अंबेडकरवाद, जातिवाद, समाजवाद और मार्क्सवादी सभी हिंदुत्व के सामने फ़ेल हो चुके हैं!

बहुजन समाज पार्टी का वोटशेयर इतना गिर गया है कि यूपी की आबादी में दलितों के अनुपात से भी कम हो गया है. सच्चाई तो यही है कि यूपी का Scheduled Caste जम कर बीजेपी को वोट कर रहा है. ठीक वैसे ही जैसे साठ-सत्तर साल पहले यूपी का Scheduled Caste जम कर कांग्रेस को वोट देता था.

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गिनती के अंबेडकरवादी दलित विचारकों और एक्टिविस्टों को छोड़ कर मैं किसी Scheduled Caste को नहीं जानता जो अपने आप को दलित भी कहता हो. 2016 से जब मैं इलाहाबाद रहने लगा था तब दलित समाज के लोगों से संपर्क बनाया था. मेरे मुहल्ले के सामने खटिकों का मुहल्ला है. वहाँ मैंने पिछले दस सालों में बीजेपी के ही झंडे देखे हैं. मेरे घर में खाना पकाने वाला पासी था. 2019 में उसको पूछा था तो उसने बोला था कि उसके गाँव में सात सौ पासियों ने बीजेपी को वोट दिया था. कुछ गांवों में जाकर अलग अलग जाति के लोगों से मिलने का अनुभव हुआ था. हर कोई हिंदू था.

दरअसल अंबेडकरवादी दलित विचारकों की अपने ही समाज में कोई नहीं सुनता है. सच्चाई तो ये है कि जिसे हम दलित कहते हैं वो अपने आप को सिर्फ़  जाति नाम से बुलाता है. जैसे जाटव, कोरी, बाल्मीकि, दुसाध, चमार, धनुक, इत्यादि. और वो तो अपर कास्ट से भी घोर हिंदू मालूम देता है. इक्का-दुक्का भी Scheduled Caste नहीं मिलेगा जो मंदिर नहीं जाता हो, पूजा न करता हो, दुनिया भर के रीति-रिवाज न मनाता हो. मेरा पासी रसोइया दिन-रात यही बताता था कि उसकी भाभी मर कर उसकी बीवी पर भूत बन कर बैठ गई है. आए दिन वो छुट्टी लेकर भूत भगाने ओझा के पास जाता रहता था.

याद रखना चाहिए कि डॉ. अंबेडकर ख़ुद दो लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारे थे. दूसरी बार जब खड़े हुए तो तीसरे नंबर पर आए थे. उन्होंने दलित समाज को बौद्ध बनाने की कोशिश की. आज भारत के करोड़ों दलितों को ये मालूम भी नहीं होगा. अंबेडकरवादी दलित विचारकों का दलित समाज में उतना ही रोल है जितना कम्युनिस्टों का हिंदू समाज में है. यानी कि है ही नहीं. अंबेडकरवाद, जातिवाद, समाजवाद और मार्क्सवादी सभी हिंदुत्व के सामने फ़ेल हो चुके हैं.

बीजेपी की लगातार जीत से भारतीय समाज में निम्न उपलब्धियाँ हुई हैं:

महंगाई अब बुरी चीज़ नहीं है. इसका अर्थ ये कि वोटर मैच्योर हो गया है. मेरे घर वाले जो आठ साल पहले महंगाई से नाराज़ चल रहे थे वो अब समझदार हो गए हैं. महंगाई का ज़िक्र छेड़ो तो ठहाका लगा कर हंसने लगते हैं. महंगे पेट्रोल से ही राष्ट्र निर्माण होता है वाली बात सबको मालूम हो चुकी है. अब कोई बादल उनके मन के राडार को बुद्धू नहीं बना सकता है.

करप्शन बुरी चीज़ नहीं है. मेरे घर वाले जो आठ साल पहले घूस खिलाने से चिढ़ते थे अब ख़ुशी ख़ुशी घूस देते हैं. (घूस लेने वालों को मैं नहीं जानता इसलिए उनके बारे में नहीं बता सकता हूँ.)

चीन द्वारा भारतीय ज़मीन पर ग़ैर-क़ानूनी क़ब्ज़ा बिलकुल ही बुरी चीज़ नहीं है. आठ साल पहले मेरे घरवालों को किसी ने बहका दिया था कि चीन बदमाश है. लेकिन अब उनको कोई बेवकूफ नहीं बना सकता है. चीन का लफड़ा लफड़ा ही नहीं है. रोज़गार को लेकर घरवालों को पहले बहुत चिंता रहती थी. अब वो दौर याद आता है तो खिलखिला पड़ते हैं. राष्ट्रहित और रोज़गार में कोई कंपेरिज़न हो सकता है भला? चल हट. ये सब तो सवर्णौं की बात है.

SC और ओबीसी वोटर तो और भी समझदार हो गया है. पहले वो आरक्षण के लिए लड़ता था. अब वो कह रहा है कि हमें सिर्फ़ कांवड़ यात्रा और जगराते में आरक्षण चाहिए. अफ़सोस कि हम ये पहले समझ नहीं पाए. लेकिन कोई नहीं. देर आयद दुरुस्त आयद.

किसान तो तबसे सदमे में है जबसे केंद्र सरकार ने कृषि क़ानून वापस ले लिया. मोदीजी के इस फ़ैसले पर अपनी नाराज़गी किसानों ने बीजेपी को वोट देकर ज़ाहिर की है. आशा यही है कि मोदीजी ऐसी गलती दोबारा नहीं करेंगे और जल्द ही संसद में कृषि क़ानून वापस ले कर आएँगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)