कृष्णकांत
“मुझे उम्मीद है कि इतिहास उदारता के साथ मेरा मूल्यांकन करेगा.” आज बीबीसी के एक पुराने लेख पर नजर पड़ी जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी के हवाले से लिखा गया है, “प्रधानमंत्री ने पिछले 10 वर्षों में 1,000 से ज़्यादा भाषण दिए हैं.” मेरे मन में आया कि ऐसा क्यों प्रचारित किया गया कि मनमोहन सिंह दरअसल मौनमोहन सिंह हैं. किसी प्रधानमंत्री के शांत स्वभाव से क्या दिक्कत है अगर वह देश को 8 से 10 प्रतिशत की ग्रोथ रेट तक ले जा सकता है? प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे आदमी को जोर-जोर क्यों बोलना चाहिए? धीमे बोलने वाले प्रधानमंत्री को मौनी बाबा क्यों कहना चाहिए?
प्रधानमंत्री इस देश का मुखिया होता है. उसे रोज चिल्लाने वाले भाषण देने की क्या जरूरत है अगर उन भाषणों का कोई मोल न हो? अगर अर्थव्यवस्था डूब रही हो तो उसे संभालने की जगह प्रधानमंत्री को भाषण क्यों देना चाहिए? अगर 1991 के संकट को याद करें तो आज का संकट बड़ा नहीं है. मनमोहन सिंह की अगुआई में 47 टन सोना गिरवी रखने से जो आर्थिक सुधार का सिलसिला शुरू हुआ था, उसने भारत को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां भारतीय जनता महाशक्ति बनने के सपने देखने लगी.
वक्त ने करवट बदला है. अर्थव्यवस्था बदहाल है. बैंक डूब रहे हैं. मनमोहन सिंह सलाह दे रहे हैं, लेकिन उन्हें कोई सुनने वाला नहीं है. मौजूदा प्रधानमंत्री की ऊर्जा ‘बांटो और राज करो’ में खर्च हो रही है. ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह के मूल्यांकन का समय आ गया है. 2014 में किसने सोचा था कि मनमोहन सिंह इतिहास से जिस उदार मूल्यांकन की उम्मीद कर रहे हैं, वह मात्र पांच सालों बाद आ जाएगा.