मुकेश असीम
अफगानिस्तान का मौजूदा घटनाक्रम अमरीकी साम्राज्यवाद प्रायोजित और सालों से कतर म़े अमरीकी नुमाइंदों और तालिबान के बीच जारी सौदेबाजी का नतीजा प्रतीत होता है। संभवतः यह अमरीका द्वारा चीन की घेराबंदी की योजना का एक अहम हिस्सा है। अफगानिस्तान की सीमा पर ही चीन के तुर्क आबादी वाले क्षेत्र हैं। साथ ही वहीं तुर्क आबादी वाले भूतपूर्व सोवियत देश भी स्थित हैं। पिछले कई महीने से शिनजियांग में मुस्लिम आबादी पर जुल्म को लेकर चीन के विरुद्ध एक जबरदस्त प्रचार अभियान जारी है। उसी के अगले चरण बतौर अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को सौंपी गई है।
घटनाक्रम देखिए तो लडाई लगभग नहीं के बराबर हुई है और अमरीका प्रशिक्षित पूरा अफगान फौजी, पुलिस व इंटेलीजेंस सुरक्षा तंत्र मय समस्त आधुनिक हथियारों व साजो-सामान लगभग बिना लडे तालिबान के हाथ में आ गया है। सख्त मुकाबले के सारे बयानों को झुठलाते हुए अशरफ गनी ने काबुल में तालिबान का स्वागत किया है। अमरीकी फौज अपनी हजारों हमवी बख्तरबंद गाडियों, ड्रोन, बडे हथियारों को न अपने साथ ले गई है, न ही उन्हें नष्ट कर गई है। ये सब बिल्कुल चाक-चौबंद पार्क की गई स्थिति में तालिबान को मिले हैं। यह सहमति से प्रायोजित सत्ता हस्तांतरण है।
चूंकि अशरफ गनी ने गले लगाकर स्वागत किया है और काबुल पर कब्जे के लिए लडाई नहीं हुई अतः अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों की वह घोषित ‘जनतांत्रिक’ शर्त भी पूरी हो गई है कि जबर्दस्ती कब्जा करने पर वे तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं देंगे। भारत की मोदी सरकार और तालिबान के बीच भी कटुता के बजाय आपसी वार्ता व समझदारी के संबंधों की दबी-छिपी बातें बाहर निकल ही आ रही हैं।
संभाव्य यही है कि मध्य एशियाई तुर्क आबादी वाले क्षेत्रों को तनाव और युद्ध का अगला अखाड़ा बनाने का पूरा प्रयास होगा जिसमें चीन को उलझाया जा सके। चीन के खिलाफ अमरीका प्रत्यक्ष युद्ध के बजाय इसी छद्म युद्ध की नीति पर आगे बढेगा। चीन रूस भी इस स्थिति को समझ रहे हैं। अतः वही दोनों इससे निपटने के लिए तालिबान के साथ वार्ताओं में सबसे अधिक सक्रिय हैं ताकि उसके साथ इससे विपरीत अपने हित वाले किसी प्रति समझौते पर पहुंच सकें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)