नई दिल्लीः दो दिन की उत्तराखंड की यात्रा से लौटे आज़ाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद ने 9 मई को शर्म दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है। चंद्रशेखर की यह मांग यूं ही नहीं है, दरअस्ल 9 मई 1980 को उत्तराखंड जनसंहार की एक घटना घटी थी। इसी का उल्लेख करते हुए चंद्रशेखर ने कहा कि यह घटना बहुत ही विचलित करने वाली है। 9 मई 1980 उत्तराखण्ड के इतिहास की सबसे काली तारीखों में से एक है। इस दिन कुमाऊं के कफल्टा (Remembering Kafalta Massacre) नाम के एक छोटे से गाँव में थोथे सवर्ण जातीय दंभ ने पड़ोस के बिरलगाँव के चौदह दलितों की नृशंस हत्या कर डाली थी। इसके बाद देश भर का मीडिया वहां इकठ्ठा हुआ था। दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को भी मौके पर पहुंचना पड़ा था।
चंद्रशेखर बताते हैं कि देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखण्ड की सतह ऊपर से कितनी ही मानवीय और मुलायम दिखाई दे (Remembering Kafalta Massacre) सच तो यह है कि यहाँ के ग्रामीण परिवेश में सवर्णों और शिल्पकार कहे जाने वाले दलितों के सम्बन्ध सदी-दर-सदी उत्तरोत्तर खराब होते चले गए हैं। इस बात की तस्दीक एटकिन्सन का हिमालयन गजेटियर भी करता है। इन तनावपूर्ण लेकिन अपरिहार्य रिश्तों पर कफल्टा में पुती कालिख अभी तक नहीं धुल सकी है। सारा मामला एक बारात को लेकर शुरू हुआ था। लोहार जाति से वास्ता रखने वाले श्याम प्रसाद की बारात जब कफल्टा गाँव से होकर गुजर रही थी तो गाँव की कुछ महिलाओं ने दूल्हे से कहा कि वह भगवान बदरीनाथ के प्रति सम्मान दिखाने के उद्देश्य से पालकी से उतर जाए।
आज़ाद समाज पार्टी के प्रमुख ने आगे बताया कि चूंकि मंदिर गाँव के दूसरे सिरे पर था, दलितों ने ऐसा करने से मना कर दिया और जहा कि दूल्हा मंदिर के सामने पालकी से उतर जाएगा। इससे बौखलाई महिलाओं ने गाँव के पुरुषों को आवाज दी जिसके बाद गाँव में उन दिनों छुट्टी पर आये खीमानन्द नाम के एक फ़ौजी ने जबरन पालकी को उलटा दिया। ब्राह्मण खीमानन्द की इस हरकत से नाराज हुए दलितों ने उस पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी मृत्यु हो गई। अब बदला लेने की बारी ठाकुरों और ब्राह्मणों की थी। अपनी जान बचाने को सभी बारातियों ने कफल्टा में रहने वाले इकलौते दलित नरी राम के घर पनाह ली और कुंडी भीतर से बंद कर दी। ठाकुरों ने घर को घेर लिया और उसकी छत तोड़ डाली। छत के टूटे हुए हिस्से से उन्होंने चीड चीड़ का सूखा पिरूल, लकड़ी और मिट्टी का तेल भीतर डाला और घर को आग लगा दी। छः लोग भस्म हो गए और जो दलित खिड़कियों के रास्ते अपनी जान बचाने को बाहर निकले उन्हें खेतों में दौड़ाया गया और लाठी-पत्थरों से उनकी हत्या कर दी गयी। इस तरह कुल मिलाकर 14 दलित मार डाले गए।
चंद्रशेखर ने बताया कि इस घटना में दूल्हा श्याम प्रसाद और कुछेक बाराती किसी तरह बच भागने में सफल हुए। इन भाग्यशालियों में 16 साल का जगत प्रकाश भी था। घटना के कई वर्षों के बाद एक पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए उसने कहा था – “कुछ देर तक भागने के बाद मेरी सांस उखड़ गई और ठाकुरों ने मुझे पकड़ लिया। वे मुझे वापस गाँव लेकर आये और मुझे उस जलते हुए घर में फेंकने ही वाले थे जब हरक सिंह नाम के एक दुकानदार ने पगलाई भीड़ को ऐसा करने से रोका और मुझे गाय-भैंसों वाले एक गोठ में बंद कर दिया। तीन दिन बाद मुझे पुलिस ने बाहर निकाला तो मैंने लाशों की कतार लगी हुई देखी!”
मानवता को शर्मशार करने वाली इस घटना में मारे गए लोगों में से दस एक ही परिवार के थे। बाकी उनके रिश्तेदार थे। मृतकों में बन राम, बिर राम, गुसाईं राम, मोहन राम, भैरव प्रसाद, सारी राम, मोहन राम, बची राम, माधो राम, राम किशन, झुस राम, प्रेम राम, रामप्रसाद, गोपाल राम शामिल थे।
इस घटना ने सारे देश को थर्रा दिया था। बाद में मुकदमे चले और निचली अदालत के साथ साथ हाईकोर्ट ने भी सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया लेकिन अंततः 1997 में न्याय हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने सोलह आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई। इन में से तीन की तब तक मौत हो चुकी थी। चंद्रशेखर कहते हैं कि 9 मई उत्तराखण्ड के लिए सामूहिक शर्म का दिन होना चाहिए। मैं अपने सभी साथियो के साथ आज ये संकल्प लेता हूं कि उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रो की तरह, उत्तराखंड के सभी पहाड़ी क्षेत्रो में भी, अब भीम आर्मी व आजाद समाज पार्टी को मजबूती देने के लिये सँघर्ष शुरू किया जायेगा।