Latest Posts

सावन के आगमन पर जीनत अमान का पुराना लपूझन्ना किस्सा

1975-76 में नौ या दस की उम्र थी जब रामनगर में हमारी और उसके आसपास की उम्र के के सारे लौंडे जीनातमान के पैदाइशी आशिक थे और उसकी हर पिक्चर सिर्फ और सिर्फ इसलिए देखते थे कि दारासिंह के साथ उसके नाम को जोड़ कर बनाई जाने वाली अश्लील पैरोडियों के भण्डार में इजाफा कर अपनी रचनात्मक प्रतिभा को तीखा कर सकें.

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

‘शोले’ एक साल पहले रिलीज हो चुकी थी लेकिन अभी उसने रामनगर में लगना बाकी था. हमें ख़बर थी कि काशीपुर के चैती मेले में उसके शोज चल रहे थे और यह भी कि पिक्चर में बहुत भयंकर फाइटिंग है और कोई गब्बर सिंह है जिसके नाम का सिक्का पूरे देश में ऐसा चला है कि दारासिंह उसके आगे बच्चा नजर आता है.

रामनगर के पिक्चर हॉल मालिक काइयां थे और अक्सर बेहद पुरानी और सड़ी फ़िल्में लगाते थे. उस समय तक के सबसे मनहूस एक्टर राजेंदर कुमार की तथाकथित जुबली फ़िल्में बार-बार लगा करतीं जबकि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ और ‘मंगू’ का नंबर साल में दो बार आता.

हमारा बचपन में ऐसा दलिद्दर भरा हुआ था कि ‘शोले’ रामनगर में तब आई जब सारे मुल्क में अफवाह फ़ैल चुकी थी कि ज्यादा फाइटिंग की वजह से उसे बाईस रील से काटकर अठारह रील कर दिया गया था.

भाग्यवश हिमालय टाकीज में भूसा-वल्लभ मनोज कुमार की ‘रोटी कपड़ा और मकान’ लगी. यह रामनगर के हिसाब से काफी नई पिक्चर थी. हमारे पड़ोस में रहनेवाले एक परिवार में मुरादाबाद से एक नक्शेबाज, सिपला टाइप का मेहमान लौंडा आया था जो हमारा हमउम्र भी था. उससे सिर्फ इस वजह से हमारी अंतरंगता हो गयी थी कि उसे भी पिक्चरों के कीड़े ने उसकी देह में उसी गुप्त जगह पर काटा था जहां हम पहले ही से नासूर पाले बैठे थे. उसी ने बताया कि पिक्चर नई है और उसने नहीं देख रखी है. हम रामनगर वालों के लिए यही तथ्य बहुत बड़े सम्मान का विषय रहा जिसे हम लम्बे वक्फे तक विक्टोरिया क्रॉस की तरह लटकाए घूमते रहे.

‘रोटी कपड़ा और मकान’ में जीनातमान थी और खूब थी. उसमें मदन पुरी भी था जिसके हरामीपन के हम सब मुरीद थे और जब तक वह स्क्रीन पर रहता हमारे भीतर मीठी ऐंठन जैसा कुछ लगातार चुभता रहता. हम जीनातमान के आशिक होने के साथ साथ मदन पुरी के गुलाम भी थे. उतना कमीना गद्दार पिक्चरों में फिर नहीं आया.

पिक्चर तीन दफा देखी गयी और उसके जितने मजे लूटे जा सकते थे, लूटे गए. सारे गाने रट गए. साथ होने पर हम दोस्त उन्हें गाया करते. एक तोतला मगर जांबाज लौंडा हमारा सेनापति था. ‘हाय हाय ये मजबूली’ पर अपनी जाँघों, सीने और माथे पर थाप मारता हुआ वह ऐसा कैबरे करता था कि उसके शुरू होने पर हमें शरमाकर मंडली में से अपने से छोटी उम्र के बच्चों को बाहर चले जाने को कहना पड़ता. वे शिकायत करते तो हम उनसे कहते – “बच्चों के मतलब का आइटम नहीं है बेटे!”

एक दिन हमारी टोली के एक सदस्य ने गाने को बीच में टोक कर उससे उस पंक्ति का अर्थ पूछा जिसमें जीनातमान दो टकियाँ दी नौकरी में अपने लाखों के सावन के जाने का उलाहना देती हुई आधा चेहरा हथेली से ढांपे रहने वाले मनोज कुमार को लपलपा रही है.

न हमें दो टकियाँ का अर्थ आता था न लाखों के सावन का! ऐसा ऊंचा काव्य समझने लायक बालिग अभी हम नहीं हुए थे.

तब तक मैं क्लास के सबसे होशियार बच्चे के तौर पर स्थापित हो चुका था सो अगले दिन हिन्दी वाले मास्साब से इस सवाल का जवाब पूछने का जिम्मा मुझे सौंपा गया.

हिम्मत कर के मैंने पूछ ही लिया.

मुझे और आगे की सीट पर बैठे बच्चों को हिन्दी मास्साब ने इतना मारा कि उनकी संटी टूट गयी. “एक तरफ जो है इन्द्रा गांधी ने इमरजन्सी लगा रखी है और तुम पिद्दियों की पिछाड़ी में सावन की आग लग रही है हरामजादो! अपने माँ-बापों से पूछना सालो …” – वे गालियाँ बकते जाते, संटियाँ मारते जाते.

जाहिर है अपने माँ-बापों से क्या किसी से भी इस खतरनाक गाने का अर्थ पूछने की हिम्मत हममें न थी. कई हफ़्तों तक हम असमंजस में रहे कि हमारी जानेमन जीनातमान ऐसा हॉकलेट गाना गाने को राजी कैसे हो गयी जिसका जिक्र भर करने से हिन्दी मास्साब जल्लाद में बदल गए. हिन्दी मास्साब और इन्द्रा गांधी सही लोग नहीं हैं – हमने तय किया!