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आंसुओं और आर्थिक ‘तंगी’ से जूझने वाले ‘संतोष’ की इन हरकतों को जानकर आपको नहीं मिलेगा ‘आनंद’

दीपक असीम

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मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हुए पच्चीस साल होने आए। मगर मोबाइल फोन का स्विच ऑफ करके जैसा सुकून उस दिन मिला था, वैसा फिर कभी महसूस नहीं हुआ। उस दिन यानी जब मैंने संतोष आनंद को विदा किया था और उनके प्रति अपने आपको जिम्मेदारियों से मुक्त महसूस किया था। उन्हें मुशायरे में बुलाया था, सो मुशायरे के बाद उन्हें उनके कमरे तक पहुंचा कर पेमेंट देना और सुबह रवानगी के बारे में समझाना मेरा फर्ज था। टीवी पर संतोष आनंद को देखकर वो पुरानी बात और खासकर वो रात याद आ रही है, जिस रात संतोष आनंद मेरे मेहमान थे। कत्ल की रात, कयामत की रात थी वो। उस रात अगर मैंने अपना सिर नहीं पीटा, कपड़े नहीं फाड़े, बेकाबू होकर गालियां नहीं देने लगा, तो इसलिए कि मैं बहुत कुछ जब्त करना जानता हूं।

आते ही कहने लगे कि मेरा बेल्ट टूट गया है, लाकर दो। मुशायरे की अन्य व्यवस्था देखने वाले के पास इतना समय नहीं होता कि बेल्ट लाए और फिर बेल्ट भी पतली कमर का नहीं, 44 साइज के भी बाद का। उन दिनों उनकी कमर बहुत बड़ी थी। शायद पचास इंच से ज्यादा। सो बेल्ट नहीं मिला। फिर उन्हें शराब पेश की माफी मांगी कि खुद कंपनी नहीं दे सकता। मगर कमेटी के ही एक आदमी को उनके साथ बैठा दिया कि बातें करते रहना, पीते रहना। इंदौर के शायर ज़हीर राज को ये जिम्मा मिला। पांच-सात मिनिट बाद  फोन आया कि मेरे कमरे में आओ। मैंने घंटी बजाई कि वे बाहर आ गए। कहने लगे आपने मेरे साथ एक मुसलमान को बैठा दिया है। मैने कहा हां शायर हैं, पीते हैं। कहने लगे मुझे नहीं चलेगा। उठाओ इन्हें। इन्होंने मेरा नमकीन भी उठाकर खाया है, दूसरा मंगवाओ। मैंने कहा आप आर्डर कर दीजिए। ज़हीर राज ने भी अब तक सब सुन लिया था वे अपमानित महसूस कर रहे थे। उठकर बाहर आ गए। मैंने उन्हें नीचे भेज दिया। फिर शिकायत करने लगे कि ये आदमी मेरी शराब पी गया। ज़हीर राज ने उतनी देर में मुश्किल से दो पैग पिए होंगे। मैंने उन्हें याद दिलाया कि ब्लेंडर प्राइड की ये बोतल उनकी नहीं है, कमेटी की है और पीने वाला भी कमेटी का आदमी है। मेजबान है, आपको कंपनी देने के लिए आपके साथ पी रहा था।

खैर…वे लगातार पीते रहे और उनके प्रशंसकों से बातें करते रहे। मुशायरे का समय हो गया। मंच पर सारे शायर जम गए। मुझे फोन आने लगे कि संतोष आनंद जी को लेकर राजवाड़ा आओ जहां हमारे मुशायरे का  मंच होता है। मगर तब तक तो संतोष आनंद ने कपड़े भी नहीं बदले थे। वे लगातार बमक रहे थे और बीच बीच में उन्हें याद आ जाता था कि मैंने  उनके साथ एक मुसलमान को पीने बैठा दिया था। वे बार बार मुझे बुलाकर मुसलमानों के बारे में अपनी राय भी प्रकट करते रहे। मैं सुनता रहा क्योंकि मेज़बान  था और उनकी बात सुनना मेरी मजबूरी थी। मजबूरी का नाम संतोष आनंद। मगर जब दस बज गई और मुझे विधायक अश्विन जोशी जी के बीस फोन आ गए तो मैंने संतोष आनंद जी को उनके आनंद में छोड़ कर आने का फैसला कर लिया। मगर अपने दोस्त संजय वर्मा को लगा दिया कि इन्हें ले आना। वे मुस्लिम नहीं हैं और बहुत विनम्र भी हैं। मगर संतोष आनंद अब हिंदू के साथ भी आने को तैयार नहीं थे। थक हार कर ग्यारह बजे वे भी चले आए।

आयोजकों ने मुझसे पूछा कि संतोष आनंद कहां हैं। मैंने कहा आना होगा तो आ जाएंगे अब मुशायरे पर ध्यान लगाओ। मुनव्वर राना भी मंच पर थे। मुशायरा चल पड़ा और ठीक-ठाक चल रहा था कि जो संतोष आनंद खुशामदें करने पर और गाड़ी लगाने पर भी आने को तैयार नहीं थे, वे खुद चले आए, रिक्शा करके चले आए। सुनने वालों में धूम मच गई कि संतोष आनंद आए हैं। संतोष जी को संतोष भी मिला और आनंद भी। वे कुर्सी पर विराजे क्योंकि नीचे बैठने में उन्हें कष्ट था। उनके हाथ में एक छड़ी थी जो उस रात लगातार मेरे नितंबों पर प्रहार में व्यस्त रही। मैं उनके आगे बैठा था कि उन्होंने छड़ी से टहोका – दीपक शराब ला…। मैंने पानी की बोतल में वोदका भरवाकर उनके सामने पेश की। वे घूंट भरते रहे और हर शायर के खिलाफ कुछ न कुछ टिप्पणी भी करते रहे। हम सब परेशान होते रहे। खैर…मुनव्वर राना पढ़ने हुए तो उन्होंने बचे रहने की खातिर संतोष आनंद की खुशामद में बहुत सारी बातें कहीं, जो व्यर्थ गईं। क्योंकि उन्होंने मुनव्वर राना को भी नहीं बख्शा।

उस मुशायरे में मुनव्वर राना पेमेंट की खातिर नहीं, मुझसे रिश्ता निभाने के लिए आए थे। कोई एहसान था मेरा जो उन्होंने उतारा था। बहरहाल मैं रात भर से तो पक रहा ही था, सुबह सुबह पक कर फूट पड़ा और माइक पर जाकर मैंने कहा कि संतोष आनंद जी पूरा मंच रात भर से आपका लिहाज कर रहा है। आप कुछ तो खयाल कीजिए, शायर को पढ़ने दीजिए। इतने कमेंट मत कीजिए कि लोगों को बुरा लगे। खैर…खलल तो पड़ ही चुका था। जैसे तैसे मुनव्वर राना ने पढ़ा फिर संतोष आनंद ने कुछ गीत और कुछ लनतरानियां सुनाईं। ये संतोष आनंद उस संतोष आनंद से बिल्कुल अलग थे, जिन्हें तीस साल पहले मैंने छावनी में सुना था। फक्कड़ से उस संतोष आनंद ने अपने गीतों से मजमे को आल्हादित कर दिया था। हमने उसी संतोष आनंद को आमंत्रित किया था और अब उसके प्रेत को झेल रहे थे। उस रात मैं चाह रहा था कि काश ये रात जल्द खत्म हो, मुशायरा जल्दी निपटे।

होटल पहुंच कर मैंने उन्हें पेमेंट दिया। सुबह उन्हें कैसे रवाना होना है यह समझा दिया और मोबाइल फोन का स्विच ऑफ कर लिया और घर जाकर सो गया। शाम को जैसे ही फोन चालू किया मरहूम जावेद अर्शी का फोन आया कि संतोष आनंद ने जाने से पहले भी बहुत हंगामा किया। जावेद अर्शी को भी बुलाया कि मुझे रवाना करो, छोड़ कर आओ। फिर जिद यह कि मेरी रवानगी तक मेरे साथ रहो, मेरी फरमाइशें पूरी करो, मेरी बातें सुनो। टीवी पर आंसू बहा कर टीआरपी बटोरने वाले एक रोने-गाने के कार्यक्रम में संतोष आनंद आए। उन्होंने अपनी कथित व्यथा सुनाई। रोने वाले और रोने वालियां रोईं। मुझे हंसी आई। इनमें से अगर कोई पंद्रह मिनिट भी संतोष आनंद  के साथ रह ले और रह कर उनके दुखों पर ऐसे आंसू बहा सके तो  मान जाऊं कि वाकई  इन्हें अभिनय सिध्द हो गया है। मुझे सोनी चैनल के उन क्रू मेंबरों पर दया आ रही है जिन्होंने संतोष आनंद को तैयार किया होगा, स्क्रिप्ट दी होगी, बात की होगी, पानी पिलाया होगा।

अपने गीतों से संतोष आनंद अमर हैं। मगर उनके बर्ताव से उनके प्रति उमगने वाली श्रध्दा कम होती है। क्या वाकई वे उतने ही सांप्रदायिक हैं जितने उस दिन थे या फिर वो उस दिन की कोई सनक, कोई तरंग थी, मैं फैसला नहीं कर पा रहा। मैंने तीसरी कसम के राजकपूर की तरह उस दिन पहली कसम खाई थी कि अब चाहे कोई उनका खर्च उठाने के साथ साथ चार और शायरों का खर्च उठाने का ऑफर भी दे, तो कम से कम संतोष आनंद को तो कभी मुशायरे, कवि सम्मेलन में नहीं बुलाउंगा। बाद में कुछ लोगों ने बताया कि अकेला मैं ही नहीं दूसरे भी कई मेजबान ऐसा सब झेल चुके हैं। अंत में यही कामना है कि वे खूब जिएं, खुश रहें। बस मुझसे दूर रहें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)