भारत की जनता को हिंसा और तबाही के दलदल में धकेला जा रहा है

मध्य प्रदेश तेजी से लिंच मॉब का सैरगाह बन रहा है. इस प्रदेश में हर दिन हैवानियत का नंगा नाच हो रहा है. पहले एक चूड़ी बेचने वाला, फिर एक फेरीवाला, अब एक आदिवासी.

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नीमच में एक आदिवासी युवक को चोर होने के शक में पीटा गया. फिर उसे पिकअप में बांधकर सड़क पर घसीटा गया. उसकी मौत हो गई. अगर किसी व्यक्ति ने चोरी की है तो क्या उसे ऐसी बर्बरतापूर्ण मौत दी जाएगी? भारत के संविधान ने ये कब तय कर दिया कि हर दोषी को सजा भीड़ देगी? चूड़ीवाले की लिंचिंग हुई तो बड़े बड़े नेता उस गरीब के बचाव में नहीं आए. वे भीड़ का बचाव कर रहे थे.

 

 

लिंच मॉब का बचाव करने वाले मंत्रियों और नेताओं से पूछना चाहिए कि उन पर दर्जनों मुकदमें होते हैं. क्या वे खुद को भीड़ के हवाले किया जाना पसंद करेंगे? अपने लिए वे इसे अभद्रता मानेंगे? तो भारत की जनता को भीड़ में क्यों बदला जा रहा है? कानून और संविधान को भीड़तंत्र की भेंट क्यों चढ़ाया जा रहा है? ये लोग भारतीय लोकतंत्र से किस बात की दुश्मनी निकाल रहे हैं?

भीड़ को एक बार यकीन दिलाने की जरूरत होती है कि तुम्हारा वहशीपन ही तुम्हारे लिए वरदान है, कि तुम्हारा दंगाई होना पुरस्कार पाने की गारंटी है, कि नफरत का कारोबार ही तुम्हारी तरक्की की राह खोल देगा. किसी समाज को एक बार भीड़तंत्र के हवाले ​कर दिया जाए, उसके बाद वह भीड़ ​अनियंत्रित हो जाती है. फिर कोई माई का लाल उसे रोक नहीं पाता.

 


वहशी भीड़ के मुंह में खून लग चुका है. चूड़ीवाल मुसलमान था तो कन्हैया लाल भील आदिवासी है. भीड़तंत्र हिंदू मुसलमान नहीं पहचानता. तालिबान हवा में नहीं पैदा होते. ऐसे ​ही गढ़े जाते हैं. भारत की जनता को हिंसा और तबाही के दलदल में धकेला जा रहा है. भीड़ को इतनी हिम्मत मिल गई है कि वह जिसके साथ जो चाहे, वह कर सकती है.