हम खेत किसानी वाले हैं सोने की फसल उगा देंगे

शकील अख्तर

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सबसे पहले तो किसानों के बेटे जिन्दाबाद! एथलेटिक्स में भारत को  नीरज चोपड़ा ने पहला और वह भी सीधे सोने का पदक दिलाया। किसान पिता की फसल सोना बन गई। बजरंगी पुनिया और रवि दहिया भी मेहनतकश किसानों के बेटे हैं। बाक्सिंग और वेट लिफ्टिंग में मैडल दिलाने वाली लड़कियां भी मेहनती परिवारों से हैं। पुरुष और महिला दोनों हाकी टीमों के अधिकांश खिलाड़ी भी इसी बैक ग्राउन्ड के हैं। इन सबकी मेहनत को सलाम। शायद यह सही समय है देश में एक नई खेल नीति को बनाने और गांव तथा गलियों से खिलाड़ियों को खोजने का। उम्मीद है खुशी के इस नायब मौके पर किसी दूसरे की लकीर छोटी करने की कोशिश नहीं की जाएगी। और खेल एवं खिलाड़ी पर ही फोकस किया जाएगा। देश में 13 साल बाद गोल्ड आया है और मोदी सरकार के लिए भी ये खेलों के विकास के लिए एक गोल्डन मौका है। सरकार क्या और कैसी करेगी यह देखना होगा। अभी तो बस यही कह सकते हैं कि जैसा खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदला वैसा कुछ गिमिक्स (बाजीगिरी) अब सरकार नहीं करेगी! राजीव गांधी का नाम हटाने के बाद गोल्ड जीतने को जिस तरह उससे जोड़ा जा रहा है यह नीरज की मेहनत और प्रतिभा का अपमान है। भक्तों को खुश करने के लिए अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।

खैर भारत रत्न देने के बदले नाम बदल दिया। ठीक है। मगर ध्यानचंद का सम्मान और हाकी के लिए करने को अभी बहुत कुछ है। ध्यानचंद के शहर झांसी में उनके नाम पर एक हाकी अकादमी बनाना स्थाई महत्व का काम हो सकता है। जैसे बाल को स्टिक से चिपकाकर ध्यानचंद विपक्षी गोल तक चार चार, पांच पांच, खिलाड़ियों को डाज देते हुए चले जाते थे वैसे ही उनके बेटे अशोक कुमार भी डिब्रलिंग करते थे। और झांसी में गली गली में बच्चे हाकी नुमा लकड़ी से खस्ताहाल गेंद या किसी भी लुढ़कने वाली चीज से ऐसी ही जादू भरी कलाकारी करते रहते हैं।

मेजर ध्यानचंद और कैप्टन रूप सिंह की झांसी कभी हाकी की नर्सरी थी। वहां हाकी के लिए सबसे ज्यादा काम रेलवे ने किया। हर अच्छे खिलाड़ी को नौकरी दी। मगर अब रेल्वे और दूसरे विभागों का जिस तरह निजीकरण किया जा रहा है उसके बाद खिलाड़ियों के लिए नौकरी एक बड़ी समस्या बन जाएगी। पब्लिक सेक्टर में स्टेट और नेशनल खेले खिलाड़ियों को भी एडजस्ट कर लिया जाता था। मगर वे भी सब अब निजी हाथों में जा रहे हैं। इसके लिए किसी नीति की घोषणा होती और उसका नाम मेजर ध्यानचंद खिलाड़ी रोजगार योजना या कुछ और रखा जाता था तो खेलों में अनिश्चित भविष्य से डरे हुए मां बापों में बच्चों को खिलाने का हौसला बढ़ता। खेलों में एक नारा है कि कैच देम यंग!

7- 8 साल की उम्र में लड़कों को 5- 6 साल की उम्र में लड़कियों को पकड़ना होता है। तराशने का काम उसी उम्र से शुरू होता है। उसके लिए स्पोर्टस् स्कूल जरूरी हैं। जो हर खेल की नर्सरी जैसे हाकी के लिए झांसी, भोपाल, जालंधर, कुश्ती के लिए हरियाणा में कम से कम तीन कुश्ती स्कूल, लड़कियों की बाक्सिंग और वेट लिफ्टिंग के लिए नार्थ ईस्ट में कई खोले जाना चाहिए। ये वर्तमान स्टेबलिशमेंट के अतिरिक्त होना चाहिए। नए! ऐसे ही कोचों के लिए भी पटियाला से ज्यादा उन्नत प्रशिक्षण सेंटर। विदेशी कोच क्लब, जिला या राज्य स्तर पर नहीं रखे जा सकते। बहुत मंहगे होते हैं। अपने कोच बड़ी तादाद में तैयार करना होंगे। अच्छे और किसी भी आधाऱ पर भेदभाव न करने वाले कोचों का हमारे यहां बहुत अभाव है। गरीब का, किसान का, दलित, पिछड़े का बच्चा कोच के प्रोत्साहन से बढ़ता है और उसकी टेड़ी निगाहों से मुरझा जाता है। विदेशी कोच भेदभाव नहीं करते।

क्या आपने कभी पार्क में मैदान में या गलियों में लड़कियों को खेलते देखा है? 5- 6 साल से लेकर टीन एज आने तक लड़कियां किसी भी खेल में लड़कों से कम दम के साथ खेलती नहीं दिखेंगी। स्किल वाले खेलों में तो अपने हमउम्र या दो तीन साल बड़े लड़कों से भी बेहतर। कई लड़कियां बाद में भी प्रेक्टिस के लिए लड़कों के साथ खेलती हैं और बहुत बेहतर परफार्म करती हैं। मगर हमारे यहां जो सामाजिक स्थितयां हैं वे कितनी भयानक हैं इसका एक नया रूप अभी हम सबने देखा। महिला हाकी में हेट ट्रिक लगाने वाली लड़की वंदना कटारिया के घर जाकर उसके परिवार को गालियां दी गईं। कपड़े उतार कर नाचा गया। क्यों? थैक्स टू द आईटी सेल के फारवर्ड व्हट्स एप मैसेज और जहरीला मीडिया। नफरत और विभाजन का ऐसा माहौल बना दिया है कि भक्त लोग कुछ भी कर सकते हैं। वंदना के यहां आतंक फैलाने वाले खुले आम कह रहे थे कि दलित टीम में क्यों हैं?  इनकी वजह से ही हम हारे। ऐसा अपमान! ऐसे घटिया आरोप!  लेकिन क्या किसी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई? प्रधानमंत्री, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री, खेलमंत्री ने निंदा की?

रोहित वेमूला होस्टल से डा आम्बेडकर का बड़ा चित्र हाथ में लेकर निकला था। ऐसे ही जातिगत अपमान के विष बुझे तीरों से जख्मी। नहीं सह सका। आत्महत्या कर ली। क्या हुआ? संसद में उस दिन जिसने तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के उत्तेजित तेवर देखे होंगे उन्हें याद होगा कि किस तरह इस दर्दनाक घटना के लिए वेमुला और उसके परिवार को ही दोषी ठहराया गया था। ईरानी आरोप उन लोगों पर लगा रहीं थी जो जांच की मांग कर रहे थे। ये उल्टा चोर कोतवाल को डांटे से बहुत आगे की बात है। एकलव्य के उदाहरण को याद दिलाने की कोशिश है।

ओलंपिक में खेले जाने वाले खेलों में कौन खेलता है? मेहनतकश परिवारों के बच्चे। ये दम खम वाले खेल हैं। जहां सुविधाएं कम, भविष्य अनिश्चित मगर मेहनत भरपूर है। अब दलित और ओबीसी बच्चे जब इन खेलों में ज्यादा आने लगे तो हाकी में परिवर्तन की एक झलक सबने देखी। गर्व करने में तो सबको मजा आ रहा है। मगर इन परिवारों को मिलने वाली गालियों से कितने लोग आहत हुए? वंदना जब हरिद्वार में अपने घर जाएगी तो क्या भावनाएं होंगी? मेरी वजह से परिवार को गालियां खाना पड़ीं। मगर मैं तो अच्छा खेली थी। चार गोल किए। सबसे ज्यादा। फिर हमें गालियां क्यों दी गईं? है कोई है जो इसका जवाब देने हरिद्वार उसके घर जाए। गले लगाकर बोले कि गलती आपकी नहीं हमारी है। हमारे जहरीले सोच की है। दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलाई जाएगी। एक मिसाल कायम की जाएगी कि देश में कोई ऐसा बोलने की हिम्मत नहीं करे। हालांकि यह पहली घटना नहीं है। पहले भी इसी तरह हार के लिए या पेनल्टी स्ट्रोक चूकने के लिए खिलाड़ी के पूरे समुदाय को निशाने पर लेने की कोशिश की जाती थी। मगर उस समय नफरतें ऐसी नहीं थी। इसलिए नफरतियों का विरोध भी होता था।

अभी तो खेलों में दलित ओबीसी के आने की शुरूआत हुई है। जैसे जैसे इन बच्चों की तादाद बढ़ेगी विरोध बढ़ेगा। क्योंकि इन बच्चों की प्रतिभा और मेहनत कथित मेरिट सिद्धांत की कलई खोल देता है। नौकरियों और उच्च शिक्षा में कहा जाता है कि आरक्षण मेरिट को मार रहा है। लेकिन खेलों में आमतौर पर मैरिट ही है। आमतौर पर इसलिए कहा कि यहां भी सिफारिश और तिकड़में बहुत चलती हैं। और इस मामले में कमजोर पृष्ठभूमि से आए बच्चे हमेशा नुकसान उठाते हैं। विनोद कांबली का उदाहरण सबके सामने हैं। सचिन से बहुत बेहतर रिकार्ड के बावजूद वह गुमनामी में खो गया। और सचिन भारत रत्न के साथ राज्यसभा भी पा गया। कांग्रेस के बाद अब भाजपा सरकार की भी गुड लिस्ट में है और अभी कुछ और भी पा सकता है। जिन परिवारों, समुदायों की खेल पृष्ठभूमि नहीं होती उनके लिए यहां भी बहुत मुश्किलें हैं। संयोग से किसी को कोई अच्छा कोच मिल जाए तो बात दूसरी है। नहीं तो द्रोणाचार्य ठीक मौके पर एकलव्य का अंगुठा लेकर अर्जुन को आगे बढ़ा देते हैं। मगर ओलम्पिक में तो सिर्फ और सिर्फ खेल ही चलता है इसलिए इतने सालों से हम चंद पदकों से ही खुश हो जाते हैं। प्रतिभा की हमारे यहां कमी नहीं है। मगर उसे ढूंढना गावों में गलियों में पड़ेगा।

अभी कुश्ती में और भाला फेंक में मैडल जीतने वाले सब लड़के किसान परिवारों के हैं। बजरंग पुनिया ने तो हरियाणा सरकार द्वारा किसानों को रोकने के लिए सड़कें खुदवाने और अवरोधक लगाने का विरोध करते हुए कहा भी था कि किसानों को मत रोको। उसकी बात सुनो। बाक्सिंग, वेट लिफ्टिंग में जीतने वाली लड़कियां पहाड़ों की कठिन जिन्दगी से हैं। सब मेहनतकश परिवारों के। किसी पूंजीपति के बच्चे इनमें नहीं हैं। शोषकों में से कोई खेल की ऊंचाईयां नहीं छू सकता!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)