपा सरकार के खिलाफ टिप्पणी करने पर उनके खिलाफ देशद्रोह तक का मुकदमा चला, जो खोखला साबित हुआ मगर इसने टूटे हुए विनोद दुआ को और तोड़ दिया।
खान पान पर भारत का सबसे पहला और सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम ज़ायका इंडिया का उन्होंने शुरू किया। इसके बाद तो जैसे इस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ ही आ गई। मगर उनके कार्यक्रम का उद्देश्य रेसिपी बताना नहीं, भारतीय खाद्य परम्पराओं और सँस्कृति के प्रति सम्मान पैदा करना था। उनके कार्यक्रम से देश की सांस्कृतिक एकता मजबूत हुई। ये तब की बात है जब फ़ूड चैनल नही हुआ करते थे। बेशक वे वक्त से बहुत आगे थे। टीवी पत्रकारिता को उन्होंने समृद्ध किया। तेवर दिए, संस्कार दिए। आज रवीश कुमार जिस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं, उसकी बुनियाद विनोद दुआ ने तैयार की।
विनोद दुआ को कुछ समय पहले कोरोना हुआ था। उनकी पत्नी का निधन भी दूसरी कोरोना लहर में ही हुआ। असल मे कोरोना दोनों को ही एक साथ हुआ था, मगर उनकी पत्नी पहले चली गई और वे कभी ठीक से स्वस्थ नहीं हो पाए। घर पर भी उनका स्वास्थ्य गड़बड़ रहता था। अंतिम समय तक वे फेसबुक पर सक्रिय रहे। अपनी सेहत के बारे में बताते रहते थे। वे बड़े थे, पर बड़ा होने का घमंड उनमें नहीं था। फेसबुक पर जो अच्छा लिखता था उसे सराहते थे और फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेजते थे। रिक्वेस्ट कबूल होने पर शुक्रिया भी अदा करते थे।
विनोद दुआ की वो मुस्कान हम कभी नहीं भुला सकते, जिसमें तीखा व्यंग्य भी होता था। उनकी आंखें तो मानो जादू ही करती थीं। उनकी व्यंग्यात्मक शैली का उदाहरण यह है कि उनके खान पान के प्रोग्राम की टैग लाइन थी – हम खाते हैं, देश के लिए। क्या यह हमारे भ्रष्ट नेताओं और सरकारी घूसखोर बिरादरी पर करारा व्यंग्य नहीं है? विनोद दुआ ऐसे ही थे। दुआ कीजिए कि दुआ की परंपरा कायम रहे।