उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक की अहमियत को देखते हुए सियासी बिसात पर तमाम नेता और दल अपनी-अपनी जातीय गोटियां बिछाने में लगे हैं. इसी सिलसिले में समाजवादी पार्टी और आजाद समाज पार्टी के मुखिया के बीच गठबंधन की खबरें आईं, लेकिन बाद में पार्टी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने मीडिया को बताया कि अखिलेश को अनुसूचित जातियों के वोट की जरूरत नहीं है, इसलिए सपा और आजाद पार्टी का गठबंधन नहीं होगा. चंद्रशेखर ने अब अपने दम पर चुनाव लड़ने की बात कही है.
गठबंधन नहीं होने का क्या सपा को नुकसान होगा?
अखिलेश यादव इस बार छोटी-छोटी पार्टियों को साथ लेकर चुनाव लड़ रहे हैं. एससी वोट बैंक को साधने के लिए पिछले एक साल में बसपा के दर्जनों प्रभावशाली दलित नेताओं को सपा में शामिल किया जा चुका है. पिछले साल अक्टूबर में, सपा ने पूर्व वरिष्ठ बसपा नेता मिठाई लाल भारती के नेतृत्व में दलितों के लिए ‘बाबासाहेब अम्बेडकर वाहिनी’ की शुरुआत की. भारती ने बसपा में रहते हुए पूर्वांचल के जोनल कोऑर्डिनेटर समेत कई अहम पदों पर काम किया था. इसी सिलसिले में चंद्रशेखर आजाद के साथ भी उनके गठबंधन की बात पिछले कई महीनों से चल रही थी. चंद्रशेखर आजाद कई बार इसी सिलसिले में अखिलेश से मिल भी चुके थे.
फिर गठबंधन क्यों नहीं हुआ?
बताया जा रहा है कि गठबंधन नहीं होने की मुख्य वजह यह है कि अखिलेश चंद्रशेखर आजद को दो सीट देने को तैयार थे. उसमें से संभवत: एक सीट सहारनपुर की थी जहां चंद्रशेखर का सबसे ज्यादा प्रभाव माना जा रहा था. सूत्रों का कहना है कि चंद्रशेखर एक से ज्यादा सीट चाहते थे जिसकी वजह से गठबंधन की बात नहीं बनी. 2017 में सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा के बाद भीम आर्मी चर्चा में आई थी और उसके मुखिया चंद्रशेखर एक फायरब्रांड दलित नेता के तौर पर उभरे. पिछले साल बुलंदशहर में हुए उपचुनाव में चंद्रशेखर की पार्टी ने अपना उम्मीदवार उतारा था. इस चुनाव में आजाद समाज पार्टी सपा-रालोद को पीछे छोड़ते हुए तीसरे नंबर पर रही.
गठबंधन से क्या फायदा होता?
माना जा रहा था कि दोनों के बीच गठबंधन होता है तो पश्चिम यूपी की कुछ सीटों पर भाजपा और बसपा को कड़ी चुनौती मिल सकती थी. चंद्रशेखर आजाद की पार्टी का सहारनपुर, बिजनौर, बुलंदशहर और हाथरस जिलों में अच्छा प्रभाव माना जाता है. जानकारों का मानना है कि ऐसे में अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के साथ सपा का चंद्रशेखर की पार्टी के साथ गठबंधन होता तो बसपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लग सकती थी. वहीं यहां जाट-दलितों का एक गठजोड़ होने से सपा को चुनाव में काफी फायदा होता.
दूसरी बात यह कही जा रही है कि चंद्रशेखर आजाद का युवाओं में काफी क्रेज है, ऐसे में सपा चंद्रशेखर के जरिए नए और युवा वोटर्स को लुभा सकती थी. पूरे उत्तर प्रदेश में जाट भले ही चार फीसदी है, लेकिन पश्चिमी यूपी में जाटों की आबादी 20 फीसदी के करीब है और दलित समुदाय की आबादी 25 फीसदी के ऊपर है. वहीं, मुस्लिम आबादी 30 से 40 फीसदी के बीच है.
मायावती और चंद्रशेखर एक ही जाति के
एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक के मुताबिक मायावती और चंद्रशेखर आजाद दलित समुदाय की एक ही जाति से हैं. दोनों का जाटव समाज से संबंध हैं. पश्चिमी यूपी पर चंद्रशेखर आजाद का काफी प्रभाव माना जाता है, इस लिहाज से पश्चिमी यूपी में अगर सपा अपने साथ चंद्रशेखर को ले आती तो गठबंधन में दलित समाज की भागीदारी बढ़ती. हां, इतना जरूर है कि चंद्रशेखर के जरिए पूरा एससी वोट गठबंधन के साथ न आता, लेकिन नए वोटर जरूर मिल सकते थे. यह पश्चिमी यूपी में सपा को फायदा पहुंचाता.
मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में सभी पार्टियां
बसपा सुप्रीमो मायावती के दलित वोट बैंक में सेंधमारी के लिए सभी पार्टियां लगी ही हैं, क्योंकि सबसे बड़ा फैक्टर एससी वोट बैंक ही है. यूपी के लगभग सभी सियासी दलों को यह लग रहा है कि इस समुदाय पर मायावती का अब पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा जो 2007 के विधानसभा चुनाव तक दिखा था. यही वजह है कि सभी सियासी दलों की नजर इस वोट बैंक पर है. इसलिए सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दलितों के घर भोजन कर रहे हैं.
क्या है एससी सियासत का गणित
उत्तर प्रदेश में 21 फीसदी से अधिक दलित आबादी है. जो जाटव और गैर जाटव दलितों में बंटा हुआ है. इसने हमेशा ही सूबे की सियासत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. पहले एससी कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता था लेकिन, बाद में वे बसपा के साथ चले गए. हालांकि, पिछले चुनावी नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब एससी वोट बैंक मायावती से दूर खिसक रहा है. जबकि इस वोट बैंक के दम पर ही मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही हैं.
यूपी की 403 विधानसभा सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए 84 सीटें आरक्षित हैं. वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए दो सीटें आरक्षित हैं. करीब 50 जिलों की 300 विधानसभा सीटों पर एससी बड़ी भूमिका निभाते हैं. 20 जिलों में तो 25 फीसदी से ज्यादा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी है. यही वजह है कि हर सियासी दल इन सीटों के हिसाब से ही अपनी रणनीति तैयार करती है, क्योंकि यूपी ही नहीं देश की सत्ता हासिल करने के लिए इन 86 सीटों पर जीत जरूरी है.
सभार अमर उजाला