हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यूं हो?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी इस समय दिल से किन लोगों को धन्यवाद- धन्यवाद कह रहे होंगे? निश्चित ही रूप से प्रधानमंत्री मोदी या अमित शाह को नहीं। अपनी पार्टी के किसी और नेता को नहीं। बल्कि कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को। एक दो नहीं बल्कि पूरे तीन नेताओं को। अखिलेश यादव का जिन्ना संबंधी बयान जो काम नहीं कर पाया। वह इस समय गैर जरूरी तौर पर लाई सलमान खुर्शीद की किताब और उस पर गुलाम नबी आजाद का त्वरित गति का ट्वीट और राशिद अलवी का भाषण कर गया। योगी जो पिच यूपी चुनाव से पहले बिछाना चाहते थे वे अमित शाह शुक्रवार, नमाज, हाई वे की कहानी बनाकर भी नहीं बिछा पाए थे। खुद वे अब्बाजान और अखिलेश के उससे भी आगे निकलकर जिन्ना तक पहुंचने के बाद भी नहीं बन पाई थी। वह एक झटके से कांग्रेस के इन नेताओं ने ( इनके नाम के आगे क्या विशेषण लगाएं? तीनों ही बहुत सीनियर हैं। मगर सोए हुए या जानबूझकर जाग कर करते हुए क्या कहें?)  बिछा दी। यह ऐसा ही जैसे आस्ट्रेलिया या वेस्टइंडीज के तेज गेंदबाजों से भरी टीम भारत आ रही हो और यहां उनके लिए हरी उछाल वाली पिचें बनाकर अपने बल्लेबाजों की कब्रगाह बना दी जाए।

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हिन्दु मुसलमान भाजपा का प्रिय विषय। क्या सलमान खुर्शीद को नहीं मालूम था कि हिन्दू या हिन्दुत्वा पर लिखने से और वह भी तुलनात्मक क्या असर होगा? यह वकील हैं क्या इन्हें नहीं मालूम की अपने मुवक्किल के बचाव में यह कहना कि पहले भी ऐसा अपराध हुआ था। या वह भी ऐसा कर रहा है कहने से उनके क्लाइंट को कोई फायदा मिलना तो दूर उसे उल्टा नुकासन हो जाएगा। सदइच्छा से यह कहना कि इतनी बड़ी किताब में सिर्फ एक लाइन है सलमान के बचाव का कोई मजबूत तर्क नहीं है। एक लाइन क्या एक शब्द था अंधा! जन मान्यता है कि इस एक शब्द  (अंधे के अंधे ही होते हैं) जो द्रोपदी ने बोला था ने ही पूरी महाभारत करवा दी थी।

बड़ा सवाल यह है कि क्या सलमान खुर्शीद की मुख्य पहचान एक लेखक की है? जिसके लिए लिखना ही प्रतिबद्धता है? या वे एक नेता हैं जिसका काम समयानुरुप लिखना या बोलना है। नेता की प्रतिबद्धता किसके प्रति है। अपनी पार्टी की। उसके हानि लाभ की। यह सामान्य बातें हैं। हर समझदार नेता फालो करता है। राहुल गांधी भी। हैं कुछ उदाहरण ऐसे। दलित, महिला, अल्पसंख्यक, गरीब या ओबीसी, कमजोर वर्ग के कुछ मामलों में राहुल कड़ा स्टेंड लेना चाहते थे। मगर पार्टी के समझाने से कि यह आज की स्थिति में जुल्म के शिकार की इतनी मदद नहीं कर पाएगा और माहौल खराब करने वालों के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है राहुल ने माना। यह उदाहरण इस लिए बताना पड़ रहा है कि आज की राजनीति में राहुल व्यवहारिक राजनीति से आदर्श की तरफ जाने वाले कम नेताओं में से एक हैं। साथ ही अध्यक्ष पद छोड़ देने और निस्पृह भाव दिखाने से उनके लिए कई बार तात्कालिक राजनीतिक फायदे नुकसान अहमियत खोने लगते हैं। ऐसे में उन्हें वास्तविकता का धरातल पर लाना एक मुश्किल काम है। मगर पार्टी के लिए और व्यापक उद्देश्यों के लिए राहुल भी मन मारकर मानते हैं।

इस समय विभाजनकारी नीतियों पर, नफरती राजनीति पर हिन्दु खुद बड़े निशाने पर हैं। किसी भी समाज में साम्प्रदायिकता के खिलाफ वहां के बहुसंख्यक समाज का स्टेंड ही सबसे प्रभावी होता है। भारत में हिन्दुओं के लिए यह भूमिका नई है मगर वे बहुत साहस और प्रतिबद्धता से निभा रहे हैं। भारत में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता कभी भी बड़े पैमाने पर नहीं रही। यहां आडवानी के छद्म धर्मनिरपेक्षता शब्द के जरिए जहर फैलाने से पहले तक वास्तविक अर्थों में सांप्रदायिक सदभाव का माहौल था। लेकिन आडवानी ने धर्मनिरपेक्षता को ही शक के दायरे में लाने के लिए एक शब्द गढ़ा सूडो सेक्यूलरिज्म ( छद्म धर्मनिरपेक्षता) और मीडिया के जरिए इसे इतना प्रचारित कर दिया कि लोग धर्मनिरपेक्षता शब्द के सुनकर ही गलत नतीजों पर पहुंचने लगते थे। यह भी एक ही शब्द का जहर था। जैसा सलमान के लिखे के बचाव में कुछ मित्र कह रहे हैं कि एक ही शब्द तो है।

मगर यहां सवाल सबसे बड़ा और प्रमुख यह है कि इसकी जरूरत क्या थी? जैसा अखिलेश यादव के मामले में था कि उन्हें इस समय जिन्ना का नाम लेने की जरूरत क्या  थी? कंगना रानौत वोट थोड़े ही कम करेगी, बढ़ा ही सकती है। मगर अखिलेश सपा के और सलमान कांग्रेस के वोट तो थोड़े कम करेंगे लेकिन भाजपा के बढ़ा कई गुना सकते हैं। अखिलेश तो अभी युवा हैं। उनसे गलती हो सकती है। मगर सलमान तो अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में शुमार होने वाले थे। अहमद पटेल के न रहने, आजाद के बागी होने के बाद कांग्रेस में कोई बड़ा मुस्लिम फेस नहीं बचा था। तारीक अनवर ने कांग्रेस में आने के बाद जैसी वापसी सोची थी वे कर नहीं पाए। ऐसे में यूपी के चुनाव सलमान के लिए एक अच्छा मौका थे। मगर अपनी पहले की गैर जिम्मेदारी भरी टिप्पणियों की तरह इस बार भी सलमान ऐन मौके पर कांग्रेस के लिए समस्या बन गए। 2014 के चुनाव में उन्होंने इसी तरह बेवजह अरविन्द केजरीवाल को फर्रुखाबाद आकर सुरक्षित वापस जाने को चैलेंज किया था। उस समय केजरीवाल कुछ नहीं थे। मगर सलमान के उन्हें इस तरह ललकारने की वजह से वे आज दिल्ली के अलावा पंजाब, उत्तराखंड और दूसरे कई राज्यों में बड़े चैलेज बन गए हैं।

इससे पहले तो वे सोनिया गांधी रो रहीं थी, मुसलमानों को आरक्षण जैसी बातें करके कांग्रेस की 2014 की हार की भूमिका बना चुके थे। याद रहे कांग्रेस के सम्मेलन में राहुल ने रामलीला मैदान में सलमान के एक और बयान कि कांग्रेस के भी हाथ मुसलमानों के खून से रंगे हुए हैं पर सार्वजनिक तौर पर फटकारा था। मगर सबको मालूम है कि कांग्रेस में कोई कार्रवाई नहीं होती है तो सलमान भी नहीं संभले और यूपी चुनाव के ठीक पहले भाजपा के लिए हिन्दु मुसलमान की उनकी पसंदीदा पिच तैयार कर दी।

और इस पर तत्काल ट्वीट करके गुलाम नबी आजाद ने इसे और हवा दे दी।  आजाद कोई आदतन ट्वीटबाज नहीं हैं। सलमान की किताब के इस अंश जिसमें धार्मिक अतिवाद तुलनात्मक रुप से दिखता है को हाईलाइट करने से पहले आजाद ने लास्ट ट्वीट एक हफ्ते पहले किया था। सामान्य हैप्पी दीवाली का। उससे पहले शायद एक महीने पहले किया था। आमतौर पर उनके ट्वीट या तो शोक संदेश के लिए या बधाई जैसे औपचारिक के ही होते हैं। मगर यह किताब के रिलिज होते ही ऐसे किया गया जैसे वे मौके का इंतजार ही कर रहे हों। आग में घी डालने जैसा। भाजपा को इससे ज्यादा और क्या चाहिए? लेकिन फिर भी कांग्रेसियों को संतोष नहीं हुआ तो राशिद अलवी रामायण की व्याख्या करने बैठ गए।

आश्चर्य घोर आश्चर्य है कि क्या इन कांग्रेसियों को यह नहीं मालूम कि आज माहौल कितना प्रज्जवनशील बना दिया गया है। एक जरा सी चिंगारी सांप्रदायिकता की कितनी आग भड़का सकती है। कानून व्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई जिस पर खुद कांग्रेस बड़ा देशव्यापी जनजागरण अभियान चला रही है, जैसे जनता से जुड़े मुद्दों को छोड़कर वे पता नहीं क्यों उस मुद्दे की तरफ लपकते हैं जहां उनके लिए कुछ भी नहीं है। हिन्दु मुसलमान, जाति की राजनीति ने ही तो 1989 से कांग्रेस को कमजोर करना शुरू किया है। और भाजपा के अलावा बाकी गैर कांग्रेसी दलों का विकास भी इन्हीं मंडल और कमंडल के सहारे हुआ है। तो ऐसे में इस पिच पर अपनी पार्टी को खिंचने वाले कांग्रेसियों के लिए क्या कहा जा सकता है? सिवाय इसके  जैसा गालिब ने कहा था कि- “हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो?”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)