मुसलमानों के प्रति नफ़रत को छूने से क्यों डरते हैं राजनीतिक दल?

किसान मार कानून वापस लिए गए, ये बहुत बड़ी जीत है, लेकिन कुछ सवाल इसी वक्त कर लेना चाहिए। मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिक नफ़रत हिंदुत्व के सियासत की ताक़त है। क्या किसान आन्दोलन ने इस नफरत पर कोई चोट की, ज़वाब है नहीं। किसानों के सर्वधर्म समभाव वाले नारों का महत्व है, इसका कुछ असर भी हुआ होगा लेकिन मुसलमान, जिसे एक समस्या के रूप सालों से प्रस्तुत किया जा रहा है, उसे किसान आन्दोलन ने नहीं छूआ है। बल्कि किसान आन्दोलन के सभी नेता लगातार इस कोशिश में नज़र आये कि उन पर मुसलमानों के साथ खड़े होने का इलज़ाम न लगने पाए, जबकि मुसलमानों के नेताओं ने किसान आन्दोलन को समर्थन दिया भले ही मुज़फ्फर नगर के क़त्लेआम के ज़ख्म अभी भरे नहीं थे, अभी भी सभी मुसलमान अपने घरों को नहीं लौट पाए हैं।

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आप कह सकते हैं कि ये आन्दोलन तीन कानूनों पर ही केंद्रित था इसलिए मुसलमानों के मुद्दे को इससे जोड़ कर नहीं देखना चाहिए, लेकिन आपको ये भी देखना होगा कि ये किसान ही बड़े पैमाने पर भाजपा के वोटर हैं और हम ये मानते हैं कि भाजपा को पड़ने वाले वोट साम्प्रदायिक धुर्वीकरण से आते हैं। अगर ये सच है तो कल फिर ये किसान भाजपा के साथ नहीं होंगे, ये कैसे कहा जा सकता है। ऐसे में अगर इन्हें कल भाजपा के साथ ही जाना है तो आज के लड़ाई की ज़रूरत क्या थी? हमने देखा है कि भाजपा कॉरपोरेटपरस्त फैसले करने में किसी की भी परवाह नहीं करती, ऐसे में किसान और देश कल फिर ऐसे ही हालात का सामना नहीं करेंगे, ये कैसे कहा जा सकता है ! …और हाल ही में उत्तर प्रदेश के चुनाव में ये बात साबित हो गयी है कि किसान आन्दोलन के बाद जिस जनजागरूकता की उम्मीद की जा रही थी, वो कहीं नहीं है, एक बार फिर भाजपा अपने सियासी एजेंडे के ही आधार पर उत्तर प्रदेश का चुनाव जीत चुकी है।

भगवा टोली की रीढ़ पर हमला करने का एक मात्र उपाय है कि जो लोग भाजपा की नीतियों को ग़लत मानते हैं वो मुसलमान के लिए पैदा हुए नफ़रत से खुद को अलग करें, अपने मनोमालिन्य को धो डालें, लेकिन एक भी संगठन या पार्टी नज़र नहीं आती जो मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता से सीधे टकराने का इरादा रखती हो। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में राज्य व केंद्र की सरकार हमारे वोटों से बनाई जाती है, हर पार्टी अपने स्तर पर जनता के बीच सर्वे करवा कर अपने मुद्दे और चुनाव लड़ने वाले कंडीडेट तय करती है। देश भर में हुए दर्जनों चुनावों में सभी दलों के मुद्दों और उनके भाषणों को याद कीजिये, आप पाएँगे कि कोई भी पार्टी मुसलमानों के मुद्दों पर सीधे बात नहीं करती। इस पर्देदारी के पीछे अगर बहुसंख्यक हिन्दुओं के नाराज़ होने का ही खतरा है तो क्या ये मान नहीं लेना चाहिए कि देश का बहुसंख्यक मुसलमानों के प्रति नफ़रत से सरोबोर हो चुका है! बहुसंख्यक वोट कटने का डर ये दिखाता है कि बहुसंख्यक समाज का बहुसंख्यक मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता से ग्रस्त है और यही साम्प्रदायिकता भगवा सियासत की ताकत है। जब तक ये ताकत बरकरार है भगवा टोली थोड़े अंतराल से ही सही सत्ता में आती रहेगी और साथ में वो मुसीबतें भी जो इनके साये की तरह साथ आती हैं। ये मानना संभव नहीं है कि किसान आन्दोलन के नेता और चिन्तक इस स्थिति से अवगत नहीं थे, फिर भी इस विस्फोटक स्थिति पर ख़ामोशी पूरे आन्दोलन पर सवाल तो उठाती ही है। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था, लेकिन आज देश में कोई भी राजीनीतिक दल नहीं है जो भगवा सियासत की नींव पर चोट करने का इरादा भी रखता हो।

CAA और NRC विरोधी आन्दोलन इस देश का ऐतिहासिक आन्दोलन था लेकिन ये बड़े दुख की बात है कि बहुसंख्यक वर्ग के भारी समर्थन के बावजूद ये सिर्फ मुसलमानों का ही आन्दोलन बना रहा। इस आन्दोलन ने पढ़े लिखे मुसलमानों की एक शानदार लीडरशिप तैयार की जिनमें से अधिकांश गंभीर धाराओं में जेल के अंदर हैं, कब बाहर आएंगे कोई नहीं जानता। अगर कुछ शाहीनबाग देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू समाज द्वारा भी खड़े किये गये होते तो इसका सियासी सन्देश बहुत दूर तक जाता, मुमकिन था यहीं से देश की फ़िज़ा बदलने वाली कोई सियासत खड़ी हो जाती, अफ़सोस, ऐसा नहीं हुआ।

भारत का मुसलमान देश का सबसे सस्ता वोटर है, बाकी धार्मिक और जातीय समूह सियासी दलों से बहुत कुछ मांगते हैं, लेकिन मुसलमान कभी कुछ नहीं मांगता, उसे बस जीने का अधिकार चाहिए जिसके संसाधन भी वो खुद जुटाएगा। मुसलमान मज़दूरी करता है, व्यवसाय करता है, छोटी बड़ी नोकरियां करता है, लेकिन कभी किसी भी हुकूमत के सामने किसी भी तरह की सयाहता मांगने के लिए खड़ा नहीं होता। क्या ये चिन्तनीय नहीं है कि देश का एक धार्मिक समूह जिसकी संख्या 20 करोड़ के आसपास है, बस बिना किसी सरकारी या गैरसरकारी हमले के बस सुरक्षित जीना चाहता है! सियासत से अपनी इस निर्लिप्तता के बावजूद मुसलमान दहशत में जी रहा है और देश में एक भी सियासी दल नहीं है जो मुसलमानों से खुल कर कह सके कि वो ‘उनके साथ होने वाले किसी भी अन्याय में साथ खड़ा होगा’ क्या ये देश का दुर्भाग्य नहीं है! आज मुसलमान का वोट उसे जा रहा है जो भाजपा को हरा सके, भले ही वो कैंडिडेट उसे पसंद न हो। क्या इसे मुसलमानों का लोकतंत्र के प्रति एक सही योगदान कहा जा सकेगा? एक सियासी दल को देश ने इतनी अहमियत कैसे दे दी जिससे देश के करोड़ो नागरिक डरते हैं? इन सवालों पर सोचने वाला फ़िलहाल कोई दल नज़र नहीं आ रहा है।

मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता का विरोध पीड़ित मुसलमान के साथ खड़ा होना है, उसके साथ हुए और हो रहे नाइंसाफी के लिए लड़ना है, अच्छी बात है कि बहुसंख्यक वर्ग से ऐसे लोग निकल रहे हैं लेकिन दुखद ये है कि भारत जैसे विशाल देश में ये संख्या अभी भी बहुत कम है। आज़ाद भारत में लगातार ये साम्प्रदायिकता बढ़ी है और किसी भी सियासी जमात ने इसे रोकने की कोशिश कभी नहीं की, उल्टे इससे सियासी लाभ उठाया गया। सत्ता विरोधी असंतोष को एक करना और मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिक नफरत का इनकार आज की वो बुनियादी ज़रूरत है जो बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण बनेगी। अफ़सोस, अभी इसके लिए कहीं भी कोई भी प्रयास होता दिखाई नहीं दे रहा है। जब तक बहुसंख्यक जनता के दिलों में मुसलमानों के लिए नफ़रत बरकरार है भगवा सियासत रूप बदल-बदल कर सत्ता में आती रहेगी और उसका ये आना अपने साथ तबाही भी लाता रहेगा। अल्पसंख्यकों के साथ ही बहुसंख्यकों का बहुसंख्यक जितनी जल्दी इस सच्चाई को समझ ले, देश का उतना ही कम नुकसान होगा।