उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान को डूब कर सुनिए, आप उन्हें देख तक सकते हैं.

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उस्ताद गाना शुरू करते हैं लगता है जैसे कोई बड़े इत्मीनान से लम्बे सफ़र पर निकल रहा हो. महबूब के घर की डगर बेहद जानी-पहचानी है. तबला सुर में लाया जा रहा है, साजिन्दे साज़ दुरुस्त कर रहे हैं. पहली बार उन्हें सुननेवाले को लगेगा उस्ताद के कदमों में शुरुआती लापरवाही है – यह लापरवाही नहीं है – वे सोच रहे हैं घर से निकलते हुए कोई ज़रूरी चीज़ छूट तो नहीं गयी, जिसकी बाद में रास्ते में जरूरत पड़े और यात्रा का आनंद कम हो जाय.

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नहीं, सारा साज़-ओ-सामान साथ है. उनके कदमों में ठोस यकीन की झलक दिखाई देने लगती है.

मुख्य रास्ता जाना-पहचाना है और जब-तब उसमें से तमाम छोटे-बड़े और भी रास्ते फूटते हैं. इनमें से कई अदेखे-अनजाने हैं. उनमें जाने और उनके भीतर के जीवन को देखने-खोजने का आकर्षण बहुत ज़बरदस्त है लेकिन वे उनमें नहीं जाते. अलबत्ता हरेक रास्ते का फूटना उनके मस्तिष्क में दर्ज होता जाता है. ऐसा थोड़ी देर चलता है लेकिन साजिंदों की जिद और उनकी अपनी इच्छा अंततः जीत जाती है.

लीजिये वे मुख्य रास्ता छोड़कर उस मेहराबों-गुम्बदों वाली तंग गली में प्रवेश कर रहे हैं – भीतर एक शिवालय है, एक छोटा बाज़ार, लोग, एक मस्जिद, पानी की तलैया, एक सघन अमराई और फिर एक खूब चौड़ा मैदान.

मंजिल तो महबूब के आस्ताने पर है सो यहाँ देर तक घूमना-टहलना ठीक नहीं रहेगा – उस्ताद फिर से मुख्य रास्ते का रुख करते हैं. मुख्य रास्ते पर चलते रहने, फिर किसी अनजान गली के भीतर मुड़ जाने और फिर लौटने का यह क्रम लगातार चलता रहता है.

लीजिये वे गली के उस मोड़ पर हैं जहां से महबूब के घर की छत दिखाई दे रही है. साजिंदों में उत्साह है और वे करीब-करीब दौड़ते हुए वहां पहुँचते हैं.

उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान को डूब कर सुनिए. आप उन्हें देख तक सकते हैं.

कल उनका जन्मदिन था.