सिद्धार्थ रामू
राजनीति, मीडिया और सर्वोच्च न्यायपालिका पतन की पराकाष्ठा पर क्यों पहुंची, नौकरशाही इतनी रीढ़ विहीन कैसे हो गई, अकादमिक जगत का एक बड़ा हिस्सा क्यों और कैसे सत्ता के सामने साष्ट्रांग दंडवत करने लगा? साहित्याकारों-बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा इतना कमजोर एवं पिलपिला क्यों दिख रहा है और अधिकांश पत्रकार, पत्रकार की जगह बिचौलिए और दलाल कैसे बन गए? ट्रेड यूनियनों के अधिकांश नेता मजदूर नेता कम बिचौलिए-दलाल की भूमिका में कैसे आ गए? व्यक्तिगत तौर पर समाज में इतनी आत्म केंद्रियता और आत्ममुग्धता की वजह क्या है? सामाजिक जीवन में बर्बरता और व्यक्तिगत स्वार्थ इतना हावी कैसे हो गया?
पिछले 20 वर्षों और खासकर कैसे पिछले 6 वर्षों में यह अपनी पराकाष्ठा पर कैसे पहुंच गई? ये या ऐसे अन्य सवाल शायद बहुतों के मन में आते होंगे। मुझे इसके दो तात्कालिक कारण दिखते हैं- 1990-1991 में भारत में दो परिघटनाएं-हिंदू राष्ट्रवाद ( कमंडल) और नवउदारवाद- एक साथ उभार। इन दोनों ने मिलकर आज के भारत का निर्माण किया है। यहां यह ध्यान में रखना जरूरी है कि भारत में राजनीतिक लोकतंत्र एक अलोकतांत्रिक समाज व्यवस्था और अलोकतांत्रिक मानस पर पहले से खड़ा था।
1989-1990 के समय से आरएसएस की विचाराधार ( कमंडल की विचारधारा) का भारत पर प्रभाव तेजी से बढ़ता गया। संघ की विचारधारा भारत की सबसे प्रतिक्रियावादी और पतनशील विचारधारा रही है। संघ की विचारधारा का धीरे-धीरे भारत पर प्रभाव बढ़ता गया इसने करीब पूरे अपराकॉस्ट अपने साथ कर लिया और इसने अपने आगोश में पिछड़ों-दलितों के भी एक हिस्से को भी ले लिया। खासकर पिछड़ों के एक बड़े हिस्सों को। अधिकांश राजनीतिक दलों ने धीरे-धीरे इसके सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया। एक हद तक संसदीय वामपंथियों ने भी।
1990-1991 में ही विश्वव्यापी स्तर पर नवउदारवादी विचारधारा ताकत के साथ उभरी। जिसकी नींव भारत में पी. वी. नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने डाली, जिसका निहितार्थ था, सबकुछ बाजार के हवाले। जिसको मोदी जी ने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया है। नवउदारवाद पूंजीवाद का सबसे अबतक का सबसे प्रतिक्रियावादी और पतनशील चरण रहा है। नवउदार बाजारवादी विचारों एवं मूल्यों को भी सभी पार्टियों ने स्वीकार कर लिया।
भारत में उपर्युक्त दोनों परिघटनाओं का पूरी तरह मेल 2014 में हो गया और उसके प्रतीक पुरूष बनकर मोदी जी उभरे। संघ की अपरकास्ट केंद्रित पतनशील हिंदू विचारधारा एवं मूल्यों और नवउदारवाद के बाजार आधारित मुनाफा एवं उपभोक्तावाद आधारित विचारों एवं मूल्यों के मेल ने भारत की सारी आधुनिक लोकतांत्रिक संस्थाओं, आदर्शों और मूल्यों को निगल लिया। समाज में किसी आदर्श, महान मूल्यों और उच्च स्वप्न के लिए कोई जगह नहीं बची। इसने लोगों को आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आदर्शों एवं मूल्यों से हीन व्यक्तित्वों में बदल दिया। देश एक अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ रहा है,इस स्थिति को महान स्वप्नों, आदर्शों, विचारों और आदर्शों पर आधारित जनांदोलन ही बदल सकता है। वर्तमान पार्टियों में से इस या उस पार्टी के आने-जाने से कोई बुनियादी फर्क या बडे स्तर का मात्रात्मक फर्क भी नहीं पड़ने वाला है।
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस मैग्ज़ीन के संपाद हैं, ये उनके निजी विचार हैं)