यदि राजनीतिक सफलताओं के लिए भी नॉबेल पुरस्कार दिये जाने का प्रावधान होता तो भारत के गृहमंत्री अमित शाह को निश्चित तौर पर नॉबेल पुरस्कार मिल जाता। चुनावी प्रचार और मैनेजमेंट की खूबियों वाली भाजपा ने जब हर तरफ जीत के झंडे फहराना शुरू किये थे तब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह थे। दो बार केंद्र में और तमाम सूबों में भाजपा की सरकार बनने में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का बड़ा श्रेय रहा था। इसके बाद देश के गृह मंत्री पद की जिम्मेदारी बखूबी निभाने के बाद वो पार्टी की जिम्मेदारी को भी उतनी ही जिम्मेदारी से निभा रहे हैं जितनी तत्परता और कर्मठता से वो बतौर अध्यक्ष पसीना बहाते थे। अमित शाह का जज्बा, रणनीति, प्रबंधन, मेहनत, इच्छा शक्ति, समर्पण, काम का तरीका और अंदाज चुनाव जीतने की गाइड बुक बन गया है। वो पॉलिटिकल साइंस का एक जीवंत सैमेस्टर बन गये हैं। राजनीति या चुनावी सफलता पाने के लिए आगे की पीढ़ी अमित शाह के काम के तौर- तरीकों को सेलेब्स मान कर ज़रूर पढ़ेगी। वर्तमान से भविष्य तक सियासत से जुड़ी हस्तियां और राजनीतिक दल इस चुनावी “प्रचार मैन” से बहुत कुछ सीखेंगे। लेकिन ये आसान ना होगा।
विरोधी हों या भाजपाई ही क्यों ना हों, अमित शाह के नक्शेकदम पर चलने का प्रयास करने के लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिए होगा। ऐसा जिगरा ना कांग्रेस के राहुल गांधी मे है और ना किसी क्षेत्रीय दल के बड़े नेता में ऐसी खूबियां हैं। आम तौर से दलों के बड़े नेताओं की ये सोच होती है कि ये छोटे चुनाव हैं और मैं बड़ा नेता हूं इसलिए छोटे चुनाव में प्रचार करने से मेरा क़द कम होगा। इसी तरह कई बड़े नेता ऐसे चुनावों में प्रचार नहीं करते हैं जिसमें उनकी पार्टी के हारने की संभावना होती है। बिहार विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदुत्व एवं विकास का चेहरा योगी आदित्यनाथ सहित तमाम भाजपा के बड़े नेता प्रचार मे जुटे थे। पर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रचार नहीं किया, क्योंकि उन्हें डर था कि बिहार में कांग्रेस चुनाव हार गई तो बतौर नेता उनकी ब्रांड वैल्यू धूमिल होगी।
इसी तरह यूपी में विधानसभा के उपचुनाव थे। सत्तारूढ़ भाजपा ने यहां अपनी ताकत झोंक दी। मुख्यमंत्री योगी से लेकर बड़े-बड़े दिग्गज भाजपा नेताओं ने खूब प्रचार किया। मेहनत की पसीना बहाया और सफलता हासिल की। लेकिन भाजपा से सीधा मुकाबला करने वाली समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उप चुनाव में एक भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया और वो हार गए। आखिलेश यादव द्वारा उप चुनाव के प्रचार में शामिल ना होने का कारण समाजवादियों ने ये माना कि वो बड़े नेता हैं और उप चुनाव छोटा चुनाव है। इसलिए छोटे सपा के सेकेन्ड लाइन के नेता ही उप चुनाव का प्रचार करने के लिए काफी थे।
गैर भाजपाई दलों के ऐसे नेताओं को शायद तब सबक हुआ होगा जब नरेंद्र मोदी के बाद देश के सबसे बड़े और सफल नेता अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे दिग्गजों ने हैदराबाद स्थानीय निकाय के चुनाव में खूब पसीना बहाया। और जबरदस्त सफलता हासिल की। सियासत के इस शाह ने अब पश्चिमबंगाल में जमीनी संघर्ष करके मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के माथे पर पसीना ला दिया है। गृह मंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति की तमाम खूबियां हूं- वो वहां अधिक मेहनत करते हैं जहां उनकी पार्टी सबसे ज्यादा कमजोर होती है। एक चुनाव की सफलता के बाद बैठकर चैन की बंसी या जश्न नहीं मनाते। और ना ही सफलता उन्हें अति आत्मविश्वास का शिकार बनाती है। एक जीत के बाद दूसरी फतेह हासिल करने के लिए वो मेहनत में जुट जाते हैं। वो ये नहीं सोचते कि मैं बड़ा नेता हूं इसलिए छोटे चुनाव में उतरने से मेरी इन्सल्ट होगी। इस बात की भी फिक्र नहीं करते कि फलां जगह पार्टी कमजोर है और यहां प्रचार करने के बाद पार्टी हार गई तो बतौर नेता मेरी ब्रांड वैल्यू घट जायेगी। बस इन्ही ख़ासियतों के साथ भारतीय सियासत के आसमान पर शाह बनकर अमिट छाप छोड़ रहे है अमित शाह।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एंव वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)