बिहार में महागठबंधन की हार का ठीकार ओवैसी के सर फोड़ने से पहले, इन सवालों के जवाब तलाशें?

asaduddin owaisi

श्याम मीरा सिंह

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राजनीति में विमर्शों का महत्वपूर्ण स्थान होता है, ऐसा ही एक विमर्श चला है कि ओवैसी की पार्टी AIMIM की वजह से महागठबंधन बिहार विधानसभा चुनाव हार गया। एक और विमर्श है जो कुछ पुराना है कि AIMIM बीजेपी की बी पार्टी है। जबकि इस बात में एकदम सच्चाई नहीं है लेकिन भाजपा विरोधी बड़ी पार्टियां अक्सर इस विमर्श को चुनावों के ठीक पहले और चुनावों के ठीक बाद में उछालती हैं। खासकर हिंदुओं की वे पार्टियां जो निहायत जातिगत मोर्चे पर लड़ती आ रही हैं। जिस तरह मुसलमानों को दीवाली से ठीक पहले दाढ़ी पकड़ पकड़कर टारगेट किया जा रहा है उससे ये तो स्पष्ट है ही कि बहुसंख्यक समाज मुसलमानों को इस देश के स्वतंत्र नागरिक के रूप में स्वीकार नहीं करता। लेकिन जिस तरह चुनावों के वक्त मुसलमानों की एकमात्र पार्टी AIMIM को टारगेट किया जाता है उससे अब ये भी स्पष्ट हो चला है कि भाजपा के साथ साथ हिंदुओं की जाति आधारित पार्टियां, मुसलमानों के स्वतंत्र राजनैतिक आस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करतीं।

उन्हें वैसा मुसलमान चाहिए जो विपक्षी पार्टी भाजपा को हराने के लिए उनका साथ दे सके, उन्हें वोट कर सके। अब आप बिहार चुनाव को थोड़ा ज़ूम करके देखिए। सर्वविदित है कि भाजपा हिंदुत्व की खाल में ऊंची जातियों के वर्चस्व को बचाए रखने के लिए रची गई एक पार्टी है। मुसलमानों के प्रति उसकी घृणा खुले में है, वह इसे कभी छुपाती भी नहीं। उसकी पार्टी के नेता, विधायक, मंत्री, सांसद और कार्यकर्ता भी सहर्ष स्वीकारते हैं कि वे मुसलमानों से नफरत करते हैं।

भाजपा की जीत के तुरंत बाद AIMIM से प्रश्न किया जाता है कि वह भाजपा को हरवाने में साथ आकर क्यों नहीं लड़ी, अकेले क्यों लड़ी। लेकिन ऐसा कब होगा जब भाजपा को जिताने के लिए हिन्दू ओबीसी और दलितों की पार्टियों से प्रश्न किया जाएगा? सबसे पहले भाजपा समर्थित राजनीतिक पार्टियों पर नजर डालिए, नीतीश की जाति कुर्मी है, जिनकी राज्य में जनसंख्या चार से पांच प्रतिशत बताई जाती है। लेकिन राजनीतिक तौर पर जदयू के रूप में उनका स्वतंत्रत अस्तिस्त्व है। राजनैतिक तौर पर वे इतने मजबूत हैं कि उनकी जाति का नेता बीते 15 साल से मुख्यमंत्री है। ऐसे ही चिराग पासवान की जाति “पासवान” की जनसंख्या राज्य में मात्र चार से पांच प्रतिशत के बीच में है लेकिन राजनीतिक रूप से उनके आस्तित्व को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता मिली हुई है जबकि इसबार के चुनाव में उन्हें मात्र एक सीट मिली है, पिछले चुनावों में भी पासवानों की पार्टी लोजपा को मात्र दो सीटें मिलीं थीं। बावजूद इसके प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर सीटों के बंटवारों में पासवानों की सुनी जाती है। लेकिन कोई ये नहीं कहता कि दलितों, मजलूमों की बात करने वाली लोजपा भाजपा को जिताने के लिए जिम्मेदार है, कोई नहीं कहता कि दलितों की पार्टी लोजपा भाजपा की बी टीम है। कोई प्रश्न नहीं करता कि हमेशा मुसलमानों की वोट लेने वाले, सांप्रदायिकता के आधार पर मोदी का विरोध करने वाले कथित सेक्युलर नेता नीतीश कुमार मोदी के साथ कैसे हो गए? किसी ने जदयू को भाजपा की बी टीम नहीं कहा। क्यों? क्योंकि कुर्मियों और पासवानों के स्वतंत्र राजनीतिक आस्तित्व से हमें कोई परहेज नहीं है।

दूसरी तरफ महागठबंधन से अलग होकर लड़ने वाले दलित नेता जीतन राम मांझी की पार्टी का नाम हम है, मांझी की पकड़ मुसहर जाति पर मानी जाती है जिसकी बिहार में जनसंख्या महज 3 प्रतिशत करीब है। लेकिन कोई नहीं कहेगा कि वे भाजपा की बी पार्टी हैं। 3 प्रतिशत जाति की पार्टी का स्वतंत्रत अस्तित्व सबको स्वीकार है। इसी प्रकार उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली रालोसपा महागठबंधन के खिलाफ लड़ी, कुशवाहों की राज्य में जनसंख्या करीब 8 प्रतिशत मानी जाती है लेकिन इनसे भी कोई नहीं कहेगा कि सवर्णों के वर्चस्व वाली पार्टी भाजपा से लड़ाई में आप साथ क्यों नहीं आए? किसी ने नहीं कहा कि रालोसपा भाजपा की बी टीम है। करीब 5 प्रतिशत जनसँख्या वाले निषादों की भी अपनी स्वतंत्रत पार्टी है, अपना स्वतंत्र नेता है। निषादों की पार्टी का नाम है “वीआईपी”(विकासशील इंसान पार्टी) इसके नेता हैं मुकेश साहनी। जो एन मौके पर महागठबंधन से हटे, और भाजपा की गोद में ही झूला झूलते रहे। वीआईपी भी महागठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ी और 4 सीटें जीतकर आई। लेकिन किसी भी राजनीतिक विश्लेषक ने वीआईपी को भाजपा की बी टीम नहीं कहा। न ये कहा कि अगर ये लोग महागठबंधन के खिलाफ न लड़ते तो महागठबंधन जीत जाता।

कुल जमा कहानी ये है कि 3-3, 4-4 प्रतिशत वाली हिन्दू जाति आधारित पार्टियों को चुनावों में लड़ने की आजादी है। स्वतंत्र रूप से अपनी पार्टी और अपना नेता चुनने की भी आजादी है लेकिन बिहार राज्य में 16.5 प्रतिशत जनसंख्या वाले सबसे बड़े मानवीय समूह मुसलमानों को अपनी पार्टी चुनने का अधिकार नहीं है। उन्हें हिन्दू जातिगत पार्टियों के पुछलग्गु वोटरों से ज्यादा देखा जाना राजनीतिक विश्लेषक पसन्द नहीं करना चाहते, न राजनीतिक पार्टियां चाहतीं। भाजपा विरोधी अधिकतर हिंदुओं को पच नहीं रहा है कि आखिर मुसलमानों ने अपनी पार्टी, अपने नेताओं को स्वतंत्र तौर पर वोट क्यों दिया। जबकि सीमांचल वाले इलाके को छोड़कर जहां AIMIM लड़ी है, मुसलमानों ने महागठबंधन के प्रत्याशियों को ही वोट दिया है। लेकिन हिन्दू जाति आधारित पार्टियां मुसलमानों से और अधिक त्याग चाहती हैं। लेकिन अपने स्वार्थ में कोई कमीं नहीं रखना चाहतीं। क्या भाजपा को हराने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों की है? दलितों और ओबीसी जातियों की नहीं? पासवानों, मुसहरों की नहीं? कुशवाहों, निषादों, कुर्मियों की नहीं?

आप कब तक मुसलमानों को पिछलग्गू की भूमिका में ही देखना चाहते हैं? भाजपा मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाकर हिंदुओं से वोट लेती है, आप मुसलमानों में भय फैलाकर मुसलमानों की वोट ऐंठते हैं। आपने 4-4 प्रतिशत जनसँख्या होने पर भी अपनी स्वतंत्र पार्टियां बना रखी हैं, जिसके आधार पर राजनीतिक वर्चस्व बना रखा है, आपकी जातियों के नेता विधायक और सांसद बनते हैं उसी हिसाब से आपकी पार्टियां, आपकी जातियां सहूलियतें प्राप्त करती हैं। आज आपकी स्वतंत्र पार्टियां हैं, विधानसभा में आपकी पार्टी के नेता हैं, आप राष्ट्रीय पार्टियों से सम्बंध बनाकर अपनी जातियों के लिए हित-लाभ बार्गेनिंग करने की स्थिति में हैं। लेकिन मुसलमान क्या करे? वह सिर्फ आपकी जातियों के नेताओं को वोट करता रहे?

अब तक मुसलमान दलितों के लिए वोट करते आए हैं, दलित विधानसभा और संसद पहुंचे हैं, अब तक मुसलमान ओबीसी जातियों के नेताओं को वोट करते आए हैं ओबीसी जातियों के नेता विधानसभा और संसद पहुंचे हैं। ऐसा कब होगा जब दलित और ओबीसी जातियां अपने वोट मुसलमानों को देंगी। ताकि मुसलमान भी विधानसभाओं में लामबंदी कर सकेंगे, अपने समाज के लिए रियायतें मांग सकेंगे, अपने समाज के उत्पीड़न के खिलाफ सड़क के अलावा सदन में भी लड़ सकेंगे।

औवेसी को मिलीं ये 5 सीटें इस पहल की शुरुआत करती हैं। अच्छा रहेगा कि आप उसे बी टीम कहना बन्द कर दें। मुसलमानों के स्वतंत्र अस्तित्व को तो आप क्या ही स्वीकार करेंगे लेकिन कम से कम उनके स्वतंत्र राजनीतिक आस्तित्व को तो स्वीकार करना सीख लीजिए। कोई पूरी कौम हमेशा हमेशा के लिए आपकी पिछलग्गू बनकर अधर में लटकी नहीं रह सकती। मुसलमानों को भी राजनिति करने दीजिए। आप 4 प्रतिशत जनसंख्या होकर राजनिति कर सकते हैं वे 16 होकर भी न करें? आखिर उनके लोग जब विधानसभा, राज्यसभा, संसद पहुंचेंगे तो बाकी पार्टियों से बार्गेनिंग भी कर पाएंगे, गठबंधन भी कर पाएंगे, इधर-उधर मिल मिलाकर कभी सरकार में भी आ पाएंगे। उनके समाज को भी कुछ सहूलियतें मिल सकेंगी। किसी कौम को राजनैतिक आजादी होगी तो वह स्वयं सामाजिक और आर्थिक आजादी अर्जित कर लेगी। आप ओवैसी को भाजपा की बी टीम कहकर मुसलमानों के स्वतंत्र राजनीतिक आस्तित्व को नकारना बन्द कर दीजिए। यही अहसान होगा इस लोकतंत्र के लिए। जहां सबको गाने-बजाने की आजादी है।

(लेखक युवा पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)