निगार परवीन
महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं। इसलिए इस वर्ग की शिक्षा और प्रशिक्षण समाज की सुधार और कल्याण के लिए आवश्यक और अनिवार्य है। ज्ञान वही सागर हैं जिसका पानी कभी ख़त्म नहीं होता। डुबकी जितनी लगाओ उतनी ही गहराई मिलती है। अगर बात हम ज्ञान की करते है सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा का माध्यम ही है।हमारे हिंदुस्तान में महिलाएँ आज शिक्षक बन के दुनिया के कोने कोने में, बच्चों-बच्चों तक शिक्षा पहुँचा रही हैं। मानव समाज के निर्माण और विकास के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण, ज्ञान और जागरूकता व चेतना का बुनियादी महत्व है।
इस्लाम में महिलाओं की शिक्षा
इस्लाम ने शिक्षा और प्रशिक्षण को शुरू से ही महत्व दिया। शरीयत-ऐ-इस्लामी ने मर्दों व औरतों दोनों को समान अधिकार और कर्तव्य दिये हैं। दोनों कर्तव्यों को पूरा करने के लिए एक समान रूप से जिम्मेदार हैं। यह बात ज़रूरी है कि दोनो को ही अपना कर्तव्य बखूबी निभाना आना चाहिए। इसीलिए जब तक आप अपने धर्म के ज्ञान को प्राप्त नहीं करते तब तक आप धार्मिक मर्गदर्शन पे नहीं चल सकते। यही वजह हैं कि इस्लाम में मर्द और औरत को समान रूप से शिक्षा की प्राप्ति का हुक्म है।
इस्लाम कहता है “ हर मुसलमान (मर्द और औरत) पर इल्म हासिल करना फ़र्ज़ है। दरहक़ीक़त अल्लाह के बंदों में से सिर्फ इल्म रखने वाले लोग ही उससे डरते हैं।“ इस्लाम से पहले की औरतें बिना इल्म के अपने अधिकारो को जानने में असमर्थ थीं, ऐसे में पढ़ना और लिखना उनके हक़ में आता ही नहीं था। ना वो अपने अधिकार के लिए सवाल कर सकती थी ना ही अपने अधिकार को समझ सकती थी। इसलिए इस्लाम में औरतों को इल्म के मामले में औरत और मर्द को बराबरी का दर्जा दिया हैं। इस्लाम में कहा गया हैं की औरत का फ़र्ज़ हैं इल्म हासिल करना और इसे रोकना जुर्म हैं।
औरतों को शिक्षा देना अनिवार्य है, और इस में कोई दो राय नहीं है कि। दीन का ज्ञान रखने वाली महिलाएं सही और गलत, जायज़ और नाजायज़ की हद को जानती और पहचानती हैं। यही औरत आगे चलकर अपने बच्चों तक इल्म पहुँचाती है, और एक अच्छें समाज का निर्माण करने में अपनी भागीदारी निभाती है।
पहली शिक्षक “बीबी फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई फुले
शिक्षा को हर महिला तक पहुँचाने का ज़िम्मा जब सावित्रीबाई फुले ने लिया। तब उनका साथ देने बीबी फ़ातिमा आगे बढ़ी, और एक अध्यापिका के रूप में सावित्रीबाई फुले के स्कूल में पढ़ाने लगीं। इसके लिए उन्हें तमाम समाजिक विरोधियो का सामना भी करना पड़ा मगर वह पीछे नहीं हटीं। और उसी तरह घर घर जा के महिलाओं को शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने की मुहिम चलाने लगी। जब सावित्रीबाई फुले के पिता जी ने उन्हें, दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए, किए जा रहे कामों के कारण पूरे परिवार को घर से निकाल दिया। तब बीबी फ़ातिमा के भाई ऊस्मान शेख़ ने उन्हें अपने घर में पनाह दी।विचारधारा सिर्फ़ धर्म के ज्ञान को सीमित ना रखके उन्होंने हर महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित करने जो फ़ैसला लिए और मॉडर्न एजुकेशन को महत्व दिया इसीलिए समाज इनके “बेटी पढ़ाओ” योजना के विपरीत हो गई। “हम होंगे कामयाब और भविष्य में सफलता हमारी होगी और भविष्य हमारा है।”– सवित्रीबाई फुले
आधुनिक शिक्षा के प्रति मुस्लिम महिलाओं का योगदान
मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व को अक्सर “हिजाब पहनने वाले रूढ़िवादियों” तक सीमित कर दिया गया है, हालांकि, एक इतिहास परियोजना-सह-प्रदर्शनी – पाथब्रेकर्स: बीसवीं सदि की “मुस्लिम वुमन ऑफ इंडिया” यह बदलने की उम्मीद करती हैं। इसका दूसरा पहलू भी है, हिजाब कभी शिक्षा में रुकावट नही बना, आप अक्सर ऐसी खबरें पढ़ते होंगे हिजाब पहनने वाली मुस्लिम लड़की पायलट बनती है, बॉक्सर बनी और भी ऐसी बहुत सारी मिसालें हैं, कोई भी इंसान जब अपने मक़सद को मज़बूती से पकड़ा रहेगा तो कामयाबी उसकी मुक़द्दर होगी, हिजाब शिक्षा से कभी महिलाओं को नही रोकता, ये समझने की ज़रूरत है।
सफल मुस्लिम महिलाएं
बीबी फ़ातिमा शेख़ः आधुनिक भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षकों में से एक है जिन्होंने दलित बच्चों को फुले के स्कूल में शिक्षित करना शुरू किया। फातिमा शेख ने सावित्रीबाई फुले के साथ उसी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। सावित्रीबाई और फातिमा सगुना बाई के साथ थीं, जो बाद में शिक्षा आंदोलन में एक और नेता बन गईं। फातिमा शेख के भाई उस्मान शेख़, ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के आंदोलन से प्रेरित हो कर भाग लिया उस समय के अभिलेखागार के अनुसार, उस्मान शेख़ थे जिसने अपनी बहन फातिमा को समाज में शिक्षा का प्रसार करने के लिए प्रोत्साहित किया। पथराव किए जाने और गोबर फेंका जाने लगा यह ही नहीं फातिमा को हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों का भी क्रोध सहना पड़ा। धमकियों के बावजूद, वह मुस्लिम घरों जाती थीं और लड़कियों की शिक्षा का महत्व समझाती थीं। वह पहली मुस्लिम महिला थी जिसने 19 वीं शताब्दी में अन्य लड़कियों और महिलाओं को शिक्षित करना शुरू किया था और संक्षिप्त प्रोफ़ाइल “बाल भारती” महाराष्ट्र राज्य ब्यूरो के स्कूल के उर्दू पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया गया था।फ़ातिमा शेख़ पे आज हम सभी गर्व हैं।
सुरैया तैयबजीः हमें भारत का इतिहास भी नहीं भूलना चाहिए , भारतीय ध्वज के लिए अंतिम डिज़ाइन को लेकर सामने आने वाली महिला “सुरैया तैयबजी” थीं और उन्हें वह श्रेय देना चाहिए जिसकी हकदार हैं। उन्हें याद करते हुए, सुरैया और बदरुद्दीन तैयबजी की बेटी लैला तैयबजी लिखती हैं, “अगर उन्हें अपने लिए प्रतिनिधि छवि चुननी होती, तो ऐसा नहीं होता कि उस प्रदर्शनी में उभरी एक राजदूत पत्नी की सावधानी से बनाई गई तस्वीर होती। वह उस तरह की मुस्लिम महिला थी जिसके बारे में लोग बात नहीं करते थे, क्योंकि वह या तो बुर्खा-पहने स्टीरियोटाइप या उग्र कार्यकर्ता के रूप में फिट नहीं थी। अपने तरीके से, अम्मा भी एक पथप्रदर्शक थीं।”
डॉ सैय्यदा हमीदः मौलाना आज़ाद विश्वविद्यालय हैदराबाद की कुलाधिपति हैं। जिन्होंने योजना आयोग की सदस्या के रूप में एक लंबा और शानदार करियर बनाया। मुस्लिम महिला मंच की अध्यक्ष, दक्षिण एशिया में शांति के लिए महिलाओं की पहल की संस्थापक। न्यासी (WIPSA) सदस्य, द्वीप विकास प्राधिकरण, संस्थापक ट्रस्टी, केंद्रीय संवाद और सुलह के लिए।और राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या। कश्मीर में जन्मी, चेयरपर्सन के रूप में कई मानद पद रखती हैं। दिल्ली में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। 15 से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं सह लेखन किया है, जिसमें ब्यूटीफुल कंट्री: स्टोरीज़ फ्रॉम अदर इंडिया, उनकी अनुपम किर्ती है। साथ ही वे पद्म श्री सहित कई अन्य पुरस्कारों और उपाधियों से सम्मानित हैं।
“हमने मुस्लिम महिलाओं की रूढ़िवादिता को चूल्हा-चौका-चारदीवारी-बहुविवाह-ट्रिपल-तालक और अन्य चीजों में शामिल किया,यह कोलाहल पिछले चार-पांच वर्षों में बढ़ी है, ” -सैयदा हमीद
हमीद ने महसूस किया कि इन महिलाओं की कहानियों का पता लगाने के लिए विभाजन के रूप में वापस जाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एक ऐसा क्षण है जब उन्हें चुपचाप गुमनामी में दुबारा होने की उम्मीद की जाती थी। “इनमें से बहुत सी महिलाएं बुर्का पहनने वाली महिलाएं थीं, जिन्हें विभाजन के लिए स्थानीय समुदायों को क्रूर कीमत के बावजूद नए भारत के निर्माण में अहम भूमिका निभानी पड़ी, हालांकि उनकी भूमिका बड़ी या छोटी थी” अनीस किदवई – ने अपने भाई के ट्यूटर्स को पढ़कर और सुनकर उर्दू और अंग्रेजी साहित्य सीखा। विभाजन के दौरान सांप्रदायिक झड़प में अपने पति को खोने के नौ साल बाद, किदवई राज्यसभा के सदस्य बनी,1974 में, उन्होंने अपना संस्मरण, “अज़ादी की छाँव में” लिखी।
सईदा ख़ुर्शीद – 1947 में अपनी शिक्षा एक निजी छात्र के रूप में पूर्ण की,और अपनी परीक्षाओं के लिए अलीगढ़ की यात्रा के लिए निकल पड़ी।ख़ुर्शीद जी उत्कृष्ट छात्रा और स्वर्ण पदक विजेता थीं। उन्होंने “ज़ाकिर साहिब की कहानी उनकी बेटी की जुबानी” लिखी।2000 में मुस्लिम महिला मंच की संस्थापक अध्यक्ष रही और संगठन को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के मुद्दों पर बीच का रास्ता निकालने के लिए प्रेरित किया।
सच्चर समिति रिपोर्ट
रिपोर्ट में कहा गया है कि “कई बैठकों” में महिलाओं ने इस बात पर जोर दिया कि उन्हें अध्ययन करने और काम करने का अवसर दिया जाता और बाधाओं का सामना करने के लिए “प्रबंधन” करना पढ़ता था (सच्चर 2006, 13) एक रिपोर्ट में पाया गया कि मुस्लिम लड़कियाँ खुद शिक्षा के लिए एक “मजबूत इच्छा और संकल्प रखती हैं” (सच्चर 2006, 19-20)
(लेखिका शिक्षाविद्य हैं)