बेरोज़गारी जैसे वायरस की वैक्सीन क्यों नहीं निकाली?

पुष्परंजन

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पूरे पन्द्रह दिन लगे हैं रेल मंत्रालय को रिएक्ट करने में। घर फूंक तमाशा देखो की राह पर रहे हैं रेल मंत्री। गया में ट्रेन के डिब्बे जब फूंके गये, दर्जनों जगहों पर पथराव का परिदृश्य नुमायां हुआ, जब छात्र रेल की पटरी पर धरना देकर बैठ गये, फिर होश आया कि पांच राज्यों समेत यूपी में चुनाव है। रोको इसे, ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’, रिपीट न हो जाए। शुक्रवार को छात्र संगठनों के बिहार बंद को समर्थन देने की विवशता, महागठबंधन की भी हो गई। सुशील कुमार मोदी जो बिहार से कब के दिल्ली-बदर हो गये, ट्वीट करते हैं कि हमारी रेल मंत्री से बात हो गई, उन्होंने आश्वासन दिया है कि आरआरबी-एनटीपीसी परीक्षा में सूबे के साढ़े तीन लाख छात्रों को सफल घोषित किया जाएगा। साथ ही ग्रुप डी के लिए एक ही परीक्षा होगी।

यह आग तो बिहार के साथ तो यूपी में भी विस्तार ले चुकी है। यूपी शासन रेड अलर्ट पर है। कहां-कहां रोकेंगे श्रीमान? वेकेंसी यदि 1 करोड़, 3 लाख 769 अभ्यर्थियों के वास्ते है, तो साढ़े तीन लाख लोगों को नौकरी देने का ऐलान कर बाकि़यों का क्या करेंगे? दरअसल, सरकार चलाने वाले दायें हाथ को, बायें हाथ के मूवमेंट का पता ही नहीं है। तेज़ रफ्तार वाले सूचना युग में इस सुलगती आग की ख़बर विदेशी मीडिया ने लगातार कवर करना शुरू किया है। इससे भारत में भयावह बेरोज़गारी के मोर्चे पर मोदी के पौने आठ साल की विफलता खुलकर सामने आने वाली है। 2014 में बिहार के चुनावी मंच पर मोदी ने हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का जो अहद किया था, वो सवाल विक्रम और वेताल की तरह केंद्र सरकार के कंधे पर सवार है।

पौने तीन साल पहले, जब जुमलेबाज़ सरकार के पांच साल कट गये थे। एक बार फिर शोशेबाज़ी हुई। 2019 के आम चुनाव से पहले युवाओं में उम्मीद की किरण बंधी कि दो करोड़ रोज़गार न सही, रेलवे में 1 करोड़, 3 लाख 769 लोगों को रोज़गार तो दे रही है। लपक लो इसे। इसके भी आम चुनाव में ख़ूब ढोल पीटे गये, और बीजेपी रेलवे में नौकरी जैसे कई सारे लॉलीपॉप देकर दोबारा से सत्ता में आ गई। बेरोज़गारों के लिए यह पद था, रेलवे ट्रैक को मेंटेन करने वाले हेल्पर- प्वांइट मैन। यानी, चतुर्थ श्रेणी का पद, ‘ग्रुप डी’। इसके लिए 18 से 33 साल का 12वीं पास अथवा कोई भी ग्रेजुएट अप्लाई कर सकता था। इस वास्ते कंप्यूटर बेस्ट दो टेस्ट- ‘सीबीटी-वन और सीबीटी-2’, तदोपरांत शारीरिक योग्यता परीक्षण और अंत में दस्तावेज़ों की जांच व मेडिकल, इससे अम्यर्थियों को गुज़रना था।

वेकेंसी और टेस्ट की तारीखों की मंथर गति को देखकर कछुआ भी शर्म से पानी-पानी हो जाए। 12 मार्च 2019 को पद के वास्ते नोटिफिकेशन होता है, और परीक्षा की तारीख़ तय थी, 14 से 15 जनवरी 2022। दो साल 10 महीने, तीन दिन का इंतज़ार। रेलवे के सोलह ज़ोन में इस वास्ते परीक्षा होनी थी। जनरल साइंस, मैथेमेटिक्स, जनरल इंटेलीजेंस व रिज़निंग, जनरल अवेयरनेस व करेंट अफेयर्स, 90 मिनट में 100 अंकों के प्रश्नों का हल कर परीक्षा में उतीर्ण होना था।

उसके बाद भी परीक्षा लेने के तरीक़ों में गड़बड़ी। बेरोज़गार युवाओं का धैर्य जवाब दे चुका था। वो सड़क पर उतर गये, गया में रेल की बोगी में आग लगी, और दर्जनों जगह ऐसा हुड़दंग हुआ कि रेलवे बोर्ड ने अगली सूचना तक के लिए परीक्षा को स्थगित करने का फैसला ले लिया। हज़ार से अधिक अज्ञात अभियुक्त, यूपी चुनाव में जाने किसे उठा ले जाएं। सुशासन बाबू से पंगा लेने वाले ठिकाने लगा दिये जाएं। ऐसे ही अवसरों के लिए ‘अननेम्ड एफआईआर’ थानों में दर्ज़ किये जाते हैं। कोचिंग चलाने वाले ख़ान सर, झा सर, मिश्रा सर सफाई देते फिरें कि हमने नहीं उकसाया छात्रों को। बावज़ूद इन सबके, आग अभी बूझी नहीं। बिहार में शुक्रवार को बंद के दौरान कई जगहों पर आगजनी की घटनाएं हुई हैं। सोशल मीडिया दावानल फैलाने में पेट्रोल जैसा दरपेश हो रहा है।

ठीक है, आंदोलन को उग्र बनाने वाले तत्वों व रेल संपत्ति को तबाह करने वाले वास्तविक दोषी को शासन पकड़े, मगर प्रश्न यह है कि इस पूरे प्रकरण में रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड की प्रक्रिया को हम क्लिन चिट क्यों दे रहे हैं? इस समय रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के 21 सेंटर कार्यरत हैं। आज़ादी से पहले जुलाई 1942 में इसकी स्थापना हुई थी। 1953-54 में मुंबई, मद्रास, इलाहाबाद और कोलकाता चार जगहों से संचालित होता था रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड। कालांतर में इसके 21 केंद्र हो गये। केंद्र बढ़े, और नौकरी पाने के ख्वाहिशमंदों की भीड़ करोड़ों में बढ़ती चली गई। मगर, नेतागिरी और नौकरशाही की रफ्तार वहीं की वहीं है, अंगरेज़ों के ज़माने वाली।

सवाल कई हैं। 2019 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड नॉन टेक्नीकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) के वास्ते जो वेकेंसी निकाली गई, उसे पूरा करने में तीन साल से अधिक समय क्यों लगने चाहिए? आप इसी रेल संपत्ति को प्राइवेट हाथों में पचासों वर्षों के वास्ते लीज़ पर देते हो, उस प्रक्रिया को पूरी करने में महीना भी नहीं लगाते। ऐसा क्यों? इस कछुआ चाल के लिए केवल रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड, रेल मंत्री ही दोषी हैं, या फिर सर्वोच्च पद पर बैठे पीएम मोदी भी दोषी हैं, जिनके मंगलाचरण के बाद ही किसी भी काम की शुरूआत होती है। देश का चुनावी मंच दीगर तो होता है, दावोस और संयुक्त राष्ट्र तक पीएम मोदी अपनी सरकार की उपलब्धियों का ढोल पीट आते हैं, ऐसे में ज़िम्मेदारी लेनी तो बनती है न?

बात केवल रेलवे में नियुक्तियों तक सीमित नहीं है, इस देश में बेरोज़गारी एक ऐसा वायरस बन चुका है, जिसकी वैक्सीन इज़ाद करने में सरकारें निकम्मी साबित हुई हैं। इंटरनेशन लेबर आर्गेनाइजेशन, ‘आईएलओ’ ने 2020 को जो डाटा पिछले साल जारी किया था, उसमें पूरे विश्व के स्तर पर बेरोज़गारी दर 6.47 था और भारत में 7.11 प्रतिशत। 2022 के आरंभ में ही इसका ग्राफ आठ प्रतिशत को पार कर चुका है। दुनिया को छोड़िये, पिछले साल की अवधि में बेरोज़गारी की स्थिति की तुलना हम केवल दक्षिण एशियाई देशों से कर लेते हैं। बांग्लादेश 5.3 फीसद, पाकिस्तान में 4.65 फीसद, 4.48 श्रीलंका में, नेपाल में 4.44, और भारतीय सहायता से अर्थव्यवस्था चला रहे भूटान में बेरोज़गारी 3.74 प्रतिशत ‘आईएलओ’ ने बताया था। टीवी पर बेरोज़गारी बहस का प्रमुख विषय नहीं है। जीडीपी पर शायद ही कभी बात होती हो। अयोध्या में कितने लाख दीये जलाये गये, राम मंदिर निर्माण पर कितने हज़ार करोड़ ख़र्च करने हैं, मथुरा-काशी, जनरल रावत से जिन्ना तक बहस का विषय है। महंगाई, जीडीपी-बेरोजगारी जैसे विषय मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए अछूत से हो गये हैं।

आप किस बात के लिए फुल कर कुप्पा होते हो? रोज़गार देने में विफल रहने के वास्ते बहाना बनायेंगे कोविड महामारी का, तो मित्रों इससे पूरी दुनिया जूझ रही है। अमेरिका में भी बेरोजगारी दर पिछले साल जनवरी में 6.3 प्रतिशत को छू रही थी, जिसे 2021 के आख़िर में 3.9 फीसद पर ले आया गया। मगर, इसके उलट भारत का बेरोज़गारी ग्राफ ऊंचाई छूता ही चला गया। सच यह है कि कोविड के बहाने आपने देश में खरबपतियों की संख्या बढ़ाई है। पिछले हफ्ते ही ‘दावोस ऑक्सफैम रिपोर्ट-2022’ आई है। देश में जितने खरबपति थे, उसमें 40 और नये चेहरे जुड़ गये। लोक कल्याण मार्ग वाले हमारे ‘अलीबाबा’ बतायेंगे नहीं, जब देश में अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी हुई है, बेरोज़गारी विकराल रूप घारण कर चुकी है, पिछले वित्तवर्ष में 142 खरबपति भारत में थे, फिर उनमें चालीस और कैसे जुड़े? यानी, इस देश में एक क्लास है, जिसके कल्याण के वास्ते आप योजनाएं बनाते रहे, और मंच पर नारे देते हो, ‘सबका साथ-सबका विकास।’

सबसे हैरानी की बात यह है कि रोज़गार राष्ट्रव्यापी आंदोलन का विषय क्यों नहीं बनता? जय प्रकाश नारायण ने उस चिंगारी को पहचान कैसे ली थी , जो नवनिर्माण आंदोलन के रूप में गुजरात की धरती पर सुलगती जा रही थी। महंगाई, आर्थिक भ्रष्टाचार से त्रस्त गुजरात का मिडिल क्लास बड़ा कारण था,  अहमदाबाद के एल. डी. कालेज ऑफ इंजीनियरिंग के हॉस्टल में मेस चार्ज 20 फीसद बढ़ाने की मामूली सी घटना। छात्र असंतोष की छोटी सी चिंगारी, दावानल रूप धारण कर सकता है। चिमनभाई पटेल की सरकार गिर सकती है, ऐसा जेपी जैसे लोगों ने कर दिखाया था। दो साल चले देशव्यापी आंदोलन ने इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने पर विवश कर दिया। निरंकुश सत्ता समाप्त हो गई। वैसी दृष्टि से संपन्न विज़नरी नेता कहां बिला गये? चुनावी मंचों पर नौकरी देने का वादा करनेवाले नेता बोलते हैं, ‘नौकरी किसलिए? आन्ट्रप्रेन्योर(उद्यमी) बनो।’ अर्थात, नौकरी देने वाला बनो, मांगो मत। सच पूछिये, 1973 के बाद कोई अखिल भारतीय छात्र आंदोलन हुआ ही नहीं। लपटें उठती हैं, कुछ राज्यों तक सिमट कर रह जाती हैं। सर्वस्वीकृत, विश्वसनीय, विज़नरी नेता नहीं दिखते।

इस देश में विगत पचास वर्षों में बंजर हो चुकी है आंदोलन की ज़मीन। यों कहिए, राजनीति भकचोन्हर हो चुकी है। नौकरी-रोज़गार जैसा बुनियादी सवाल नहीं दिखता। बाज़ार वाले बोलते हैं, ‘जो दिखता है, वहीं बिकता है’। राम मंदिर, हिंदू-मुसलमान, जिन्ना-पाकिस्तान-टीपू सुलतान दिखता है। मोदी जी का बदलता लिबास दिखता है, टीवी-रेडियो व ट्वीट पर आधा सच, आधा झूठ दिखता है, और वही बिकता है।

कोई कह सकता है, ‘अन्ना आंदोलन को क्यों भूल जाते हैं?’ सच यह है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में मसनद पर लेटा अन्ना आंदोलन, सलवारी बाबा से लेकर सत्ता के गलियारों तक ही सिमट कर रह गया था। पटना के गांधी मैदान में चले आंदोलन ने जो अखिल भारतीय स्वरूप दिखाया था, उसकी तुलना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ईंधन से चले रामलीला मैदान के धरने से नहीं की जा सकती। आज की तारीख में अन्ना की हालत क्या है? देखना है, तो रालेगन सिद्धि जाकर देखिये। वो न गांधी बन सके, न जेपी !