विश्वदीपक का सवाल: संसद की सीढ़ियों पर सिर झुकाने का रहस्य अब समझ आया?

क्या विडम्बना और क्या दुत्कार है कि जिस मीडिया ने उस झुके हुए सिर को हज़ारों बाद लूप करके चलाया था, आज वही मीडिया उन सीढ़ियों तक भी नहीं पहुंच पा रहा.

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क्या आप जानते हैं कि संसद में मीडिया का प्रवेश अब प्रतिबंधित है? सिर्फ़ सरकारी मीडिया और एजेंसी को छोड़कर बाकी लोगों को हर दिन पास का इंतजाम करना होता है.

इतना होता तो भी ठीक था. बेइज्जती का आलम यह है कि लोकतंत्र के मंदिर की सीढ़ियां चूमने वाले प्रधान सेवक की सरकार ने संसद का पास देने के लिए भी लॉटरी सिस्टम लगाया है.

लॉटरी में आपका नाम आया तो आप संसद के अंदर जा सकते हैं नहीं तो बॉस से डांट खाने या नौकरी से निकाले जाने का इंतज़ार कीजिए.

कितने पास एक दिन में इश्यू किए जाएंगे यह लोकसभा या राज्यसभा सेक्रेटेरिएट का अधिकारी बताएगा. कोटा सरकार ने ही तय किया है.

पत्रकार किसी तरह जुगाड लगाकर स्टोरी फाइल करते हैं. अगर स्टोरी फाइल नहीं होगी तो नौकरी चली जाएगी.

बहाना महामारी का था लेकिन महामारी तो सिर्फ पत्रकारों को घेरती है! बात भी सही है कि नेताओं को कम बीमारियां होती हैं. उनकी औसत उम्र ज्यादा होती है, वो ज्यादा स्वास्थ्य और खुशहाल होते हैं — यह मेरा, आपका, देखा जाना हुआ सच है.

एक तो कम्युनिस्ट दूसरा केरल का. सीपीआई के सांसद बिनॉय विस्वाम के सामने जब यह मुद्दा लाया गया तो उन्होंने चिट्ठी लिखकर फ़्री एंट्री की मांग की. फिर कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने भी लिखा. आखिरी में प्रेस क्लब,जिसके हम सब मेंबर हैं, वह भी नींद से जागा और उसने भी चिट्ठी लिखी.

इस देश में अब मीडिया की औकात भक्त से ज्यादा की नहीं रह गई. यह पढ़ते वक्त, यह भी याद रखियेगा कि यही मीडिया थी जिसने मनमोहन सिंह की सरकार को हिला दिया था. आज भारत की वहीं मीडिया अपने अस्तित्व पर शर्मिंदगी महसूस तो करता है लेकिन का नहीं सकता. सरकार के ख़िलाफ़ लिखने, बोलने का साहस तो दूर की बात है.

अंतर कहां पैदा हुआ ? यह अंतर असल में मनमोहन सिंह और मोदी के बीच का अंतर है.

(लेखक जाने-माने पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)