अफगानिस्तान में सत्ता के हस्तांतरण के अमेरिकी-फार्मूले के तहत अब तालिबान काबुल में दाखिल हो चुका है। अब तक अफगानिस्तान में राष्ट्रपति रहे अशरफ़ गनी, उनकी सरकार और समूचे सैन्य प्रतिष्ठान ने तालिबान के विरुद्ध किसी तरह का उल्लेखनीय प्रतिरोध नहीं किया। अशरफ़ गनी वैसे भी अमेरिका के नुमायंदे के तौर पर ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बने थे। अफगानिस्तान की जनता या राजनीति में उनकी कभी कोई हैसियत नही थी।
मजे की बात है कि तालिबान की तरफ से जिन अली अहमद जलाली को संक्रमण कालीन सरकार का प्रमुख या अशरफ़ गनी का उत्तराधिकारी बनाया जा रहा है, वह भी अमेरिका की पसंद है। वह तो वर्षो से अमेरिकी नागरिक भी हैं। पद से हटने की घोषणा कर चुके मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ़ गनी भी सन् 1964 से 2009 के बीच अमेरिकी नागरिक थे। समझा जाता है कि अहमद जलाली के नाम को तालिबान ने पहले ही अपनी मंजूरी दे दी थी।
तकरीबन दो दशक से अफगानिस्तान में जो भी होता आ रहा है, वह दुनिया भर में सत्ता-पलट के कुख्यात षडयंत्रकारी-अमेरिका के नक्शेकदम पर ही। अभी जो हो रहा है, वह भी अमेरिका के ही नक्शेकदम पर ही। इसमें किसी को भ्रम नहीं होना चाहिये। अमेरिका को अफगानिस्तान से हटना था। अफगानिस्तान में अपनी सैन्य-उपस्थिति के साथ सत्ता-पलट कराने की उसकी पुरानी रणनीति अब बेमतलब लग रही थी। ऐसे में उसने अपने कुछ मित्र-देशों से मशविरे के बाद दोहा और वाशिंगटन में बैठकर अफगानिस्तान में सत्ता-हस्तांतरण के लिए नया प्रकल्प तैयार किया।
मैं वैदेशिक मामलों का नियमित अध्येता नहीं हूं। लेकिन एक भारतीय पत्रकार के तौर पर भारत-पाकिस्तान मामलों और कश्मीर मसले को समझने की लगातार कोशिश करता रहा हूं। इस नाते, अमेरिका का यह नया ‘अफगानिस्तान-प्रकल्प’ मुझे बहुत आश्वस्तकारी और निर्दोष नहीं लगता। इसके कई खतरनाक आयाम नजर आ रहे हैं। भारत, रूस और चीन, तीनों मुल्कों की सरकारों और सामरिक मामलों के उनके विशेषज्ञों को इस ‘अनोखे सत्ता-हस्तांतरण’ के अमेरिकी राजनीतिक -प्रकल्प को लेकर सतर्क रहना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)