अब्दुल माजिद निज़ामी
अगर आप उर्दू सीखना चाहते हैं तो इश्क़ कर लीजिए, और अगर इश्क़ करना चाहते हैं तो उर्दू सीख लीजिए। मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह की यह पंक्तियाँ बताती हैं कि उर्दू और मोहब्बत का आपस में कितना गहरा रिश्ता है। उर्दू ज़बान एक ऐसी ज़बान है,जिसका बोलने वाला और सुनने वाला दोनों ही लुत्फ़ उठाते हैं। अंग्रेजी रौब झाड़ने के लिए बोली जाती है और उर्दू मोहब्बत व अदब का इज़हार करने के लिए बोली जाती है। उर्दू ज़बान में बहुत गहराई है। उर्दू में मिठास इतनी है कि उर्दू न समझने वालों के कानों में भी उर्दू के अल्फ़ाज़ सुनने से मिठास घुलती है। उर्दू शायरी की भाषा है,अदब की भाषा है, मोहब्बत की भाषा है।
उर्दू की तारीफ़ करते हुये मशहूर शायर मनीष शुक्ल लिखते हैं “बात करने का हसीं तौर-तरीका सीखा, हमने उर्दू के बहाने से सलीका सीखा।” उर्दू के बिना शायर के कलाम का तसव्वुर भी नही किया जा सकता। बड़े बड़े न्यूज ऐंकर, प्रोग्राम होस्ट, सियासी व सामाजिक वक्ता और फिल्मी अदाकार अपनी बात कहने के लिए उर्दू का सहारा लेते हैं। जिस उर्दू ज़बान की पैदाइश भारत में हुई और वो अपनी मिठास के कारण इतनी पसन्दीदा हुई कि इसके बोलने वाले न केवल भारत में बल्कि दुनिया के हर कोने में मिल जाएंगे। जिसको परवान चढ़ाने में हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। अफ़सोस की बात है कि ऐसी ज़बान आज नफ़रत और उदासीनता की भेंट चढ़ती जा रही है। एक ख़ास मज़हब की भाषा बता कर इसे हाशिये पर डाल दिया गया है।
आज़ादी से पहले हर धर्म के शिक्षित लोग उर्दू भी पढ़-लिख लेते थे। तब उर्दू ग़ैरमुस्लिमों के लिए अछूत नही मानी जाती थी। आज भी ऐसे बुज़ुर्ग मिल जाते हैं,जो उर्दू पढ़-लिख लेते हैं। आज़ादी के बाद धीरे-धीरे उर्दू को समेटने का सिलसिला शुरू कर दिया गया। उर्दू की अहमियत को देखते हुये इसे स्कूलों में हिंदी के बराबर जगह देनी चाहिए थी। लेकिन पिछली सरकारों की अनदेखी के कारण उर्दू को केवल मदरसों तक सीमित कर दिया गया। सिर्फ मदरसों में पढ़ाई जाने के कारण उर्दू पर मुसलमानों की भाषा होने का ठप्पा लग गया। स्कूलों के पाठ्यक्रम से गायब होने के बाद आज स्थिति यह है कि मुसलमानों में भी ऐसे शिक्षित मिल जाते हैं, जो उर्दू का “अलिफ़” “बे” भी नही जानते।
*यह भी विडम्बना है कि उर्दू की बात भी हिंदी में कहनी पड़ रही है। क्योंकि उर्दू में लिखी तो कोई समझेगा ही नही। यही उर्दू ज़बान का दर्द है। उर्दू के इस दर्द को समझते हुए उर्दू को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उर्दू को बढ़ावा देने के लिए उर्दू भाषा को सभी सरकारी व ग़ैर सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
वर्तमान में दिल्ली सरकार उर्दू को बढ़ावा देने लिए बहुत शानदार प्रयास कर रही है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ख़ुद उर्दू के बढ़ावे के लिए सैकड़ों उर्दू लर्निंग सेंटर खोलने पर ज़ोर दे रहे हैं। उम्मीद है कि दिल्ली सरकार की तरह अन्य प्रदेशों की सरकारें भी उर्दू को बढ़ावा देने के लिए उर्दू को स्कूली स्तर पर शुरू करेंगी।
(लेखक हिंद न्यूज़ के समूह संपादक एंव उर्दू अकादमी दिल्ली की गवर्निंग कौंसिल के सदस्य हैं)