क्या कोविड-19 का यह दौर भारतीयों को एहसास कराएगा कि धर्म और जाति नहीं गरीबी और भुखमरी अधिक महत्वपूर्ण है?

संजय वर्मा

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

‘इन दिनों मुझे लॉक डाउन से आने वाली आर्थिक तबाही के बुरे सपने आते हैं। ऐसा लगता है जैसे 20 साल से कोई पार्टी चल रही थी , और अचानक बत्तीयां गुल कर दी गईं हों। 1990 के पहले देखी बेरोजगारी, तंगहाली, भूख की तस्वीरें जिन्हे मैं भूल चुका था, दोबारा दिखाई देने लगी हैं। ऐसे में मैं सहारे के लिए अक्सर अपने कारपोरेट के मित्रों को फोन लगाता हूं। वे मुझे डिप्रेशन से निकलने के लिए तीन गोलियां देते हैं, पहली – दुनिया चीन से नाराज है ,जल्दी ही चीन का सारा बाजार भारत आ जाएगा, इसलिए हमारे लिए कोरोना अभिशाप नहीं वरदान है। दूसरी, भारत निर्यात इकोनॉमी नहीं है, उसकी अर्थव्यवस्था खुद की खपत पर चलती है। और तीसरी डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी कुल जनसंख्या में युवा लोगों का बड़ा प्रतिशत, मतलब खाने वाले कम, कमाने वाले ज्यादा !

क्या सच में ऐसा है?

प्रेम और व्यापार के नियम अलग होते हैं। किसी व्यक्ति या देश से व्यापार करने न करने के फैसले लाभ हानि के आधार पर लिए जाते हैं, जज्बातों की बिना पर नहीं। फिर चीन के खिलाफ है ही क्या? अमेरिका का बयान देखिए। उसमें क्या तथ्य है। बस यही कि आप दुनिया से ग्लव्स और पीपीई किट इंपोर्ट करते रहे और एक्सपोर्ट बंद कर दिया। हमें बीमारी के बारे में नहीं बताया। जैसे किसी ऊबी उकताई पत्नी का उलाहना हो कि – “आपने तो हमें तो बताया ही नहीं… !” और हम कितने मासूम हैं कि सोचते हैं इतनी सी बात पर दुनिया चीन से कट्टी कर लेगी।

चलिए, मान लिया चीन से नाराज होकर दुनिया भारत आना चाहेगी। तो क्या भारत तैयार है? चीन दुनिया की फैक्ट्री है। क्या हमारे कारखाने उस क्वालिटी का और उतना माल बनाने के लिए तैयार हैं? एक फैक्ट्री मालिक होने के नाते मेरा अनुभव यह है कि हम लोग इंजीनियरिंग और खासकर मैन्युफैक्चरिंग के मामले में दुनिया से बहुत पिछड़े हुए हैं। अपनी फैक्ट्री में एक छोटी सी मशीन बनवाने, या किसी डाई को रिपेयर कराने के लिए मुझे जो संघर्ष करना पड़ता है वह मुझे हैरान करता है कि हर साल करोड़ों ग्रैजुएट्स उगलने वाले इस देश के महान शिक्षा संस्थान क्यों कुछ ऐसे लोग नहीं दे पाते जो ठीक से एक डाई भी बना सकें। पिछले 20 सालों की आर्थिक तेजी में जो थोड़ा बहुत कमाल हमने दिखाया है, वह बस सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में है, मैन्युफैक्चरिंग के मामले में हम निकम्मे हैं। क्या ऐसा इसलिए है कि भारत चिंतन करने वालों का देश रहा है। हाथ से काम करने को यहां नीची निगाह से देखा जाता है, इसलिए हमारी आबादी के सारे तेज दिमाग लोग किसी ऐसे पेशे में नहीं जाते जिसमे हाथ का काम हो। वे सिर्फ पढ़ते, सोचते हैं! एक अमूर्त कंप्यूटर प्रोग्राम कोडिकोड करना हमारे लिए अधिक आसान है बजाय रंदा चलाकर एक लकड़ी को सीधा करने से। हमारे सारे शिक्षा संस्थान सिर्फ सोचना सिखाते हैं, करना नहीं! ऐसे में उस चीन से हम कैसे जीतेंगे जो आठवीं क्लास पास करने के बाद ही बच्चे को सीधे ही कोई हुनर सिखाते हैं। वोकेशनल कोर्स कराते हैं।

चीन और भारत

अपनी चीन यात्रा के दौरान मैंने जाना था कि चीन ने अपने हुनरमंदों की इज्जत की। उन्हें उद्यमी बनाया। जबकि हमारे यहां वर्ण व्यवस्था ने हाथ से काम करने वालों को नीचा दिखाया। दूसरी तरफ सरकार ने इनफॉरमल इकोनामी कह कर उनकी बेइज्जती की । सरकारी अफसरों ने उन्हें इतना डराया धमकाया कि वे बड़े होने से डरने लगे । हमारे देश में परंपरा से जो हुनरमंद आते हैं उनकी कद्र बड़ी इंजीनियरिंग इंडस्ट्री्रीज़ ने भी नहीं की। सिर्फ इसलिए क्योंकि ये हुनरमंद एक अलग भाषा में बात करते हैं। उनकी शब्दावली उनकी दुनिया की है। इसलिए हमारे यहां ये दोनों दुनियाऐं अलग अलग समानांतर चलती रही और एक दूसरे को कोई फायदा नहीं पहुंचा पाईं। अगर पढ़े-लिखे इंजीनियर अपना अहंकार छोड़ कर इन दोनों दुनियाओं के बीच में पुल बनाने की कोशिश करते तो आज हम मैन्युफैक्चरिंग के के मामले में इतने पिछड़े ना होते।

अब आइए जिसे हम डेमोग्राफिक डिविडेंड मानकर इतराते हैं, उसकी पड़ताल करें। बेशक हमारे युवा संख्या में बहुत हैं, पर एक बार उसकी क्वालिटी पर भी नजर डालिये। स्कूल कालेजों से कच्ची पक्की परीक्षाएं पास किए यह लोग अब खेती करने में बेइज्जती महसूस करते हैं पर उनके पास ऐसा कोई ज्ञान या हुनर नहीं है जो फैक्ट्रियों के काम का हो। बारहवीं पास बच्चा किराने की दुकान पर सामान का हिसाब भी ठीक से नहीं जोड़ सकता। हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है जो बाजार के काम का हो।

चीन से बराबरी करने का सपना देखने वालों को वहां काम करने वाली महिलाओं की संख्या भी देखना चाहिए। हमने देश की 50% आबादी को बेकार घर पर बिठा रखा है। पिछले कुछ सालों की कालेजों की मेरिट लिस्ट उठा कर देखिए। ज्यादातर गोल्ड मेडल लड़कियों ने हासिल किये हैं। वे लड़कियां दफ्तरों दुकानों में क्यों दिखाई नहीं देती? जो समाज इन गोल्ड मेडलों को बैंगल बॉक्स की मखमली कब्रगाहों में दफन कर देता हो उसे डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात करने का क्या हक है?

महिलाओं के लिये चुनौती

मेरे एक मित्र हैं। उनकी पढ़ी लिखी पत्नी ने उनकी दुकान पर काम करना शुरू किया। पर जल्दी ही हार मान ली। सबसे नजदीकी लेडीज टॉयलेट एक किलोमीटर दूर था। हर बार दुकान के एक लड़के के साथ जाना पड़ता था। आप उनकी असुविधा के अलावा शर्मिंदगी का भी अंदाजा लगाइये। वजहें और भी हैं। हमारे व्यापार जगत की भाषा बेहद चलताउ और अश्लील है। दफ्तर दुकान ऐसी तंग गलियों के अंदर है जो महिलाओं के लिए बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं है। इसलिए सिर्फ वही महिलाएं इस दुनिया में बनी रहती हैं जो मजबूर हैं। एक पितृसत्तात्मक समाज में अंदर बाहर के काम की दोहरी जिम्मेदारी को भी महिलाओं को रन आउट कर देती है।

मगर सरकार की आर्थिक नीतियों के आधार जीडीपी की ग्रोथ का अंदाज़ा लगाने वाला समाज अपनी बुराइयों पर बात करना नहीं चाहता। तरक्की का सारा जिम्मा हमने फाइनेंस मिनिस्टर पर ही डाल रखा है? हम, हमारा समाज, हमारी मान्यताएं ,हमारी संस्कृति ,हमने सबको इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया है। चीन से बराबरी के सपने देखता समाज चीन की कार्य संस्कृति को क्यों नहीं देखता? हमारे कारखानों में कामगारों के साल के औसत कार्य दिवस दुनिया के मुकाबले बहुत कम हैं। व्रत,उपवास, शादी ब्याह, त्यौहार,भोजन भंडारे का एक लगातार सिलसिला है जो हमारे लिए काम से ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता है। होली दिवाली, शादी ब्याह का मौसम, हमारे फैक्ट्री मैनेजर और कंस्ट्रक्शन साइट के सुपरवाइजरों के लिए डरावने ख्वाब की तरह आते हैं, इन सब का मतलब होता है हफ्तों के लिए काम बन्द। भले ही कितने ही जरूरी आर्डर पेंडिंग पड़े रहें।

कारपोरेट के हमारे मैनेजर इंनइफिशिएंट हैं। हमने मैनेजर बनने की एकमात्र योग्यता टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना बना रखी है। ज्यादातर मैनेजर बस यही एक काम जानते हैं, वह भी ठीक से नहीं। कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ने को अपने व्यस्त रहने का प्रमाण मानते, फाइव स्टार होटलों में बेतुके प्रेजेंटेशन करते ये मैनेजर दुनिया मे हो रहे बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते। ज्यादातर कारपोरेट मैनेजर बस एक दूसरे को रिपोर्ट देने का काम करते हैं, जिसमें कोई काम की बात नहीं होती। सरकारी तंत्र की जिन बुराइयों से घबरा कर हम प्राइवेट कारपोरेट की शरण में आए थे, अब वह भी उसी भ्रष्टाचार और अक्षमता के शिकार हो गए हैं। वे रिश्वत नहीं लेते, पर मोटी तनख्वाह लेकर बस एक दूसरे के ईगो को सहलाना, जिम्मेदारी से भागना, निर्णय न ले पाना भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है। यह बात मैं किसी किताब में पढ़कर नहीं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहता हूं।

आर्थिक सुधार और भारत

आप सोचेंगे यदि भारतीय समाज में इतनी बुराइयां हैं तो फिर 20 -30 सालों में हमने इतनी तरक्की कैसे की है? मेरे विचार में इसकी एक बड़ी वजह है ज़मीन का पैसा है। 1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक सुधार लागू किए। उससे विदेशी निवेश आया, फिर अटल सरकार ने बड़े राजमार्ग बनाए, होमलोन सस्ते हुए। इन वजहों से जमीन के दामों में बहुत बड़ा उछाल आया। इसने बड़ी मात्रा में काला धन पैदा किया। यह धन किसी मेहनत या हुनर से कमाया हुआ धन नहीं था। यह जमीन के सट्टे की फसल थी। इस काले धन ने जो डिमांड पैदा की उसके लिए हमारी सप्लाई साइड तैयार नहीं थी। क्योंकि उसके पहले के 20- 25 साल देश में मंदी की वजह से नई फैक्ट्रीयां ,नए कारोबार उस तादाद में नहीं लग पाए थे। रातो रात नई फैक्ट्रियां लगना संभव नहीं थी, इसलिये सप्लाई साइड की इनएफिशिएंसी के बावजूद बाजार उछलता रहा। बाप दादाओं के खेत बेचकर स्कॉर्पियो खरीदने वाला एक नया वर्ग पैदा हुआ। आवारा पूंजी ने अपने लिए नए यार ढूंढ लिए। विदेश यात्राएं, होटलिंग, महंगा इंटीरियर डेकोरेशन, बड़ी कारें, नए मॉडल के मोबाइल। पान ठेलों पर दिन काटने वाले आवारा लड़के जब जमीनों की दलाली में धनकुबेर बने, तो इन नये पीरों को अपने जैसे मुरीद चाहिए थे। उन्होंने आलीशान बंगले बनाए, जिनके बाथरूम में पचास हज़ार का एक नल लगाने को आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाइनर्स ने कला का नाम दिया और बाल बढ़ा कर खुद को विंची और पिकासो के समकक्ष घोषित कर दिया। आर्किटेक्टस के ऑफिस के बाहर ठेकेदार और कंपनियों के सेल्समैन लाइन लगाकर मंगल गीत गाते रहे, ताकि वे अपने देवत्व को भूलकर कहीं गरीबों के लिए अच्छे और सस्ते मकान बनाने की तकनीक ना खोजने में लग जाएं।

पिछले 20 सालों में हमारे डिजाइनर, इंजीनियर और उद्यमियों की ऊर्जा और समय इस आवारा पूंजी की अश्लील चाकरी में बीता। अपने देश की परिस्थितियों और गरीबी के हिसाब से कोई नया प्रोडक्ट या तकनीक ढूंढने में किसी का ध्यान नहीं था। एक पार्टी चल रही थी किसी ने यह नहीं सोचा इस दौरान कुछ ऐसा किया जाए कि पार्टी खत्म ना हो। कोरोना इस तरह से वरदान है कि ईजी मनी के नशे में ग़ाफ़िल हमारे देश की प्रतिभाओं को शायद यह नींद से जगा दे। मजबूरी में ही सही हम अपने कंफर्ट जोन से बाहर आएं। शायद हम सोचे कि ऑपरेशनल एफिशिएंसी क्या है? कि मुंह बनाकर अंग्रेजी बोलना सिर्फ भाषाई योग्यता है, तरक्की के लिए मेहनत भी करना होती है। शायद हम सीखें कि ‘आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग’ का मुहवरा किसी कॉरपोरेट कांफ्रेंस में तालियां हासिल करने कर भूल जाने के लिए नहीं है, अब वह जिंदा बचे रहने की तरकीब है। शायद हमें एहसास हो कि धर्म और जाति नहीं गरीबी और भुखमरी अधिक महत्वपूर्ण है। और इस वक्त हमें एक दूसरे का हाथ पकड़कर इस मुसीबत से पार पाना है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया ने जर्मनी का बहिष्कार कर दिया, तब वहां के इंजीनियरों ने लगभग हर मामले में अपने देश को आत्मनिर्भर बना लिया। हर आपदा हमें झकझोरती है, हमें कंफर्ट जोन से निकालती है । कोरोना में यदि कुछ अच्छा है तो बस यही है!

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)