विश्वदीपक/राजीव नयन बहुगुणा
एक बार टाटा से किसी ने पूछा कि आप अंबानी की तरह अपना विस्तार क्यूं नहीं करते, उतना मुनाफा क्यूं नहीं कमाते? टाटा ने जवाब दिया की वो (अंबानी) बिजनेस मैन हैं, हम उद्योगपति. राहुल बजाज भी उद्योगपति थे. वह भारतीय उद्योगपतियों की उस पुरानी पीढ़ी का प्रधिनित्व करते थे जो मानती थी कि मुनाफे में समाज का भी हिस्सा है. यह आज के ज़माने के कारपोरेट जैसे अंबानी-अडानी से अलग किस्म की पीढ़ी थी. आज़ादी के पहले पैदा हुई, राष्ट्र निर्माण में योगदान देने की इच्छा रखने वाली पीढ़ी, मुनाफे के साथ उसूल बनाए रखने वाली पीढ़ी.
इसलिए जब जब उस राष्ट्र की बुनियाद पर चोट पहुंची तो राहुल बजाज ने अमित शाह से भी, भरी महफिल में कड़ा सवाल करने में संकोच नहीं किया. लिचिंग के मुद्दे पर आरएसएस प्रमुख, भागवत के दोगलेपन को सबके सामने खोलने का साहस कम लोगों में होता है. कम से कम उद्योगपतियों की जमात में तो नहीं. इसलिए राहुल बजाज अलग थे.
उनके बाबा जमनलाल बजाज,गांधीवादी थे. खादी पहनते थे. आश्रम में भी रहते थे. आज़ादी के आंदोलन में गांधी, नेहरू, पटेल, कांग्रेस के साथ खड़े रहे जबकि उनका धंधा पानी अंग्रेजी हुकूमत की मुट्ठी में था. जमानलाल डरे नहीं. दक्षिण में हिंदी के प्रचार के लिए जमनलाल ने राजगोपालचारी के साथ मिलकर अद्भुत काम किया. बाद में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी बने. राहुल बजाज के अंदर, उनके बाबा वाली कई खूबियां थी.
सच बोलने का साहस. जो काम मीडिया को करना था, वह राहुल बजाज ने किया. उन्हें अमित शाह को आइना दिखाने वाले, इस एक संवाद के लिए भी याद रखा जाएगा.
जगत से ज्योति का जेता उठा है
महात्मा गांधी के वरदपुत्र, सेठ जमनालाल बजाज के पौत्र राहुल बजाज का अवसान मेरे लिए एक परिजन के बिछोह जैसा है। यद्यपि मैं उनसे कभी नही मिला , सिर्फ एक बार टेलीफोन पर बात हुई । लेकिन मेरे जन्म से पहले उनके चचेरे भाई, गौतम बजाज हमारे सिलयारा स्थित आश्रम में कई दिन रहे, जब वहां जंगल के बीच सिर्फ एक छप्पर था, और मोटर सड़क 40 किलोमीटर दूर थी ।
इसके वर्षों बाद जब मैं दिल्ली में रोज़गार के लिए संघर्षरत था , और बिल्ली की तरह डेरे बदलता रहता था , तब मेरी दुर्गति देख उनके चाचा गांधीवादी राधाकृष्ण बजाज एक दिन मुझे उंगली पकड़ दिल्ली स्थित अपने ठिकाने पर ले गए। मैँ करीब एक साल उनके साथ रह कर रोटी की फिक्र से बे फ़िक्र रहा। उन्ही के साथ रहते मुझे नवभारत टाइम्स में वांछित नौकरी मिली। बजाज जी के पास नवभारत टाइम्स के मालिकान कई बार मिलने आते थे। वह टाइम्स के मालिकान से मेरी मुलाक़ात अवश्य करवाते, पर कभी यह ज़िक्र नही किया, सिफारिश तो दूर, कि मैं उनके संस्थान में एक छोटी सी नौकरी का मुन्तज़िर हूँ।
टाइम्स के सूटेड बूटेड सेठ उनके घर आने पर फर्श पर ही बैठते थे, क्योंकि कुर्सी थी ही नहीं। और पीतल के गिलास में गाय का दूध पीते थे। पूरे बजाज परिवार ने गांधी का वरदहस्त मिलने के बाद तरक़्क़ी तो खूब की , पर कभी अपने रुतबे का राजनीतिक लाभ नही उठाया। व्यापार अपने बूते पर किया। अकूत सम्पदा होते भी सादगी और सिद्धांत को तिलांजलि न दी।
राहुल बजाज की सिद्धान्त निष्ठा का प्रत्यक्ष परिचय मुझे 1997 में मिला। मैं महाराष्ट्र में अन्ना हज़ारे के पास था , और हिमालय में घूमने वास्ते मुझे एक मोटरसाइकिल चाहिए थी। किसी ने मुझे प्रेरित किया – दुपहिया के सबसे बड़े निर्माता बजाज के लिए एक बाइक देना ऐसा ही है, जैसे कोई हलवाई पाव भर लड्डू किसी को दे दे।
मैंने अपना परिचय देते हुए उन्हें फोन किया। बजाज सेठ तुरंत लाइन पर आए। मेरी बात सुन कर बोले – आज तक किसी को दिया नही है। स्कूटर या बाइक दान देने का सिद्धांत ही नही रखा। पर आपके लिए रास्ता निकलूंगा।
मैं उनकी सैद्धांतिक दुविधा भांप गया, और यह प्रसंग ही छोड़ दिया। बाद में उनके पार्टनर रह चुके बजाज टेम्पो के अधिष्ठाता अभय फिरोदिया ने मुझे बाइक और कार दोनों दी। लेकिन राहुल जी ने कभी ज़िक्र तक न किया। जबकि मेरे माता, पिता दोनों उनके ट्रस्ट का प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार पाने वाले शुरुआती मनुष्यों मे हैं।
“जगत से ज्योति का जेता उठा है
मनुजता का नया नेता उठा है। “
(विश्वदीपक और राजीव बहुगुणा दोनों पत्रकारिता से जुड़े हैं)