कृष्णकांत
मुंशी प्रेमचंद ने 1933 में लिखा था, ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है।’
आज तो राष्ट्रवाद का करेला सांप्रदायिकता की नीम पर चढ़ गया है. आज का भारत राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता- दोनों से एक साथ ग्रस्त है. अब यह महामारी की शक्ल अख्तियार कर रहा है. मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? क्योंकि यह सेना की बात करता है, लेकिन सियाचीन के सैनिकों को ढंग से राशन और कपड़े नहीं पहुंचाता. क्योंकि यह युवाओं की बात करता है लेकिन पौने चार करोड़ युवाओं का रोजगार छीन कर उन्हें बेरोजगार कर देता है. क्योंकि यह किसानों की बात करता है लेकिन किसानों के नाम पर चल रही योजनाओं में छल करता है. क्योंकि यह गरीबों की बात करता है, लेकिन पांच साल की संतोषी को ‘भात भात’ चिल्लाते हुए भूख से मरने देता है. क्योंकि यह विकास की बात करता है लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को गर्त में पहुंचा देता है. क्योंकि यह भ्रष्टाचार के खिलाफ दिखता है, लेकिन जनता से सूचना का अधिकार छीन लेता है. क्योंकि यह गांधी को नमन करता है, लेकिन गांधी के हत्यारे का महिमामंडन भी करता है.
यह सुरक्षा की बात करता है लेकिन पहले से मौजूद आर्थिक और सामाजिक सुरक्षाएं छीन लेता है. यह हिंदुओं की बात करता है लेकिन अपने से असहमत हिंदुओं का ही दमन करता है. यह लोकतंत्र की बात करता है लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने पर भी गोली चलाता है और संपत्ति जब्त कर लेता है. यह जनता का हितैषी दिखता है लेकिन वास्तव में जनता के हितों पर ही कुठाराघात करता है.
दिखावे के लिए अहिंसा की बात करने वाला राष्ट्रवाद अगर जनता के खिलाफ बंदूक उठा ले तो वह ‘कोढ़’ नहीं, महामारी है. कोरोना वायरस की तरह की महामारी. राष्ट्रवाद वह था जिसने लाखों लोगों को ब्रिटेन जैसे दैत्य के सामने खड़े होने का साहस दिया, जिसने हमारे देश को आजादी का स्वप्न देखना सिखाया, जिसने हमें आत्मनिर्भर होने का सलीका सिखाया, जिसने हमें एक गुलाम और गरीब देश से एक महाशक्ति बनने की ढ्यौढ़ी तक पहुंचाया.
उसमें भी हजार खामियां थीं, उसकी भी हजार आलोचनाएं हैं, लेकिन वह इस कदर विध्वंसक तो न था. आज हम पार्टियों के चश्मे से बाहर देख ही नहीं पाते. प्रेमचंद आज जीवित होते तो अर्बन नक्सल गैंग का सरगना बताकर जेल में डाल दिए गए होते.
(लेखक युवा पत्रकार एंव कहानीकार हैं)