पंकज चतुर्वेदी का सवाल: ‘आप’ की सारी मेहरबानी अंकित शर्मा के परिवार पर ही क्यों? क्या बाक़ी लोग इंसान नहीं थे?  

दिल्ली दंगों में जान गंवाने वाले आई बी के सिपाही स्तर के कर्मचारी अंकित शर्मा के भाई को केजरीवाल ने घर जा कर सरकारी नौकरी दे दी. उन्हें शिक्षा विभाग में जूनियर असिस्टेंट की स्थाई नियुक्ति दी गई है. इससे पहले उनके परिवार को एक करोड़  भी दे चुके हैं। अच्छी बात है। किसी के देहावसान की पूर्ति किसी मुआवजे से हो नहीं सकती, हालांकि यह भी तथ्य है कि अंकित शर्मा उस समय ड्यूटी पर नहीं थे, और उनकी जब ह्त्या हुई तब वे दंगा ग्रस्त इलाके में किन लोगों के साथ थे और क्या कर रहे थे? उसकी कोई पड़ताल नहीं हुई।

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मेरा सवाल यह है दंगे में मारे गये दिलबर नेगी हो शाहिद अल्वी या राहुल सोलंकी या अशफाक़ हुसैन या विनोद कुमार अन्य कोई, या जिनके घर दूकान सभी कुछ जला दिया गया। क्या उनकी जानोमाल की कीमत अंकित शर्मा से कुछ कम थी ? अंकित तो सरकारी नौकरी में थे और उन्हें  मरने के बाद उनके दफ्तर से  बड़ी राशि और  उनके परिवार को फेमिली पेंशन भी मिल रही है लेकिन बाकी उन 51 लोगो का क्या? उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गए लोगों में 40 फीसदी की उम्र 20 से 29 साल के बीच थी, जबकि दो नाबालिग थे।

उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गए लोगों में 40 फीसदी की उम्र 20 से 29 साल के बीच थी, जबकि दो नाबालिग थे। चार शव 50 साल से अधिक उम्र के थे. उनमें से एक की उम्र 90 वर्ष रही होगी. दो अन्य 15 से 19 साल के नाबालिग थे.’ जबकि चार अन्य की उम्र पता नहीं की जा सकी है.

298 घायलों में से अधिकांश 30-39 वर्ष के आयु वर्ग के हैं. आंकड़ों के अनुसार 28 से अधिक नाबालिग थे. 44 मृतकों में से तेरह की मौत बंदूक की गोली लगने से हुई है, 24 की मारपीट और जलने की वजह से हुई है और तीन की मौत गंभीर चोटों की वजह से हुई है. एक पीड़ित को छुरा घोंपे जाने के साथ-साथ बंदूक की गोली से घायल किया गया है, जबकि तीन पीड़ितों की मौत का कारण अभी तक पता नहीं चल सका है.

ये वे लोग हैं जिनके पास रोजगार का कोई स्थाई साधन नहीं था। जिनकी गोकुलपुरी में दुकाने जली  उनके लिए कई इस्लामी संगठनों ने, पुनर्निर्माण का काम किया. याद करें पिछले साल हमारे साथियों ने  दिल्ली दंगों पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के जांच दल की एक रिपोर्ट को हिंदी कर किताब के शक्ल में लाया था . वह जांच रिपोर्ट दिल्ली सरकार का धोखा था। अंग्रेजी में कुछ प्रतियां छपवाईं और उन्हें फाइल में बंद कर दिया- बड़े बड़े भुगतान कर — जब हम उस रिपोर्ट का लोकार्पण प्रेस क्लब में करने वाले थे तो अल्पसंख्यक आयोग के तब के सदर जफरुल इस्लाम ने ही उसमें अड़ंगे लगाए थे।

वह रिपोर्ट बताती है कि अधिकाँश मौत या प्रॉपर्टी नुक्सान के मामलों में दिल्ली सरकार ने या तो मुआवजा दिया नहीं या फिर बहुत कम  दिया,मुआवजा देने में चौथ वसूली, सो अलग। मेरा सवाल यह है कि किस तरह से अंकित शर्मा और बाकी 50 लोगों की मौत में फर्क है? आर्थिक  मुआवजा या नौकरी देने का कौना मापदंड केजरीवाल सरकार का है? विदित हो अधिकाँश दंगाग्रस्त इलाकों में केजरीवाल के विधायक है, उसके बावजूद वहां पुनर्वास पर काम हुआ नहीं। कपिल मिश्रा ने  दंगे के नाम अपर कोई पौने दो करोड़ का चन्दा जोड़ा था और सूना है कि उसने केवल हिन्दू दंगा पीड़ितों को मदद की.

केजरीवाल की पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन कि दंगे का मास्टर मंद बता आकर दर्जनों केस लादे गए जबकि यह चुप्प खाने में चर्चाही कि ताहिर ने आप के किसी बड़े नेता को विधान सभी के टिकट के लिए एक कर्तोद से अधिक की घूस दी थी  और जब तिक्त न मिलने पर पैसे वापिस मांगे तो “छोटे  रिचार्ज ” की टीम ने ताहिर को ऐसे जाल में फंसाया कि वह ताजिंदगी मुफलिस और कारागार में रहेगा.

अंकित शर्मा के भाई को नौकरी देने और बाकी को वाजिब मुआवजा भी नहीं देने, दंगा पीड़ित मुस्लिम लोगों कि सलीके से क़ानूनी मदद या सामजिक सहयोग न देने की केजरीवाल सरकार की नीति असल मने नागपुर के विवेकानन्द फाउंडेशन मॉडल का उत्पाद है। इसे आप दिल्ली का “डेवोलोप्मेंट  मॉडल” भे कह सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव स्तंभकार हैं)