विक्रम सिंह चौहान
कोरोनाकाल में कई खबरें दब गई।कुछ दबा दी गई।ऐसी खबरें जिसे दुनिया को जानना जरूरी था,भारत के लोगों को जानना जरूरी था। पिछले दिनों सिमी से संबंध के आरोप में 20 साल तक सजा झेलने वाले और मीडिया से ,सरकार से ,बहुसंख्यक हिंदुओं से आतंकवादी का आरोप झेलने वाले 126 मुसलमानों को सूरत के एक कोर्ट ने बाइज्जत बरी किया।खबर गुजरात से आई थी तो इसे दबाना ही था ।खैर,20 साल पहले ये सभी 126 लोग जिसमें डॉक्टर, इंजीनियर, सोशल एक्टिविस्ट शामिल थे,सूरत में एक एजुकेशन प्रोग्राम में एकत्र हुए थे,सिमी के आरोप में पकड़ लिए गए।इनमें 70 साल के बुजुर्ग से लेकर 20 साल के युवा भी थे।इस खबर को मीडिया ने बहुत प्रचारित किया था।आतंकवादी पकड़े गए।मुम्बई और दिल्ली दहलाने की साजिश थी।कश्मीर से जुड़े तार फलां फलां ।अखबारों के पन्ने भर गए थे।11 महीने सभी जेल में थे,बाद में जमानत हुई तो समाज में, पास पड़ोस में लोग घूरकर देखने लगे।20 साल तक इनकी जिंदगी मौत के समान थी।अब जब बाइज्जत बरी हुए हैं तो मीडिया को सच लिखने में भी तकलीफ हो रही है।पर क्या ये सिर्फ 126 लोग हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है,जवाब है नहीं! अनगिनत मुस्लिम हैं जो जेल में बेगुनाह होने के बाद भी सजा काटी,सैकड़ों अब भी बेगुनाह होकर सजा काट रहे हैं।
पहला नाम वासिफ हैदर है।फिजिक्स और मैथ्स के साथ फर्स्ट क्लास ग्रैजुएट कानपुर के मोहम्मद वासिफ हैदर को 2001 में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने गिरफ्तार किया था हैदर पर देशद्रोह के तीन, 11 धमाके, एडीएम का मर्डर और 65 किलो आरडीएक्स की बरामदी के आरोप थे। पर पुलिस इनमें से कोई आरोप साबित नहीं कर पाया। वे निर्दोष साबित हुए और 2009 में अपने घर पहुंचे। 9 साल शायद इस ‘वतन ‘ का क़र्ज़ था उन पर जो चुका दिया जेल में रहकर। सबसे भयावह यह था कि इस दौरान उनकी बेटी की अपहरण की कोशिश भी हुई। दैनिक जागरण अब तक उन्हें आतंकवादी लिखता रहता है और उसके तार सबसे जोड़ते रहता है। इसलिए वे फिर सुप्रीम कोर्ट गए और दैनिक जागरण समूह के खिलाफ मानहानि का केस दायर किया।
ऐसी ही कहानी अनंतनाग कस्बे में रहने वाले फारुक़ अहमद ख़ान की है। खान साहब को दिल्ली लाजपत नगर ,जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के सिलसिले में 19 साल तक जेल में रखा गया। उन्हें स्पेशल टास्क फोर्स ने 23 मई 1996 को उनके घर से गिरफ़्तार किया था। फारुक़ अहमद पेशे से इंजीनियर हैं और पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के ओहदे पर काम करते थे। गिरफ़्तारी के वक़्त फारुक़ की उम्र 30 वर्ष थी। 19 साल बाद 2014 अदालत ने फारुक को उन पर लगाए गए सभी आरोपों से बरी कर दिया । जिस दिन फारुक़ के अब्बा ने बेटे की जेल की तस्वीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। देश की न्यायपालिका ने इन्हें पिता के जनाजे में जाने के लिए के लिए भी इजाज़त नहीं दी थी। फारुक़ अहमद की दो बेटियां हैं। जिस वक़्त उन्हें गिरफ़्तार किया गया था, उनकी बड़ी बेटी पांच साल की थी और छोटी तीन साल की। शायद फारूख साहब पर भी इस ‘वतन‘ का क़र्ज़ था जो उन्होंने 19 साल जेल में रहने के बाद चुका दिए।
कश्मीरी गुलज़ार अहमद वानी भी कुछ अलग नहीं हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अरबी में पीएचडी कर रहे गुलज़ार अहमद वानी को सन 2000 में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में धमाके करने के इल्ज़ाम में दिल्ली के आज़ादपुर इलाके से गिरफ़्तार किया गया। वानी को सिमी का सदस्य बताया गया। दस दिन बाद उनकी गिरफ्तारी दिखाई गई और इस दौरान उन पर थर्ड ,फोर्थ सभी डिग्री का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान एनडीए की सरकार थी। गुलजार अहमद एक स्कॉलर था और दो बार नेट की परीक्षा भी पास किया था। उसके सिर पर आतंकवादी का ठप्पा लग गया था और वो भी बिना किसी सबूत के। गुलजार ने जेल से ही पीएचडी करने की कोशिश की पर उसे करने नहीं दिया गया ,उन्होंने हिंदी में एमए भी करना चाहा ,नहीं करने दिया गया। क्योंकि वे आतंकवादी थे। एक ऐसा आतंकवादी जिसके खिलाफ कोई सबूत नहीं था। इसी तरह दिन ,महीने और साल बीतते गए और पूरे सत्रह साल बीत गए तब जाकर अदालत ने कहा गुलजार अहमद वानी आतंकवादी नहीं है। उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है।तब 26 के थे आज 47 के हैं। जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया था, उस समय वानी शादी करने की भी सोच रहे थे। रिहाई के बाद तक वे सदमे में थे। इस देश की व्यवस्था ने एक जीता जागता इंसान को जिन्दा लाश बना दिया।
दिल्ली के मोहम्मद आमिर की कहानी भी भयावह है। उन्हें दिल्ली , रोहतक , सोनीपत व गाजियाबाद में दिसंबर 1996 से दिसंबर 1997 के बीच 20 बम विस्फोटों में पांच लोगों की मौत मामले में दिल्ली की सड़क से उठा लिया गया । इसे पुलिस द्वारा अपहरण भी कह सकते हैं। तब उनकी उम्र महज 18 वर्ष थी मोहम्मद आमिर खान ने 14 साल तक लंबी लड़ाई लड़ी. उनकी ये लड़ाई आसान नहीं थी.आमिर पर बम ब्लास्ट समेत 18 केस लगाए गए थे। जनवरी 2012 को कोर्ट से आमिर को बेकसूर करार देते हुए बरी कर दिया था। बेगुनाह रहने के बावजूद इस देश ने उसे जेल में 14 साल तक क्यों रखा इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने ‘फ्रेम्ड ऐज़ ए टेररिस्ट : माई 14 ईयर स्ट्रगल टू प्रूव माई इसेंस ‘ किताब लिखी हैं ,किताब में उन्होंने अपनी जिंदगी के स्याह पन्ने पलटे। 27 फ़रवरी 1998 को आतंकवाद के आरोप में मुझे ‘किडनैप’ किया गया। सात दिनों तक गैर-कानूनी तरीके से पुलिस ने मुझे हिरातस में रखा और टॉर्चर कर ब्लैंक पेपर पर साइन करा कर झूठी कहानी बना कर मुझे जेल में डाल दिया। मैं और मेरा परिवार चौदह सालों तक इस उम्मीद के साथ ट्रायल का सामने करते रहे कि एक दिन मैं बेगुनाह साबित होऊंगा। मैं बेगुनाह साबित हुआ लेकिन तब तक बहुत कुछ बदल गया था। मेरे जेल जाने के दो साल बाद मेरे अब्बु का इंतकाल हो गया। मेरी मां ने सारी ज़िम्मेदारी संभाली और 2010 में उन्हें भी ब्रेन हेमरेज हो गया जिसके बाद वे लकवे की शिकार हो गईं। इस किताब में यही सब दर्ज़ है। पिछले दिनों एनएचआरसी के आदेश के बाद इन्हें पुलिस द्वारा 5 लाख रुपया दिया गया ,पर क्या रूपए से गुजरा हुआ वक़्त और अब्बू वापस आ सकते हैं ? बेगुनाह युवक जब घर लौटते हैं तब तक उनकी दुनिया उजड़ चुकी होती है और समाज उन्हें शक की निगाह से देखता है, जबकि वही पुलिसवाला कभी पदोन्नति तो कभी बहादुरी का मैडल अपने सीने पर लगाए फूला नहीं समाता. लेकिन उन बेगुनाहों की जेल की सलाखों के पीछे गुजरी जिंदगी को कोई लौटा नहीं सकता.
पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र के 38 वर्षीय रईस अहमद को मालेगांव मस्जिद धमाके में 2006 में एटीएस ने गिरफ्तार किया. साथ में शहर के अन्य आठ लोगों को साजिश रचने के मामले में गिरफ्तार किया गया. लेकिन जब एनआइए ने इन लोगों की रिहाई का विरोध नहीं करने का फैसला किया तो पांच साल बाद मकोका अदालत ने छोड़ दिया. लेकिन जब 16 नवंबर, 2011 को वे रिहा हुए तो उन्हें मालूम पड़ा कि उन लोगों ने क्या खो दिया है. मतदाता सूची से उनके नाम काट दिए गए थे, परिवार को मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा. परिवार में कोई रोजगार नहीं था. यूपी के रामपुर के रहने वाले 38 वर्षीय जावेद अहमद को बेगुनाह साबित होते तक 11 साल जेल में बिताना पड़ा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके बारे में अख़बारों और टीवी चैनलों में खबर भी नहीं आई और कई साल बेगुनाह होने के बावजूद जेल में रहें।
बिजनौर के 35 वर्षीय नासिर हुसैन को 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बताया गया लेकिन 14 साल के बाद वह निर्दोष साबित हुआ. युवा मकबूल शाह को अपनी जिंदगी के 14 साल तिहाड़ जेल में बिताने पड़े. उस पर दिल्ली के लाजपत नगर धमाके का आरोप था लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट ने उसे बरी कर दिया. इसी तरह अब्दुल मजीद भट जो पहले श्रीनगर में आतंकियों के आत्मसमर्पण कराने में आर्मी की मदद करते थे, लेकिन किसी बात पर आर्मी इंटेलिजेंस में तैनात मेजर शर्मा से अनबन हो गई, उसके बाद मजीद पर मानो आफत आ पड़ी. श्रीनगर में उसे पकड़वाने में नाकाम शर्मा ने दिल्ली पुलिस की मदद ली. दिल्ली पुलिस की टीम ने मजीद को श्रीनगर से उठाया, लेकिन उसे दिल्ली से गिरफ्तार बताया. लेकिन मजीद ने आरटीआइ के जरिए गाडिय़ों की लॉग बुक आदि मंगाई, जिससे पुलिस की थ्योरी गलत साबित हुई.श्रीनगर के मकबूल शाह को भी दिल्ली के 1996 के लाजपत नगर धमाके में पुलिस ने पकड़ा. मगर आरोप साबित न होने के बाद दिल्ली हाइकोर्ट ने मकबूल को बाइज्जत बरी कर दिया ,पर सिर्फ 14 साल बाद!
एक डॉक्टर साहब फ़ारसी हैं । मुस्लिमों को आतंकवादी साबित करने के जल्दबाजी में सरकार ने इन्हें भी आतंकवादी बता 5 साल के लिए जेल में डाल दिया था। फारसी के बारे में बात करना इसलिए अहम है क्योंकि उन पर आतंकी बम ब्लास्ट की साजिश का आरोप लगा था और 5 साल पहले तक वह जेल में थे। उनको 8 सितंबर, 2006 में मालेगांव के मुशवरत चौक पर स्थित हमिदिया मस्जिद के पास हुए बम ब्लास्ट के सिलसिले में जेल भेजा गया था। मालेगांव बम ब्लास्ट के आरोप में 9 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया गया था। डॉ. फारसी भी इनमें से एक थे। बाद में एनआईए की जांच में पता चला कि ब्लास्ट तो दरअसल एक हिंदू चरमपंथी संगठन ने करवाया था। खुलासे के बाद डॉ. फारसी को जमानत पर रिहा कर दिया गया।जेल से बाहर आने के बाद डॉ. फारसी को जॉब मिलना मुश्किल हो गया था। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने मस्जिद में नमाजें आयोजित कीं, यहां तक कि भेड़ें भी चराईं। सवाल फिर वहीँ पर लौट आता है कि क्या वाकई हम इनके साथ न्याय कर पाये है। शायद नहीं!
यूपी के रामपुर निवासी जावेद अहमद के साथ जो हुआ ,उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। अहमद को पाकिस्तान की एक लड़की मोबीना से प्यार हो गया। दोनों खत लिखते थे। नाम के पहले अक्षर को गोपनीयता के लिए कोड बना रखा था। पर पुलिस को इसमें आतंकी साजिश नज़र आ गई और जे और एम बनाकर जावेद को आतंकी बताया. जावेद सिर्फ इस कोड की वजह से 11 साल जेल में बिताए।
2017 को दिल्ली कि एक अदालत ने इरशाद अली और उनके साथी मौरिफ कमर को बेगुनाह करार दिया। 9 दिसंबर 2006 को दिल्ली पुलिस ने उन्हें आतंकवाद के इल्जाम में गिरफ्तार किया था। बताया गया ये दोनों प्रतिबंधित आतंकी संगठन अल-बदर के सदस्य हैं। पुलिस ने उस वक्त मीडिया को दिखाया कि गिरफ्तारी के वक्त उनके पास से पिस्तौल, गोलियां व डेटोनेटर बरामद हुए हैं। लेकिन पुलिस एक भी साक्ष्य नहीं ला पाया ,क्योंकि साक्ष्य तो था ही नहीं। यह एक मनगढंत कहानी रची गई थी। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी किया। लेकिन इस बेगुनाही की अपनी कीमत है जो इन 10 सालों में उनकों चुकानी पड़ी। इरशाद अली आज 45 साल के हैं जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उनकी उम्र 29 साल थी। खुद को बेगुनाह साबित करने की अदालती लड़ाई में उन्होंने चार साल 3 महीना जेल में गुज़ारे। इस दौरान अपनी इकलौती बेटी और मां बाप को खो दिया। अपनी जिंदगी की भारी जमा पूंजी अदालती कार्यवाही में खपा दी। आखिरकार उन्हें इंसाफ मिला। लेकिन सच बताइये क्या इसे आप इंसाफ कहेंगे? मेरा सवाल इस देश से यही हैं कि इन बेगुनाह मुस्लिमों पर इस ‘वतन’ का कौन सा कर्ज़ है जो इन्हें जेल में सड़ाकर वसूला जा रहा है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एंव एक्टिविस्ट हैं, ये उनके निजी विचार हैं)