अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर (आठ मार्च) मीडिया, सोशल मीडिया पर तमाम तरह की स्टोरी प्रकाशित हुई हैं। कुछ स्टोरी ऐसी हैं जो महिलाओं की दुर्दशा को बताती हैं, वहीं कुछ ऐसी बहादुर महिलाओं की भी स्टोरी हैं जो ज़माने के लिये प्रेरणा बन गईं। इन्हीं में से एक स्टोरी फ़लस्तीन की मुना अल कुर्द की है। मुना को बीते वर्ष फ़लस्तीन और इजरायल के बीच हुए संघर्ष के दौरान इजरायली प्रशासन द्वारा गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के बाद मुना शेख जर्राह में होने वाले आंदोलन का चेहरा बन गईं।
नोबेल पुरुस्कार याफ़्ता पाकिस्तान की मलाला युसुफ़ज़ई अक्सर चर्चा में रहती हैं। पिछले दिनों कर्नाटक में हुए हिजाब विवाद के कारण वे अपने बयान को लेकर वे फिर से चर्चा में आईं। उनके बयान के क्या मायने हैं क्या नहीं, यह इस संवाददाता के इस लेख का विषय नहीं है, बल्कि लेख का फ़िलिस्तीन की वह बहादुर बेटी मुना अल-कुर्द है जिसने इज़राइली बम, बंदूक, ज़िंदान की परवाह किए बग़ैर इज़राइल के उस आदेश की धज्जियां उड़ां दीं जिससे शेख जर्राह के 7850 फिलिस्तीनियों पर विस्थापन पर ख़तरा मंडराया हुआ है।
ज़ायनिज़्म के ख़िलाफ मुना अल-कुर्द का संघर्ष 2001 से चल रहा है। उस वक्त मुना की उम्र महज़ तीन वर्ष थी। जब इज़राइल द्वारा मुना अल-कुर्द के मकान की चाबियां ज़ब्त कर ली गईं, इसके बाद 2009 में उनके मकान के आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया गया। मुना अल-कुर्द उसी रोज़ से अपने उस घर के लिये संघर्ष कर रही है जहां उसके पूर्वज़ पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। अब ज़ायनिस्ट अदालत के विवादित फैसले के बाद शेख जर्राह के लोगों पर विस्थापन का ख़तरा मंडराया तो इसके विरोध में आवाज़ें उठना शुरु हो गईं, शेख जर्राह में पीढ़ियों से रहते आ रहे लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। देखते-देखते मुना अल-कुर्द इन विरोध प्रदर्शनों का चेहरा बन गईं।
मुना ने पिछले दिनों ज़ायनिस्ट अदालत को ठेंगा दिखाते हुए बयान दिया कि “अगर वे हमें जबरन निकालने के लिए हमारे घर पर छापा मारते हैं, तो मैं अपने कमरे में खुद को जंजीर से बांध लूंगी। लेकिनमैं शेख जर्राह में अपना घर नहीं छोडुंगी।” बीते रविवार को मुना अल-कुर्द को ज़ायनिस्ट पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। अब ख़बर आ रही है कि मुना अल-क़ुर्द को रिहा कर दिया गया है।
बच्चों के अधिकारों की आवाज़ उठाने वालीं मलाला बहादुर हैं, क्योंकि उन्होंने ‘रूढ़ीवाद’ के ख़िलाफ अपना संघर्ष शुरु किया था। लेकिन जहां तक बहादुरी का सवाल है कि फिलिस्तीन में मुना अल-कुर्द जैसी न जानें कितनी वीरांगनाएं हैं जो ज़ायनिस्ट की बम, बंदूक, ज़िंदान, प्रताड़ना के ख़ौफ से बेपरवाह होकर अपनी ज़मीन के लिये संघर्ष कर रहीं हैं।
पश्चिमी दुनिया समेत भारत के तथाकथित ‘बुद्धिजीवियों’ के लिये मलाला युसुफ़ज़ई किसी रॉलमॉडल से कम नहीं हैं। लेकिन हैरानी उस वक्त होती है जब बुद्धिजीवी होने का दंभ भरने वाले तथाकथित ‘सुधारवादी’ लोग मुना अल-कुर्द के नाम से भी वाकिफ़ नहीं रहते। मलाला बहादुर हैं तो मुना अल-कुर्द मलाला से भी बड़ी बहादुर है। हालांकि यह अलग बात है कि फिलिस्तीन की ये वीरांगनाएं कभी शांति का नोबेल नहीं जीत पाएंगी। क्योंकि इनकी बदौलत ही ज़ायनिस्ट साम्राज्यवाद का क्रूर चेहरा दुनिया के सामने आता है।
(लेखक जाने माने पत्रकार हैं)