ट्रैफ़िक पुलिस की एक महिला सिपाही को देखा. जो अभी-अभी मां बनी और कुछ ही दिनों में अपना बच्चा लेकर काम पर आ गई. एक वीडियो वायरल हुआ. जिसमें महिला सिपाही की छाती पर बच्चा लगा हुआ है और वो दूसरे हाथ से ट्रैफ़िक को पास कर रही है. स्वभाविक है ये बहुत ही भोली तस्वीर है. कितना भी भारी दिल हो, पिघल ही आता है. लेकिन ऐसी खबरों पर लट्टू होना हमारी चेतना पर गंभीर प्रश्न कर रहा है. कुछेक हफ़्ते पहले इसी तरह जयपुर की मेयर को भी देखा, उन्होंने अपनी तस्वीर शेयर करते हुए बताया कि वे मां बन चुकी हैं. और जल्दी ही काम पर लौटेंगी. उसके नीचे उन्होंने लिखा कि “काम ही पूजा है”. उसी शाम उन्होंने एक तस्वीर शेयर की थी जिसमें वे अधिकारियों की एक मीटिंग ले रही हैं. अख़बार वालों ने हेडलाइन में लिखा कि “कुछेक घंटे पहले मीटिंग लेने वाली मेयर बनी मां”. खबरों का सार यही था कि मेयर काम के प्रति कितनी डेडिकेटेड हैं.
इससे पहले भी इसी तरह की खबरें देखने को मिलती रही हैं. कभी IAS अधिकारी, कभी SDM अधिकारी, कभी कॉन्स्टबल. महिलाओं के मां बनने के तुरंत बाद ही काम पर लौटने की “साहसिक” तस्वीरें वायरल हो रही हैं. परिणामतः कुछ महिलाओं के अपने निजी अपवाद अन्य महिलाओं के लिए उदाहरण बनते जा रहे हैं. लेकिन इन उदाहरणों का निर्माण निर्ममताओं की ईंटों पर रखकर हुआ है. महिमामंडन कभी अकेले नहीं आता, उसकी परतों में निर्मम शोषण की परतें हैं. अगर उन्हें न पहचाना गया, अगर उन्हें न टोका गया तो अपवादों के परंपरा बनने में वक्त न लगेगा.
आज मां बनने के तुरंत बाद काम पर लौटने को सराहा जा रहा है, कल ये अलिखित नियम बना दिया जाएगा, अन्य महिलाओं से भी मालिक अपेक्षा करने लगेंगे कि उस साहसी महिला की तरह उनके दफ़्तर की महिलाएँ भी बिना “maternity leave” पूरी किए ही काम पर लौट आएँ. इसलिए ऐसी हर तस्वीर को ग्लोरिफ़ाई करने की बजाय डीमोरेलाइज, निरुत्साहित करने की ज़रूरत है. जितनी भोली ये तस्वीरें हैं उतनी ही निर्मम, अबोध और यातनाभरी भी हैं. महिलाओं के लिए maternity leave एक दिन के संघर्ष में प्राप्त नहीं हुईं, ये सुविधा किसी मालिक ने एक दिन में यूँ ही नहीं लुटाई, यूँ ही किसी सरकार ने एक दिन में इसपर क़ानून नहीं बना दिए. कितनी ही महिलाओं और मज़दूर संगठनों के संघर्ष के बाद फ़ैक्टरियों के क्रूर नियमों में “निजी जीवन” के लिए कुछ जगह बन पाई है. इसे कुछ अच्छी तस्वीरों में खर्च मत हो जाने दीजिए.
मां के रूप में आप अपनी सुविधाओं का त्याग कर सकती हैं लेकिन जिस बच्चे ने धरती पर अभी अभी पहली साँस ली है. कम से कम वो डिज़र्व करता है कि उसे उसकी माँ उसे दो-एक महीने का वक्त दे, उसे चूमे, उसके हाथों को पकड़े. उसके नाज़ुक शरीर को हल्दी के लेप से नहलाए. वो डिज़र्व करता है कि उसके पिता कुछ दिन डायपर बदलें, उसके लिए बेसुरे गाने गाएं. वो डिज़र्व करता है कि उसे अपनी मां, अपने पिता की देह की ख़ुशबू पहचानने का भरपूर वक्त मिले. ताकि ख़ुशबू से ही वो अपने मम्मी-पापा को पहचान लिया करे, उस ख़ुशबू के मिल जाने पर खिलखिलाकर हंस पड़े तो उसकी अनुपस्थिति में रो-रोकर पूरे घर को बता डाले कि अब घर में वो भी है, उसकी भी केयर की जानी चाहिए. इसलिए मां-पिता बनने के शुरुआती वक्त की नाजुकता पहचानिए. उसे कार्यालयों, दफ़्तरों, सड़कों, पुलिस थानों में खर्च मत हो जाने दीजिए. आपके आने-न आने से पूरे सिस्टम का एक पत्थर भी इधर-उधर नहीं हिलने वाला. आप काम पर नहीं आएँगी तब भी पुल के नीचे से पानी बहना नहीं रुकेगा. नदियाँ तब भी अपनी गति से दौड़ते हुए समंदर में मिल जाएँगी. सड़कों पर उसी तरह का जाम लगेगा, कार्यालयों का बाबू तब भी घूस खाएगा. और बीरू बकरिया की बकरियों का दूध उसके बच्चों को तब भी नहीं मिलेगा. इसलिए मां बनने पर खूब सारी शुभकामनाओं और ढेर सारे स्नेह के बीच यही एक शिकायत है कि अपने अधिकारों को छिनने के बीच, ऐसी भोली तस्वीरें प्यारी भी लग रही हों तब भी अपने नाज़ुक शिशु के अधिकारों को छीनने का अधिकार आपको नहीं है.
मीडिया से अपील है कि ऐसी तस्वीरों को रिपोर्ट करना बंद कर दे, उनके महिमामंडन का मोह त्याग दे. बच्चों के अधिकारों के लिए काम कर रही सरकारी संस्थाओं से अपील है कि गंभीरता से इस प्रश्न पर काम करना चाहिए और निर्ममता के साथ ऐसी माओं और काम देने वाले नियोक्ताओं, कंपनियों, संस्थानों पर न्यूनतम कार्रवाई करनी चाहिए ताकि ये “मूर्खतापूर्ण साहस” नियम न बन जाए. अक्सर हमारी पीढ़ी के ऐब अगली पीढ़ी के लिए परंपरा बन जाते हैं और उससे अगली पीढ़ी के लिए नियम….
(लेखक युवा पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)