यूपी मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति चुनावः आम पत्रकारों को कभी ‘कसाई’ मारेगा तो कभी स्वाइन फ्लू!

नवेद शिकोह

उ.प्र.राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के चुनाव का बिगुल बज चुका है। कोई जीते या कोई हारे कोई फर्क नहीं पड़ता। लखनऊ के मुख्यधारा के पत्रकार चाह कर भी सियासत में पड़ नहीं सकते। ना संगठनबाजी कर सकते हैं और ना ही संवाददाता समिति में चुनाव लड़ सकते हैं। जो इन गतिविधियों में दिलचस्पी लेते हैं, नेता हैं या दावेदारी के लिए धन लुटाते हैं उनमें कोई स्वाइन फ्लू है कोई कसाई तो कोई कोरोना। ये हमारे-आपके लिए घातक ही साबित साबित होते रहे हैं।  दुर्भाग्यवश कड़वा सच ये है कि  यूपी के पत्रकारों का ना कोई ईमानदार व वास्तविक नेतृत्व था ना है और ना ही बेहतर नेतृत्व के आसार हैं।

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लेकिन लोकतंत्र की खासियत है कि आप इसे जितना भी दबा दो, जितना भी छल लो लेकिन इसकी खुश्बू, झलक और माहौल मात्र आम जन को ताकत देता है। उ.प्र.राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति का चुनावी माहौल सवालों को जन्म देकर झूठे नेताओं, संगठनों, पदाधिकारियों, नेतृत्वकर्ताओं और दावेदारों के चेहरों से पर्दे उठायेगा। इस लेहाज से तो लोकतांत्रिक अनुष्ठान अत्यंत लाभप्रद है। बाकी इस चुनाव को ज्यादा सीरियली नहीं लीजिए। किसी उम्मीदवार के लिए खेमों में बंटना, जिन्दाबाद मुर्दाबाद करना,  लिखना, दूसरों से बुरा बनना फिजूल है। हां, ये बात अलग है कि कोई उम्मीदवार आपको पिलाए-खिलाए तो  इस चुनावी बेला में फ्री में खूब पी-खा लेना। भीड़ इकट्ठा करने का पेड ठेका मिले तो कुछ कमा भी लेना।

इतिहास गवाह है, वर्तमान साक्षी है और अतीत संकेत देता है कि कहीं कुआं है तो कहीं खायी। कोई नेता कैंसर है, कोई एड्स तो कोई कोरोना। पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा और पत्रकारिता के हितों की बात तो छोड़िए संवाददाता समिति ने कभी अपने बायलॉज का पालन तक नहीं किया। रजिस्ट्रेशन तक नहीं कराया। और बेशर्मी से बड़े फख्र से कहते हैं कि हमारी समिति गैर रजिस्टर्ड है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की बात करने वाले पत्रकार नेताओं ने हमेशा से लोकतंत्र का गला घूटा। इतिहास गवाह है समिति के चुनाव के लिए तारीखें तय करने की आम सभा के बाद फिर अगले चुनाव से पहले ही आम सभा होती है। पत्रकार नेता जिन आम पत्रकारों के वोट लेकर पत्रकारों के प्रतिनिधि बनकर अधिकारियों और नेताओं की परिक्रमा करते हैं उनसे रुबरु होने और उनकी समस्याओं को सुनने के लिए वर्षों तक आम बैठक नहीं करते। जबकि समिति के संविधान/बॉयलाज में एक सीमित समय में नियमित आम सभा करना अनिवार्य है।

समिति के पिछले कई कार्यकालों पर गौर कीजिए- कभी भी एक भी आम सभा नहीं की गई और आपके द्वारा चुने गए पदाधिकारियों ने आपको आपकी समस्याओं के बीच लावारिस (नेतृत्वहीन) छोड़ दिया।

वोट की ताकत से पत्रकारों की नुमाइंदगी का ताज पहन कर कोई करोड़ों के सरकारी विज्ञापन हासिल करने में कामयाब हो जाता है तो कोई मुंबई की चकाचौंध में खोया रहता है। कोई अधिकारियों के मुंह में केक ठूस कर फोटो खिचवाता है तो कोई शोकसभा पर गंदी राजनीति करता है। किसी पत्रकार की मौत पर उसके बिलखते परिजनों के साथ फोटो खिचवाकर चुनाव प्रचार ने पत्रकार राजनीति को मल-मूत से भी गंदा बना दिया है।

हम मुर्गे की तरह हैं। कसाई से निजात मिलेगी तो स्वाइन फ्लू मारेगा और स्वाइन फ्लू का दौर खत्म होगा तो कसाई हलाल करेगा। आप जिसको भी नेतृत्व की कमान सौपेंगे वो आपको मुर्गा बना देगा।

कमाल की बात है कि एक जमाने से भारत की पत्रकारिता पर दुनिया की नजर रहती है। और उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता भारत की पत्रकारिता का आईना है। और यूपी में राज्य मुख्यालय की खबरे कवर करने वाले टॉप एक हजार पत्रकारों की बड़ी अहमियत है। दुनिया के तमाम शीर्ष पत्रकारों की तरह ये लोकतंत्र के रक्षक हैं। लेकिन लखनऊ के पत्रकारों के घर में यानी उनकी समिति में ही लोकतंत्र की हत्या होती है। लोकत्रांतिक व्यवस्था के तहत  समिति बनती है, चुनाव होते हैं और नेतृत्व हासिल करने के बाद पत्रकारों की सियासत के नाम पर पत्रकारों की ही आंखों से काजल चुरा लिया जाता है। ये ठग लिये जाते हैं.. बेच दिए जाते हैं, कैश करा लिए जाते हैं। इनके अधिकारों की रक्षा का कोई पुरसाहाल नहीं होता।

कभी कुछ नहीं हुआ, तो अब क्या होगा ! झूठी-बांते और झूठे वादों के झांसे मे आकर आपने इनको नेतृत्व सौंपा और ये आपको बेचते रहे। राजनीति की दुनियां में वर्तमान, अतीत और भविष्य एक जैसा होता है। चेहरे बदलते हैं लेकिन हर चेहरे के पीछे स्वार्थ और गंदी राजनीति की बदसूरती होती है।  इसलिए किसी नेता या नेता बनने की हसरत रखने वाले की हिमायत में वक्त मत बर्बाद कीजिए। हां सवाल ज़रूर उठाइये। सवाल उठाना आपका अधिकार है और यही लोकतंत्र का सौंदर्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)