अफ़ग़ानिस्तान संकट: कहीं आप अमेरिकी प्रोपेगेंडा का शिकार तो नहीं हो रहे हैं?

मोहिनी

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हालिया प्रसार को लेकर जो लोग आँसू बह रहे हैं, उन्हें क्या लगता है कि अमेरिका ने 20 साल जो वहां तबाही मचाई वह सचमुच लोकतंत्र ला रही थी? जब तक आतंकवाद अमेरिकी हो वो आतंकवाद की तरह नहीं दिखता! लेकिन उसमें इस्लाम आते ही वह महिलाओं को दबाने, कुचलने वाला हो जाता है। इस्लाम का नाम आते ही सबको मुसलमान औरतों को बचाने की जरूरत आन पड़ती है। अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के लिए भारत की औरतों को मसीहा बनने की बजाय अपने फेमिनिज्म को बुर्के और हिजाब से आगे ले कर जाना चाहिए।

तालिबान के फैलाव को समझने के लिए उसके जन्म को समझना होगा जो अमेरिकी आतंकवाद और विस्थापन से हुआ है। यह लड़ाई अमेरिकी अत्याचार और तालिबानी प्रतिरोध से शुरू हुई है और आज जब अमेरिका की शक्तिशाली सेना लौटने को मजबूर है, तो वक़्त तालिबान के अत्याचारों पर बात करने का नही हैं बल्कि सीआईए द्वारा पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया फैलाने के षड़यंत्र को देखने का है। अभी वो सफ़हे पलटे जाने चाहिए कि कैसे दुनिया भर में अरबों डॉलर खर्च करके मुसलमानों के प्रति द्वेष फैलाया गया और इसकी आड़ में इस्लामिक देशों के संसाधनों को लूटा गया। अभी यह बात करने का समय है कि कैसे सोवियत संघ को दूर रखने के लिए अतिवादी मुसलमानों को इकट्ठा करके उन्हें Radicalize किया गया। और यह अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन के समय से चल रही मशीनरी है।

अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश के मुसलमानों के ऊपर अमेरिका ने जिस चालाकी से अपने सोवियत संघ के खिलाफ वारफेयर का जिम्मा थोप और बाद में उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आतंकवाद का दर्जा दिया, उस साम्राज्यवाद की उपज है तालिबान। और यही वजह है उसकी लोकप्रियता की भी।

अगर आप अमेरिका द्वारा लोकतंत्र थोपने के नाम पर की गई ज्यादतियों,  जिसमें मुस्लिम बुद्धिजीवियों को जेल में बंद करने से लेकर महिलाओं, बच्चों तक के बलात्कार शामिल हैं, को बस “हाँ, वो है ही” कहकर किनारे कर देते हैं और तालिबान द्वारा की गई हिंसा को बढ़ा चढ़ा कर दिखाते हैं तो आप इस अमेरिकी प्रोपगंडा के या गुलाम हैं या समर्थक। आतंकवाद एक राजनैतिक चीज़ है, इसे सिर्फ मानसिकता भर कह देना आपकी कमज़ोर समझ है। ये बातें सिर्फ हवा में नहीं हैं बल्कि सभी दावों के लिए आँकड़ें मौजूद हैं, और किताबें भी मौजूद हैं। लेकिन ह्वाटसप यूनिवर्सिटी के “छात्रों” को इससे कहां कोई सरोकार है।

(लेखिका सोशल एक्टिविस्ट हैं)