भोपाल: ताज-उल-मसाजिद यानी मस्जिदों का ताज, रियासतें भोपाल की चौथी हुक्मरां नवाब शाहजहां बेगम ने जो ख्वाब देखा था वह उनके जीते जी पूरा न हो सका। बादशाह शाहजहां द्वारा बनाई गई दिल्ली की जामा मस्जिद को देखने के बाद ही बेगम ने भोपाल में इस मस्जिद की तामीर अपनी रिहाइश शाहजहांनाबाद ताजमहल के पास ही इसे बनवाना शुरू किया। अगर ताज-उल-मसाजिद उनकी उम्मीदों और आरजुओं के मुताबिक बनती तो आज दुनिया की पहली मसाजिदों में शुमार होती। आज भी यह दुनिया की चुनिंदा मसाजिदों और एशिया में छठवीं सबसे बड़ी मसाजिद के रूप में प्रसिद्घ है। उस दौर के मशहूर आर्किटेक्चरों से इसका नक्शा तैयार करवाया गया था। सफेद संगमरमर की तीन बुलंद गुंबदों और दो आसमान छूती गुलाबी मिनारें इसकी खासियत हैं।
क्यों चर्चा में है ताज-उल-मसाजिद
हाल ही में कर्नाटक में हिंदू मेला में दुकान लगाने वाले मुस्लिम दुकानदारों को प्रतिबंधित कर दिया। मेला समिति ने यह फैसला हिंदुत्तववादी संगठनों के विरोध के चलते लिये। दरअस्ल कर्नाटक में हाल ही में हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला आया था, जिसमें हाई कोर्ट ने हिजाब को ग़ैर इस्लामी करार दिया था, इस फैसले के विरोध में मुस्लिम संगठनों ने कर्नाटक बंद का आह्वान किया, जिसमें मुस्लिम दुकानदारों ने अनपी दुकानों को बंद रखा। मुस्लिम दुकानदारों द्वारा दुकानें बंद करने के विरोध में तथाकथित हिंदुत्तवावादी संगठनों ने मेला समिति पर दबाव बनाया कि वे मुस्लिम दुकानदारों को मेले में दुकानें लगाने से प्रतिबंधित करे।
बहरहाल ताज-उल-मसाजिद एशिया की छठवीं सबसे बड़ी मस्जिद है। सैकड़ों लोगों को एक साथ इमाम की आवाज सुनाई दे, इसके लिए इसमें आवाज गूंजने के सिस्टम को ऐसा बनाया, जिसमें आखिरी आदमी तक साफ आवाज सुनाई पड़े। इस तकनीक को समझने आज भी यहां आर्किटेक्चर और इतिहास के कई विद्यार्थी आते हैं।
इस जाम मस्जिद की ख़ासियत यह है कि इस मस्जिद के ग्राउंड फ्लोर पर और पूरे कॉम्पलेक्स में तक़रीबन एक हज़ार दुकानें हैं। प्रथम तल पर मस्जिद में नमाज़ होती है। इन हज़ार दुकानों में से मात्र एक प्रतिशत दुकानें ही मुस्लिम लोगों के पास हैं, बाक़ी की 99% दुकानें हिंदू और जैन समाज के पास हैं। इन दोनों वर्गों के पास ये दुकानें 8-10 पीढ़ी से किराए पर चली आ रही हैं।
सुबह दुकान खोलने से पहले हर हिंदू,जैन रोज़ाना मस्जिद के एकदम नीचे अपनी अपनी दुकानों में पूजा अर्चना करते हैं, जिसका आजतक किसी मुस्लिम ने कभी कोई ऐतेराज़ नहीं किया। मस्जिद के आसपास शाम का नज़ारा तो ऐसा होता है कि सभी ग़ैर मुस्लिम मग़रिब की अज़ान के साथ ही अपनी दुकानों की लाईट जलाते हैं, एक तरफ़ नमाज़ हो रही होती है और दूसरी तरफ़ दुकानों में पूजा और आरती होती रहती है। दशकों से सब मिलजुलकर हंसीख़ुशी रहते आ रहे हैं।
ताज-उल-मसाजिद की बिल्डिंग में लगीं दुकानों को ध्यान में रखते हुए कर्नाटक के तटीय जिलों में कुछ मंदिर परिसरों और धार्मिक सभाओं में मुस्लिम व्यापारियों को दुकानें और स्टॉल लगाने से रोके जाने की घटना पर नज़र डालिये। हाल में, कर्नाटक के मदिकेरी जिले में हिंदू कार्यकर्ताओं ने शनिवार को सोमवरपेट तालुक में आयोजित एक सम्मेलन में मुस्लिम व्यापारियों को अपना व्यवसाय करने का विरोध प्रदर्शन किया था. राजनीतिक स्वार्थ के लिये समाज में अलगाव पैदा करने वाले लोग न तो धर्म के हितैषी हो सकते हैं, और न देश के।
पैसे की कमी के कारण रुका था काम
मस्जिद के उत्तरी हिस्से में पर्दे के खास इंतजाम के साथ जनाना नमाजगाह भी बनी है। उस दौर में यहां औरतें भी नमाज अदा करतीं थीं। बेगम का ख्वाब पूरा करने सीहोर, रायसेन और दमोह से खास पत्थरों को बुलवाया गया था। वर्ष 1868 में इसकी तामीर शुरू हुई, जो हजारों मजदूरों के दिन-रात काम करने के साथ 1901 तक 14 साल तक जारी रही। सुल्तान शाहजहां बेगम का गाल के कैंसर की वजह से इंतकाल हो गया, लिहाजा उनका यह ख्वाब अधूरा रह गया। कुछ समय बाद उनके नवासे और भोपाल नवाब हमीदुल्लाह खान ने भी इसमें कुछ काम करवाया, लेकिन पैसों की कमी के कारण फिर काम रुक गया।
मदीने के बाद सबसे ज्यादा रकबा
करीब पचास सालों के बाद इसका जिम्मा आलिमे दीन मौलाना इमरान खान नदवी के हाथों आया और उन्होंने इसमें 25 साल दिन-रात मेहनत कर 1958 में इसे मुकम्मल करवाया। दुनिया में इसकी पहचान आलमी तब्लीगी इज्तिमे के लिए भी होती रही है, जो 1948 से 2001 तक यहां होता था। इससे जुड़ा हुआ मोतिया तालाब वुजु करने के लिए बनाया गया था। मरहूम अख्तर हुसैन ने अपनी किताब में जिक्र करते हुए लिखा है कि मोतिया तालाब और ताजुल मस्जिद का कुल रकबा 14 लाख 52 हजार स्क्वायर फीट है, जो मदीने के बाद सबसे ज्यादा है।