कृष्णकांत
महामरी से लड़ने के लिए पीएम केयर्स फंड बनाया गया था। इसके लिए पब्लिक से पैसा वसूला गया। उसके बाद वेंटिलेटर का ठेका ऐसी कंपनी को दिया जिसके पास वेंटिलेटर बनाने का कोई अनुभव नहीं था। ऐसा ही राफेल मामले में हुआ था। इस तरह खुला भ्रष्टाचार करने वालों से अगर आप उम्मीद करते हैं कि वे देश का कोई भला कर सकते हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता। खैर, बात करें पीएम केयर्स फंड की, इस फंड से 2000 करोड़ रुपए वेंटिलेटर्स के लिए दिए गए थे, उन वेंटिलेटर्स का क्या हुआ?
इस फंड से 58 हज़ार 850 वेंटिलेटर्स ऑर्डर किए गए और इनमें से तक़रीबन 30 हज़ार वेंटिलेटर्स ख़रीदे गए। बाकी क्यों नहीं खरीदे गए? पहली लहर कमज़ोर होने के बाद वेंटिलेटर ख़रीद का काम वहीं छोड़ दिया गया। जो वेंटिलेटर खरीदकर राज्यों में पहुंचाए गए, उन पर भी सवाल उठे। मध्य प्रदेश के हमीदिया अस्पताल का मामला याद होगा जिसमें नए वेंटिलेटर ही खराब हो गए। उनकी क्वालिटी घटिया थी। भास्कर ने खबर छापी थी, “पीएम केयर फंड से मिला वेंटिलेटर इलाज के बीच बंद, दम घुटने से कोरोना मरीज की मौत” यानी देश की जनता से पैसा वसूल कर जो संदिग्ध फंड बनाया गया था, जिसे आरटीआई के दायरे से बाहर रखा गया, जिसका आडिट नहीं होने दिया गया, उस फंड से खरीदे गए वेंटिलेटर जानलेवा साबित हो रहे हैं।
बिहार, यूपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों से खबरें हैं कि वहां पीएम केयर्स फंड से भेजे गए वेंटिलेटर धूल फांक रहे हैं। उन्हें चलाने वाले टेक्नीशियन नहीं हैं या उनमें गड़बड़ी है। कोरोना आया तो कहा गया कि भारत में कोरोना मामलों को देखते हुए दो लाख वेंटिलेटरों की ज़रूरत हो सकती है। लेकिन इनमें से आधे वेंटिलेटर का भी इंतजाम क्यों नहीं हुआ? जो व्यवस्था सरकार को करनी थी, वह जनता से पैसा वसूलकर भी क्यों नहीं की गई? दशकों पहले से देश में एक प्रधानमंत्री राहत कोष मौजूद है। फिर भी ये संदिग्ध फंड क्यों बनाया गया था? क्या इसीलिए ताकि इस फंड की बंदरबांट हो सके?
पीएम केयर्स फंड का ऐलान 27 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। 5 मार्च 2020 को वेंटिलेटर्स की सप्लाई के लिए एक टेंडर निकाला गया। जिन कंपनियों को वेंटिलेटर बनाने का ऑर्डर मिला, उनमें नोएडा की कंपनी एग्वा हेल्थकेयर को दस हज़ार वेंटिलेटर का ऑर्डर मिला था। इससे पहले एग्वा के पास वेंटिलेटर बनाने का कोई अनुभव नहीं था। उसने 10 हज़ार के ऑर्डर में से अब तक सिर्फ़ 5 हज़ार वेंटिलेटर ही डिलीवर किए हैं। बाकी पांच हजार के परचेज ऑर्डर ही नहीं दिए गए।
गुजरात की एक और कंपनी ज्योति सीएनसी को पांच हज़ार वेंटिटेलर का ठेका मिला। ये वही कंपनी है जिसके वेंटिलेटर को लेकर अहमदाबाद के डॉक्टरों ने सवाल खड़े किए थे। फिर भी इस कंपनी को ऑर्डर दिया गया। बीबीसी को आरटीआई से पता चला है कि एक साल बाद कुल 29,695 वेंटिलेटर की सप्लाई हुई है। जरूरत कितने की थी, ये बात रहने देते हैं।
आरटीआई के जवाब से ये भी पता चलता है कि एक ही सरकारी टेंडर में एक ही तरह के स्पेसिफ़िकेशन वाली अलग-अलग कंपनी के वेंटिलेटर्स की क़ीमत में भारी अंतर है। अलाइड मेडिकल के एक वेंटिलेटर की क़ीमत 8।62 लाख है और एग्वा के एक वेंटिलेटर की क़ीमत 1।66 लाख है यानी कीमत में सात-आठ गुना तक का अंतर है। (कॉमनवेल्थ घोटाला याद कीजिए)
आंध्र प्रदेश राज्य सरकार के अधीन काम करने वाली आंध्र प्रदेश मेडटेक ज़ोन (एएमटीज़ेड) को साढ़े 13 हज़ार वेंटिलेटर्स के ऑर्डर मिले थे। उसने 26 अप्रैल तक एक भी वेंटिलेटर सरकार को नहीं दिया है। एएमटीज़ेड को साढ़े नौ हज़ार बेसिक वेंटिलेटर और 4 हज़ार हाई-एंड वेंटिलेटर बनाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया था।
अप्रैल में एएमटीज़ेड ने चेन्नई की एक मेडिकल टेक्नॉलजी कंपनी ट्रिविटॉन हेल्थ केयर को 6 हज़ार वेंटिलेटर बनाने का काम दिया। कंपनी को 4000 बेसिक मॉडल और 2000 हाई एंड मॉडल बनाने को कहा गया। इसके ट्रायल होने तक कोरोना की पहली लहर थोड़ी कम होने लगी थी और कंपनी से कहा गया कि अब वेंटिलेटर की ज़रूरत नहीं है।
कंपनी का कहना है, “हमारे पास काफ़ी स्टॉक पड़ा हुआ था लेकिन एचएलएल की ओर से एक कोई परचेज़ ऑर्डर नहीं मिला। हमसे कहा गया कि इतने वेंटिलेटर की ज़रूरत नहीं है लेकिन दूसरी लहर आने के बाद दो सप्ताह पहले हमें ऑर्डर मिला है और हमने 1000 वेंटिलेटर गुजरात सहित कुछ राज्य सरकारों को भेजा है”।
कारस्तानी देखिए कि सरकार ने सीधे ट्रिविटॉन को ठेका नहीं दिया। सरकार ने एएमटीज़ेड को ठेका दिया फिर उसने अपने साढ़े 13 हज़ार ऑर्डर में से 6 हज़ार वेंटिलेटर का ऑर्डर ट्रिविटॉन को आगे बढ़ा दिया।
वेंटिलेटर बनाने के सरकारी ऑर्डर के बाद डायरेक्टर जनरल ऑफ़ हेल्थ सर्विस यानी डीजीएचएस की टेक्निकल कमेटी के क्लीनिकल ट्रायल में गुजरात की कंपनी ज्योति सीएनसी और एएमटीज़ेड के वेंटिलेटर फेल हो गए। इसके बाद इन दोनों कंपनियों का नाम मैन्युफ्रैक्चर्स की लिस्ट से हटा दिया गया।
बीबीसी ने लिखा है, ‘एक और बात समझनी मुश्किल है कि जब टेंडर निकाला गया तो उसके फ़ीचर्स एक कमेटी ने तय किए थे और ये शर्त रखी गई कि हर निर्माता को वेंटिलेटर में ये फ़ीचर रखने होंगे। ऐसे में बेसिक और हाई एंड का अंतर कहां से आया और बेसिक के फ़ीचर और हाई एंड वेंटिलेटर के फ़ीचर एक-दूसरे से कैसे अलग होंगे इस पर कुछ भी साफ़ नहीं है।’
नीति आयोग ने एग्वा हेल्थकेयर का खासा प्रचार किया, जबकि उसके पास वेंटिलेटर बनाने कोई तजुर्बा नहीं था लेकिन उसे 10 हज़ार वेंटिलेटर का ऑर्डर दिया गया। एग्वा ने कार बनाने वाली कंपनी मारूति की मदद से वेंटिलेटर बनाए। सरकार की ओर से बनाई गई टेक्निकल इवैल्युएशन कमेटी ने 16 मई 2020 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में इन वेंटिलेटर्स का ट्रायल किया, इसके बाद एग्वा वैंटिलेटर के बारे में कहा गया कि वह रेस्पीरेट्री पैरामीटर बनाए नहीं रख पा रहे हैं। दूसरे ट्रायल में इन्हें पास कर दिया गया।
खैर, इस फंड से और इन कंपनियों से जो वेंटिलेटर खरीदे गए वे जहां भेजे गए, वहां ज्यादातर जगहों पर वैसे ही पड़े हैं। कहीं पर ये वेंटिलेटर अब तक इंस्टॉल ही नहीं हुए, कहीं स्टाफ़ की ज़रूरी ट्रेनिंग तक नहीं हुई, जहां ये इंस्टॉल हो गए और स्टाफ़ भी है, वहां डॉक्टरों को इसमें ऑक्सीजन को लेकर समस्याएं आ रही हैं।
पीएम केयर्स फंड के तहत बिहार को 500 वेंटिलेटर मिले थे। पटना के एम्स को छोड़कर राज्य के लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में ये वेंटिलेटर्स अभी तक चालू भी नहीं हो पाए हैं। यूपी में पीएम केयर्स फंड से पांच सौ से भी ज़्यादा वेंटिलेटर्स दिए गए थे लेकिन ज़्यादातर वेंटिलेटर आज भी अस्पतालों में पड़े हैं और मरीज़ वेंटिलेटर्स के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। सबसे मजे की बात है कि इनमें से किसी भी कंपनी ने वेंटिलेटर को भारतीय मानक ब्यूरो की ओर से गुणवत्ता सर्टिफिकेट नहीं मिला है, क्योंकि किसी ने अप्लाई ही नहीं किया। इन सब तथ्यों के बाद आपके मन में क्या सवाल उठे? मैं तो समझ रहा हूं कि ये पीएम केयर्स फंड और उससे बने देसी वेंटिलेटर का कारोबार, ये दोनों संगठित घोटाले हैं जो सरकारी संरक्षण में हुए हैं।
(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)