आप अपने इर्द गिर्द के लोगों को तेज़ी से एक ऐसे मनोरोग का शिकार होते देख रहे हैं जिसमें व्यक्ति को लगने लगता है कि अमुक जाति, अमुक धर्म या अमुक नस्ल से जुड़े लोग उसकी सारी मुसीबतों और कठिनाइयों के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसा सोचने वाले कोई भटके हुए या मंदबुद्धि लोग नही हैं। जिनके पास यूनिवर्सिटीज़ की डिग्रियां हैं, जिन्हें जीवन में सीखने समझने का खूब मौका मिला है, वो भी पागलों की इस भीड़ में शामिल हैं। जिनके पास नोकरियां नहीं हैं, आय का कोई ज़रिया नहीं है जो बहुत परेशानी में दिन गुज़ार रहे हैं वो भी इस भीड़ का हिस्सा हैं। दुनिया के बेहतरीन दिमाग के लोगों ने लोगों को पागल बना देने वाली इस सियासत को डिज़ाइन किया है जिससे किसी देश या समाज के बड़े हिस्से में ऐसी सोच विकसित होती है कि कोई या कुछ लोग अपने ही जैसे अपने ही बीच के लोगों को अपना दुश्मन मानने लगते हैं। लोगों को पागलपन की हद तक बीमार बना देने वाली इस सियासत के तीन पक्ष हैं।
प्रथम किसी जनसमूह के नितांत भावनात्मक पक्ष की पहचान करना और उसे ही उसके वजूद की बुनियाद साबित करना, जर्मनी में ‘जर्मन नस्ल की सर्वोच्चता’ और भारत में ‘हिंदुत्व का गौरव’ ऐसी ही नकली भावनाएं हैं। दूसरा पक्ष है कि इसे और इसको सपोर्ट करने वाली सूचनाएँ लगातार प्रसारित करना, ऐसी सूचनाएं न हों तो मिथ्या सूचनाएं गढ़ना और उन्हें प्रसारित करना। भारत में अख़बार और टेलिविज़न आज यही कर रहे हैं। तीसरा पक्ष है कि इस पूरे प्रोजेक्ट को बाधित करने वाली सूचनाओं को रोक देना। यही नहीं जो इस नफरत पैदा करने के प्रोजेक्ट में बाधा पहुंचाएं उन्हें नैतिक रूप से बदनाम करना और उन पर हमले करवाना। आप देखते हैं कि भारत की मीडिया सत्तापक्ष के विरोध में बोलने वालों की बातों को तवज्जो नहीं देती, हाँ विपक्ष की आलोचना पर ज़रूर खूब मेहनत करती है। इसी तरह नेहरू परिवार को लगातार बदनाम करने की कोशिशें भी इसी सियासी हथकंडे का उदहारण हैं।
इस तरह की सियासत के लिए अमूमन समाज में पहले से ही मौजूद अंतर्विरोधों का इस्तेमाल किया जाता है, ये हो सकता है कि ये अंतर्विरोध मामूली हो, लेकिन जब ये सियासत का हिस्सा बनते हैं तो इन्हें खूब बढ़ावा दिया जाता है। समाज में मौजूद ऐसे ही कुछ अंतर्विरोधों का उदहारण देख लेते हैं जिसे नफ़रत आधारित सियासत में इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका में लम्बे समय तक काले लोगों को सामान्य मनुष्य नहीं समझा गया, यहाँ तक कि आज भी वहां के प्रशासन में ऐसे लोग हैं जो उनसे भेदभाव करते हैं और समाज में भी ऐसा भेदभाव करने वालों की कमी नहीं है। यहाँ बहुत से गोरे लोगों को लगता है कि काले लोग उस तरह के मनुष्य नहीं है जैसे कि गोरे लोग हैं, बहुत दिनों तक गोरे लोगों के एक बहुत बड़े हिस्से को लगता रहा कि उनका जन्म ही शासन करने के लिए हुआ है और काले लोग उनकी सेवा के लिए हैं। गोरेपन का ये अहंकार कई तरह के हिंसात्मक आन्दोलनों का आधार भी बना। अमेरिका में तो सदियों तक काले लोगों को गोरे लोगों के ही जैसे अधिकार हासिल ही नहीं थे। फ़िलहाल अमेरिका में आज कानून के समक्ष दोनों सामान हैं लेकिन समाज और प्रशासन में ऐसे लोग हैं जो इस समानता को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं।
अरब में भी काले और गोरे के भेद का लम्बा इतिहास है, हलांकि अरब, अफ्रीका और एशिया का गोरा व्यक्ति यूरोप और अमेरिका के गोरों की नज़र में काला ही होता है। अरब में पैगम्बरे इस्लाम ने साफ़ साफ़ कहा कि चमड़ी के रंग की बुनियाद पर कोई बेहतर या बद्तर नहीं होता और उन्होंने हज़रत बिलाल हब्सी को समाज में बेहतर मक़ाम देकर मिसाल भी पेश की। जर्मनी में हिटलर ने आर्य नस्ल की एक अलग पहचान प्रस्तुत की और उन्हें ही दुनिया पर हुकूमत करने के लायक माना। आर्य नस्ल की उसकी परिभाषा में यूरोप के अधिकांश लोग नहीं आते थे। उसकी इस सनक ने यूरोप और दुनिया को भरी नुकसान पहुँचाया।
भारत में शूद्र हो या ब्राह्मण, आज कम से कम चमड़ी के रंग के आधार पर दोनों में कोई भेद नहीं बचा है। लेकिन सदियों से शूद्रों को सम्पदा और सम्मान से वंचित रखा गया, उन्हें शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था, बहुत से कौशल जो दलक (सवर्ण) जातियों के लिए अरक्षित थे, शूद्र उन्हें नहीं सीख सकते थे। देश आज़ाद हुआ तो आरक्षण के माध्यम से शूद्रों के पिछड़ेपन और सदियों से मौजूद भेदभाव को मिटाने की कोशिश हुई लेकिन देश का सवर्ण या दलक जातीय समूह हमेशा इसका विरोध करता रहा। आज भी किसी विभाग में शूद्र समूह के उतने लोग नज़र नहीं आते जितने कि आरक्षण के अनुपात में होने चाहिए। जाति आधारित अन्याय को मिटाने की तमाम कोशिशें देश में आज भी सफल नहीं हो पा रही हैं और जो लोग इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं, वो किसी हद तक सफल हो रहे हैं। कम से कम सामाजिक रूप से जाति व्यवस्था को अभी तक कोई नुकसान नहीं हुआ है और लगता है कि समाज सदियों तक इस अन्याय को ढोने के लिए तैयार है। जाति, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर मनुष्य मनुष्य के बीच व्याप्त असमानता के ये कुछ उदाहरण हैं।
भारत में जातिगत अंतर्विरोध तो है लेकिन 1857 के बाद कोशिश करके हिन्दू बनाम मुसलमान का अंतर्विरोध भी पैदा किया गया जो बाद के भारत की सियासत का मूलाधार बना। इसके आधार पर जहाँ पाकिस्तान जैसा मुल्क बना वहीँ भारत ने भले ही सेक्युलर रहने का फ़ैसला किया लेकिन धर्म आधारित सियासत ने देश को सेक्युलर रहने नहीं दिया। इस पर पिछले लेखों में बात हुई है। पिछले लगभग 40 सालों में जब सियासत जनसरोकार के मुद्दों से भटक गयी तो उसे जातीय और धार्मिक सियासत में पनाह लेना ही था। हम देख रहे हैं कि हिन्दू बनाम मुसलमान के अंतर्विरोध को सियासत ने इस्तेमाल करते हुए जातीय अंतर्विरोधों का इलाज किये बिना ही उन्हें धार्मिक सियासत में समेट लिया। आज वही लोग हिंदुत्व की सियासत के सिपाही हैं जिन्हें जातिव्यवस्था में मनुष्य तक नहीं समझा गया।
इस सियासत के पैदा होने और फलने-फूलने की भी एक खास परिस्थिति होती है। जैसे, राजसत्ता जब जनसरोकारों को पूरा नहीं कर पाती तब जनता अपने हुक्मरानों से बग़ावत करती है, अभी तक दुनिया में ऐसा कोई हथियार नहीं बन पाया है जो जनाक्रोश को पूरी तरह ख़त्म कर दे, इसलिए जनाक्रोश को दबाने या भटकाने के लिए एक मानसिक हथियार की खोज की गई, वो है नस्ल, भाषा या धर्म के नाम पर लोगों के अंदर पागलपन भरना और फिर उन्हें आपस में ही लड़ा देना। सूचना क्रांति ने इस काम को बहुत आसान बना दिया है। अब सवाल पैदा होता है कि ऐसी सियासी लड़ाई पैदा ही क्यों होती है और वो कौन सी परिस्थितियाँ हैं जिनमें ऐसी लडाइयों को सफ़लता मिलती है?
जैसा कि मैंने पहले ही स्पष्ट किया कि ऐसी लड़ाई के लिए समाज में पहले से ही मौजूद किसी अंतर्विरोध का इस्तेमाल किया जाता है। दो उदाहरण लेते हैं और इन्हीं के आधार पर समझने की कोशिश करते हैं। पहला उदहारण जर्मनी का। हिटलर जब सत्ता में आया तो जर्मन मानस प्रथम आलमी जंग में यूरोप के देशों के जर्मनी के प्रति व्यवहार से दुखी था, इसके अलावा यहूदी समुदाय जर्मनी में ठीक ठाक और संपन्न समुदाय था। हिटलर ने जर्मन नस्ल को श्रेष्ठ और शासन करने के लिए बनी नस्ल के रूप में पेश करते हुए जर्मनों के अहंकार को सहलाना शुरू किया और यहूदियों को एक बुरी कौम के रूप में पेश करने की कोशिश की। इन दोनों मोर्चों पर खूब काम किया, प्रचार विभाग ने इसमें ही पूरी ताकत झोंक दी और उस दौर की मीडिया को भी इसी एक काम में लगा दिया गया। इसका परिणाम क्या हुआ, इसके लिखित ब्योरे मौजूद हैं, जागरूक पाठकों को इन्हें पढ़ना चाहिए।
लेकिन सवाल ये है कि जर्मन नागरिकों का सपना क्या था जिसके लिए उन्होंने हिटलर का गुलाम बन जाना स्वीकार किया? आपको जानकर हैरानी होगी कि ये सपना था कि “अच्छे दिन आयेंगे” अच्छे दिन का अर्थ था कि जीवन की मूलभूत सुविधाएँ सभी को समान रूप से हासिल होंगीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पूंजीपति, वैज्ञानिक और जर्मनी का प्रबुद्ध वर्ग बड़े पैमाने पर हिटलर के साथ था बावजूद इसके जर्मन जनता तबाह हो गयी, देश के दो टुकड़े हुए और लाखों लोग मारे गये। फ़िलहाल जर्मनी हिटलर के दिए घावों को भुलाने की कोशिश कर रहा है।
दूसरा उदाहरण भारत से लेते हैं, भारत में मुस्लिम विरोधी नफ़रत एक सियासी हथियार है, इस पर वैसे तो एक सदी से काम हो रहा है लेकिन पिछले लगभग 40 सालों में मुस्लिम विरोधी नफ़रत एक सियासी टूल के रूप में इस्तेमाल करने वाली ताकतों को सफ़लता दिलवा रहा है। अगर आप गौर से देखें तो पिछले लगभग 40 सालों में ही जनता को राजसत्ता से जो सुविधाएँ मिलती थीं, उनमें लगातार कमी होती गयी है, एक तरफ़ लोगों का शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा है तो दूसरी तरफ नोकरियां लगातार घटती चली गयी हैं, इसी तरह शिक्षा और चिकित्सा के बुनियादी संसाधन लगातार घटते चले गये हैं। अब तक सरकारों ने जो उपक्रम बनाये थे, उनको भी निजी हाथों में सौंपने की आवाज़ उठने लगती है और इसी दौर में भ्रष्टाचार के नये नये कीर्तिमान स्थापित होते हैं।
जाहिर सी बात है कि अब राजसत्ता जनसरोकारों पर खरी नहीं उतर रही थी। इसलिए आप देखते हैं कि कांग्रेस के दौरे हुकूमत में बाबरी मस्जिद का ताला खोल कर वहां पूजा करने की इजाज़त दी जाती है। ये एक ऐसा मुद्दा था जिसे जनता भूल चुकी थी, लेकिन अब जब राजसत्ता जनता को कुछ देने के बजाय दिए हुए को छीनने जा रही थी तो जनता को उलझाने के लिए कुछ करना था, लिहाज़ा बाबरी मस्जिद का ताला खोल कर ये कोशिश की जाती है। देश भर में इसके इर्द गिर्द सियासत को खड़ा करने की कोशिश होती है। यहाँ भी ये याद रखने की ज़रूरत है कि साम्प्रदायिक सियासत ने श्रीमती इंदिरा गाँधी की जान ली थी, बावजूद इसके उनके सुपुत्र इसी सियासत को आगे बढ़ाते हैं। सियासत ही उनकी भी जान लेती है लेकिन साम्प्रदायिक सियासत को लगाम नहीं लगाया जाता। ।।।और एक दिन बाबरी मस्जिद गिरा दी जाती है। हज़ारों लोगों की जान जाती है, अरबों रूपये की सम्पदा का नुकसान होता है लेकिन भारत की सियासत पूरी तरह धर्म और जाति के मुद्दे पर शिफ्ट हो जाती है। जिन लोगों को शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और शांतिपूर्ण जीवन के लिए संघर्ष करना था वो मुसलमानों को सबक सिखा रहे हैं। लेकिन इस बीच जिनका आप कुछ साल पहले नाम तक नहीं जानते थे दुनिया के अमीरों में शामिल हो गये, सरकारी उपक्रम औने पौने दामों में बिक रहे हैं, लाखों करोड़ के घोटाले हो रहे हैं, जिनके पास नोकरी थी उनकी भी नोकरी छूट रही है। देश का भविष्य अंधकारमय है लेकिन देश के नौजवान मुसलमानों को सबक सिखा रहे हैं लिहाज़ा राजसत्ता को कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।
यहीं पर ये भी समझ लेते हैं कि ऐसा होता है ही क्यों है ! दरअसल, आज पूरी दुनिया में जो राजनीतिक व्यवस्था क़ायम है, इसे पूंजीवाद कहते हैं। इस व्यवस्था में उत्पादन का आधार मुनाफ़ा है। सरकार पूंजीपति के साथ मिलकर उनके मुनाफ़े को लगातार बढ़ाने की कोशिशों में शामिल होती है। पूंजीपति जो भी उत्पादित करता है उसे बाज़ार में बेचता है, लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से खरीदते हैं। लेकिन पूंजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हासिल करने में जिस चक्रव्यूह में फंसता है उसके कारण लोगों की ख़रीदने की क्षमता कम होती जाती है। लेकिन पूंजीपति और उसके लिए काम करने वाली सरकारों को पूंजीपति के मुनाफ़े की फ़िक्र होती है आम जनता की नहीं, ऐसे में जनता की ओर से बग़ावत न हो जाये, इसलिए आम लोगों को धर्म और नस्ल आदि की बुनियाद पर लड़वाने की कोशिश होती है। यहाँ एक सवाल ये हो सकता है कि पूंजीपतियों के मुनाफ़े को समर्पित इस व्यवस्था में आज ही दिक्क़त क्यों आ रही है? इसका ज़वाब ये है कि मुनाफ़े को समर्पित व्यवस्था में भी एक समय जनता के लिए कुछ कल्याणकारी काम करने का स्कोप रहता है लेकिन पूंजीवाद के विकास में ये स्कोप लगातार घटता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब इस व्यवस्था से जनता का कुछ भला होने के बजाये नुकसान होने लगता है। आज पूंजीवाद उसी अवस्था में पहुँच चुका है जहाँ अब इससे आम जनता का कोई भला नहीं हो सकता बल्कि जब तक ये जीवित रहेगा दुनिया को बरबाद ही करेगा। (पाठकों को इस विषय पर और जानकारी करनी चाहिए)
पूंजीवादी लूट को बचाए रखने के लिए खड़ी की गयी इस तरह की लड़ाई की अर्थवत्ता को समझना बहुत आसान है। बस किसी जाति, मज़हब या नस्ल आदि से नफ़रत और इस नफ़रत की बुनियाद पर उन पर हमला करने के बजाय, रुक कर सोचिये कि क्या ऐसी कोई लड़ाई आर्थिक रूप से आपको समृद्ध बनाती है? या किसी भी रूप में ऐसी लड़ाई से आपका, परिवार का, समाज का, पर्यावरण का या देश का भला होता है? इस तरह के प्रश्नों के सारे उत्तर नकारात्मक होंगे फिर भी ऐसा कर पाना ही आज सबसे ज़्यादा मुश्किल काम है। आप देखेंगे कि जाति और धर्म आधारित पूर्वाग्रह के शिकार वो लोग भी हैं जो स्कूल और यूनिवर्सिटीज़ में शिक्षक हैं। ये बड़े अफ़सोस की बात है कि इन्हीं के हाथ में पीढ़ियों को गढ़ने की जिम्मेदारी है। वामपंथी राजनीति करने वाले जिन्होंने धर्म और ईश्वर को कब का दफना दिया है अगर वो भी इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिलें तो समझ सकते हैं कि इस सियासी टूल में कितनी ताकत है!
फिर भी इस सियासत के पर्दाफास का रास्ता यही है कि आप जानें कि नफरत की आधारशिला पर आधारित कोई भी सियासत आपके जीवन को समृद्ध नहीं करती, उल्टे ये व्यक्तित्व निर्माण को ही दूषित करती है, व्यक्ति, परिवार, समाज को खंडित करती है, एक बार ये सियासत किसी मुल्क़ के आधी आबादी पर भी असरंदाज़ हो जाये तो उसकी कई सदियां इस ज़हर से मुक्त नहीं हो पातीं। इसलिए जब आप भावनात्मक रूप से विचलित होकर जाति या धर्म आधारित किसी सियासत का हिस्सा बनने की सोचें तो ये सवाल ज़रूर पूछें कि ये सियासत आपको और आपके भविष्य को किधर लेकर जा रही है!
यहीं पर ये बात भी समझने की ज़रूरत है कि धर्म किसी इन्सान का निजी मामला है, न हमें किसी के मज़हबी मामलात में दख़ल देना है और न ही अपने मज़हबी मामलात को किसी और पर थोपना है। जितनी अच्छाइयां या बुराइयां आपके मज़हब में हैं उतनी ही दूसरों के भी मज़हब में हैं। इसी तरह आप महज़ इसलिए बेहतर नहीं हो जाते कि आपका रंग गोरा है या आप पुरुष हैं या आपका जन्म तथाकथित किसी बड़ी जाति में हुआ है, इसी तरह आप बुरे भी नहीं हो जाते अगर आप काले हैं, स्त्री हैं या किसी ‘छोटी’ जाति में आपका जन्म हुआ है। शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा और रोज़गार हम सबकी साझा ज़रूरतें हैं, इनके लिए हमारी साझा लड़ाइयों को कमज़ोर करने के लिए ही मज़हब और जाति की बुनियादों पर हमें लड़ाया जाता है। आप चाहें तो इस लड़ाई से इनकार कर सकते हैं!