निसार सिद्दीक़ी
“महिलाएं ही महिलाओं की असल दुश्मन होती हैं” इस वाक्य पर काफी बहस होती है। कुछ लोग सहमत होते हैं तो कुछ लोग असहमत। लेकिन मीडिया में काम करने वाली महिलाओं के लिए यह लाइन बिल्कुल 100 टका सही है। मीडिया में बहुत महिला पत्रकार हैं। काफी असरदार हैं मुखर होकर अपनी बात रखती हैं। बहस भी काफी चीख-चीख कर करती हैं। लेकिन ये महिला पत्रकार भी शायद ही दुनिया की आधी आबादी यानी महिलाओं के मुद्दों पर बात करती हैं। धर्म, संप्रदाय, नफरत, राजनीति, हिंसा. क्राइम पर खूब चीख-चीखकर और बाहें मरोड़कर बहस करती हैं। लेकिन उन मुद्दों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती हैं, जो वास्तव में महिलाओं के मुद्दे होते हैं।
मैंने किसी महिला पत्रकार और एंकर को रेप और क्राइम के अलावा किसी बुनियादी सवाल पर बहस करते हुए देखा कभी नहीं देखा है। हां अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस हो तो बात अलग है। कोरोना टाइम में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के केस में अप्रत्याशित बढ़ोतरी दर्ज की गई। लेकिन शायद ही प्राइम टाइम की बहस में इन मुद्दों पर बहस हुई। कोरोना का अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा, जीडीपी माइनस में चली गई। इसकी चर्चा खूब हुई। बहस भी हो रही है। लेकिन माइनस चल रही महिलाएं, जो कोरोना के बाद बिल्कुल रसातल में चली गईं, इस पर कोई बहस नहीं है।
महिलाओं पर यूएनडीपी की आई रिपोर्ट की कहीं चर्चा तक नहीं है। जबकि रिपोर्ट के आंकड़े काफी डराने वाले हैं। यूएनडीपी ने कहा- ‘वैश्विक महामारी 2021 तक 9.6 करोड़ लोगों को अत्यंत गरीबी की ओर धकेल देगी, जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं एवं लड़कियां होंगी. यह संकट बेहद गरीबी में रहने वाली कुल महिलाओं की संख्या को बढ़ाकर 43.5 करोड़ कर देगा, जहां अनुमान दिखाते हैं कि 2030 तक यह संख्या वैश्विक महामारी से पहले के स्तर तक नहीं लौट पाएगी.’।
सोचिए- जीडीपी एक साल नहीं दो साल में रिकवर कर लेंगे, लेकिन महिलाएं जो 2030 तक रिकवर नहीं कर पाएंगी उनके लिए कोई शब्द नहीं, कोई चर्चा नहीं। मुझे तरस उन महिला पत्रकारों पर आता है जो फर्जी फेमिनिस्ट बनकर दिन-रात फालतू की बकवास करती रहती हैं। वह असल मुद्दों पर मौनी बाबा बन रहती हैं। मेरी नजर में ये महिला पत्रकार सशक्तिकरण की निशानी नहीं बल्कि शक्ति का आनन्द उठाने वाली सुविधाभोगी पिट्ठू हैं और अपनी जमात की दुश्मन हैं।
(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया विद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं)