क्या आप जानते हैं कि भारतीय संस्कृति किस चिड़िया का नाम है? अमूमन खानपान, रहन-सहन, तीज त्योहार, शादी-व्याह के तौर तरीकों और धर्म और धार्मिक कर्मकांड के सम्मिलित रूप को संस्कृति कहते हैं। भारत के संदर्भ में यह खास बात है कि देश के अलग अलग इलाकों की संस्कृति भी अलग अलग है। यानि भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है। हम हमारी इस विविधता पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन अहम सवाल है कि इनमें से किसी एक को भारतीय संस्कृति क्यों कहा जाए?
उत्तर भारत के हिन्दुओं की संस्कृति देश के एक बड़े हिस्से में सामान्य रूप से पाई जाती है, लेकिन इसमें भी इतनी एकरूपता नहीं है कि इसे भारतीय संस्कृति के रूप में सर्वोच्चता मिल सके। दक्षिण में नजदीकी रिश्तों में शादियाँ होती हैं लेकिन उत्तर का ब्राह्मण तो गोत्र तक के भीतर भी शादी नहीं करता। मिथिला का ब्राह्मण दबा के गोश्त खाता है जबकि उत्तर प्रदेश में मांस खाने वाले ब्राह्मण को असम्मान की नज़र से देखा जाता है। आप झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या फिर पूरवोत्तर के इलाकों में चले जाएं तो एक बिल्कुल अलग संस्कृति मिलेगी, फिर संस्कृति कोई स्थूल चीज़ भी नहीं है और न ही स्थिर रहती है। ये तो सतत परिवर्तनशील है। मांसाहार से कोसो दूर रहने वाला जैन समाज वेज कबाब खाता भी है और शादियों में खिलाता भी है। स्वाद बिल्कुल नॉनवेज कबाब का ही होता है। जैन जो सदियों से खुद को अहिंसावादी, शाकाहारी समाज के रूप में प्रस्तुत करता रहा है उसे एक नॉनवेज डिश की नकल क्यों करनी पड़ी, सोचियेगा! यही नहीं बाज़ार रोज़ रोज़ संस्कृति को अपडेट कर रहा है, जैन समाज मांसाहार की कल्पना को भी पाप समझता है लेकिन भरपूर मुनाफ़ा कमाने के लिए बीफ़ उद्योग में उतरता है और कत्लखाने खोलता है।
यूरोप का पहनावा आज भारत में स्कूल और आफिस में ऑफिसियल ड्रेस है। कुर्ता पजामा मुसलमान लेकर आये। जलेबी समोसा और तमाम मुगलई खाने आप चटखारे लेकर खाते हैं, ये बाहर से आने वाले मुसलमान लेकर आये। ये सब इसलिए कि संस्कृतियां सतत चलायमान और परिवर्तनशील हैं। एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के साथ मिलती है और दोनों थोडा और समृद्ध हो जाती हैं। भारत का मुसलमान खुद को अरब से जोड़ता है लेकिन रहन सहन खानपान सब यहीं का फॉलो करता है, यहाँ तक कि भारतीय समाज का सांस्कृतिक कचरा भी सर पर लिए ढो रहा है। जाति प्रथा, शादी में वर ढूढ़ना, दहेज़ लेना, व्याह कर लाई गई बहू को गुलाम बना देना, संपत्ति में लड़कियों का हिस्सा न देना, ये सब इस्लाम में तो नहीं है लेकिन मुसलमान में है। क्या इसे भारतीय संस्कृति का असर नहीं माना जाना चाहिए?
इस बात पर गर्व करना कि हमारी संस्कृति हज़ारों साल पुरानी है, नादानी ही है। हम देख रहे हैं कि खानपान, रहन सहन, तीज त्योहार सब लगातार बदल रहा है। आज़ादी की लड़ाई के दौर के नेताओं की तश्वीरें आसानी से मिल जाती हैं, उन्हें देखिये और आज के नेताओं को देखिये। उनके लुक और ड्रेसिंग में बहुत अंतर मिलेगा। याद कीजिये कि आज से 30 साल पहले के हाट बाज़ार करीब करीब गायब हो गए हैं, मॉल संस्कृति कस्बाई इलाकों तक पहुँच गई है। थोड़े में ये कि इस क़ायनात में एक ही चीज़ शाश्वत है और वो है परिवर्तन। हर पल हर शय बदल रही है, मैं और आप सब बदल रहे हैं, ठहराव एक भ्रम है। एक और बात, हमारी चेतना का विकास अग्रगामी है, इसे पीछे ले जाने की कोशिश एक पल को सफल होती हुई भले नज़र आये लेकिन नाकामी ऐसी कोशिशों का मुक़द्दर है। इसके बावजूद संस्कृति की प्राचीनता गौरव नहीं शर्म की बात होनी चाहिए, दरअसल प्राचीनता के बखान के ज़रिये आप ये कहना चाहते हैं कि आपके इर्द गिर्द ऐसा कुछ है जो सैकड़ों सालों से नहीं बदला, लेकिन जब आपसे ऐसी चीज़ों को देखने को कहा जाए तो कुछ भी दिखाने की स्थिति में नहीं होते, फिर भी अगर कुछ है जो नहीं बदला तो ये गर्व की बात कैसे हो गयी? हर जीव की बनावट, पेड़ पौधों की प्रजातियाँ, मनुष्य का शारीर, मन उसके विचार, क्या है जो नहीं बदल रहा है। पत्थर नहीं बदलता, लेकिन विज्ञान तो आज उसे भी स्थिर मानने को तैयार नहीं है।
हमारे नज़दीक इतिहास को पीछे ले जाने की दो कोशिशें नज़र आ रही हैं, बहुत से लोग सोच रहे हैं कि ये कामयाब हो रही हैं, पर ऐसा न है न होगा। तालिबान एक इस्लामिक पंथ की विचारधारा पर आधारित निजाम क़ायम करना चाहता है, सफल होता हुआ भी नज़र आता है, लेकिन 20 साल पहले वाले तालिबान और आज के तालिबान में मामूली ही सही फ़र्क़ तो है, और ये मामूली फर्क वो बीज है जो कल वृक्ष बनेगा और तालिबान अगर रह भी गए तो भी उनके बदले हुए रूप को आप देखेंगे। दूसरा भारत में आरएसएस है, 2002 तक अपने कार्यालय पर तिरंगा न फहराने वाला आरएसएस आज तिरंगा यात्रायें निकालता है। तन मन धन से अंग्रेजों का साथी रहा आरएसएस आज देशभक्ति के रंग में ही सब कुछ करता है। खुद उसका ड्रेस भारतीय नहीं है, यहाँ तक कि भारत माता की अवधारणा भी ब्रिटेन से ली गई है। क्या आरएसएस से ज़्यादा समर्पित कोई और “सांस्कृतिक” संगठन है, लेकिन ये भी दूसरी संस्कृतियों से कुछ न कुछ ले रहे हैं। ये “लेना” सभ्यतागत विवशता है चुनाव नहीं। ये विवशता ही भविष्योनुमुखी परिवर्तन को अपरिहार्य बनाएगी और अतीतगामी तमाम गतियों को लगाम लगाएगी। अभी तो फ़िलहाल आरएसएस की हाफ पेंट भी फुल हो गयी है। आरएसएस को अपनी हाफ पेंट क्यों बदलनी पड़ी? इस छोटी सी घटना में परिवर्तन का सहगामी बनने की मजबूरी को देखा जा सकता है।
भारत में हर राज्य में एक अलग तरह की संस्कृति है, यहाँ तक कि एक राज्य के ही भीतर कई अलग अलग संस्कृति के लोग रहते हैं। इसलिए कम से कम भारत जैसे देश में किसी भी इलाके की किसी एक संस्कृति को भारतीय संस्कृति तो नहीं ही कहा जा सकता। हाँ, हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ कई तरह की संस्कृति के लोग एक साथ रहते हुए एक दूसरे की संस्कृति को समृद्ध करते हैं। विविधतापूर्ण इस संस्कृति को एकरूप करने की कोई भी कोशिश इसे विकसित नहीं बल्कि विकृत करेगी।
इसलिए कोई भी संस्कृति किसी धर्म या जाति की न तो बपौती है न ही स्थायी पहचान। पूँजीवादी व्यवस्था में पूंजी खुद अपने थैले में संस्कृति को लेकर चलती है और जो भी इस पूंजी को ग्रहण करता है उसे ये संस्कृति भी लेनी ही पड़ती है। लिहाज़ा हिन्दू संस्कृति, इस्लामिक संस्कृति, भारतीय संस्कृति, यूरोपियन संस्कृति आदि भाषागत सहूलतें हैं। इन्हें माथे का तिलक बनाएंगे तो भेजा सड़ जाएगा। बाकी आपकी मर्जी !