यूपी चुनाव: ओवैसी के लड़ने से फायदा किसको?

शकील अख्तर

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ये बहुत मजेदार है, दिलचस्प है कि पहली बार उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोटरों पर इतना फोकस हो रहा है. मुसलमान उत्तर प्रदेश में या देश में कहीं भी इतना नहीं है कि किसी भी पार्टी को जीता या हरा सके. यह काम हमेशा से देश के बहुसंख्यक हिन्दु ही करते रहे हैं. हर चुनाव में जातीय समीकरण ही सबसे ज्यादा चर्चा का विषय होते हैं. ब्राह्मण क्या करेंगे? दलित कहां जाएंगे? ओबीसी में गैर यादवों का क्या रुख रहेगा ? जैसे सवालों से ही राजनीतिक विश्लेषणकर्ता जूझते रहते हैं. मगर इस बार ओवैसी की यूपी में सौ सीट लड़ने की घोषणा ने चुनाव का नक्शा ही बदल दिया.

यूपी में 18- 20 प्रतिशत के आसपास वोट रखने वाले मुसलमानों के लिए पिछले चार साल सबसे मुश्किल रहे. ऐसा होस्टाइल ( प्रतिकूल) माहौल उसने बावरी मस्जिद विध्वंस के समय भी नहीं देखा था. देश में और यूपी सहित कई प्रदेशों में पहले भी भाजपा की सरकारें आती रहीं. और यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि भाजपा को भी मुसलमानों का वोट मिलता रहा है. उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में ही, उससे पहले जब वाजपेयी लखनऊ से लड़ते थे तो उन्हें, बाद में राजनाथ सिंह को और भी बहुत से लोगों को मुसलमान वोट और खुला समर्थन मिलता रहा है. थोड़ा और पीछे चला जाए तो 1977 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ की भागीदारी वाली जनता पार्टी को मुसलमानों ने न केवल वोट दिया था बल्कि जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने खुले आम जामा मस्जिद से ही जनता पार्टी के समर्थन का तारीखी ऐलान किया था. मुसलमानों द्वारा और मुसलमान ही नहीं दलित और पिछड़ों द्वारा भी भाजपा को वोट देने का शुरूआत 1967 में हुई थी जब लोहिया ने भाजपा ( उस समय की जनसंघ) को पहली बार देश की मुख्यधारा की राजनीति में शामिल किया था. उससे पहले भाजपा वणिकों (बनियों) और पाकिस्तान से आए विस्थापितों की पार्टी मानी जाती थी.

इस तरह करीब 5- 6 दशक तक भाजपा और मुसलमानों के रिश्ते रहे. कभी खट्टे, कभी मीठे. मगर टूटे कभी नहीं. मुसलमान का वोट सबको मिलता रहा. कहा चाहे जो जाए मगर आजादी के बाद से कभी मुसलमान का वोट इकतरफा नहीं पड़ा. समाज के दूसरे वर्गों की तरह आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों पर पड़ता रहा. जैसा कि लिखा कि 1967 से पहले भाजपा की छवि हिन्दु महासभा जैसी थी और उसने खुद भी इसे तोड़ने की कभी कोशिश नहीं की तो मुसलमानों के बीच उसकी स्वीकार्यता नहीं थी. यह वह दौर था जब वाजपेयी के जन्म स्थान ग्वालियर में हिन्दु महासभा जनसंघ से ज्यादा मजबूत थी. उसके नेता सूर्यदेव शर्मा जिनका नाम गांधी हत्याकांड में आया था, अपने भाषण से पहले कहते थे कि अगर सभा में कोई मुसलमान हो तो चला जाए. वाजपेयी के बावजूद ग्वालियर में जनसंघ (भाजपा) कमजोर थी. उसे मजबूती मिली ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया के कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में आने से. उसके बाद ही मुसलमानों के साथ जनसंघ के संबंध सामान्य होना भी शुरु हुए. और उसके बाद अभी तक मुसलमान सबको अपना वोट देते रहे. मगर लगता है कि अब भाजपा ने यह आप्शनयूपी में बंद कर दिया है. हालांकि दूसरे राज्यों में जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में अभी तक भाजपा को वोट मिलते रहे हैं. बिहार में भाजपा के सहयोगी जेडी यू को भी मिले. हां बंगाल एक अपवाद जरूर रहा जहां मुसलमान वोट न भाजपा को मिला और न ही ओवैसी की पार्टी को. तो 55 सालों तक मुसलमानों का वोट लेती रही भाजपा अब यह आप्शन बंद करके हिन्दु ध्रुविकरण को और तेज करने का जो सोच रही है वह कितना कामयाब होता है यह तो अभी कहना मुश्किल है मगर इसने मुसलमानों को एक नए विकल्प की तरफ जरूर धकेला है और वह है अपनी कयादत (नेतृत्व) का.

ओवैसी की राजनीति

एआईएमआईएम के असदउद्दीन ओवैसी मुसलमानों में इसी आकांक्षा को जगा रहे हैं. उनके निशाने पर सीधे धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं. वे कहते हैं कि इन पार्टियों ने मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया. उनकी पार्टी यूपी में मुस्लिम नेतृत्व की चाह को यह कहकर बढ़ावा दे रहे हैं कि वहां कम प्रतिशत वाले यादवों का मुख्यमंत्री कई बार बन गया. उनसे थोड़ी ज्यादा संख्या वाले दलितों का मुख्य़मंत्री (मायावती) कई बार बन गया. मगर इन दोनों से ज्यादा आबादी वाले मुसलमानों का प्रतिनिधि मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना? हालांकि इसके जवाब में बहुत सारे तथ्य हैं. जैसे राजस्थान में बरकतउल्लाह खान, बिहार में अब्दुल गफूर, महाराष्ट्र में एआर अंतुले को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया. मगर यह कहना ही फिर बात को मुसलमानों पर केन्द्रीत करना होगा जो भाजपा चाहती है. इसलिए भाजपा एआईएमआईएम के मुस्लिम कयादत के सवाल को हवा दे रही है. मुसलमानों में जितनी तेज अपने नेतृत्व की मांग होगी भाजपा को हिन्दु ध्रुविकरण करने में उतनी आसानी होगी.

इस समय यूपी में भाजपा को सबसे ज्यादा चिंता ब्राह्मण समर्थन की है. ब्राह्मण वोट की नहीं, उसकी संख्या दलित, यादव, मुसलमान जितनी नहीं है. भाजपा की चिंता है उनके व्यापक प्रभाव की. जो उनकी संख्या के अनुपात में कई गुना ज्यादा है. अभी तक यूपी में जो राजनीतिक माहौल है उससे लगता है कि वहां ब्राह्मण भाजपा विरोधी गाड़ी का इंजन बन रहा है. अगर ऐसा हो गया तो यूपी में बाजी पलट सकती है.

भाजपा की सारी ताकत इसी दिशा में लगी है कि यूपी में उपेक्षित महसूस कर रहा ब्राहम्ण उससे छिटके नहीं. ऐसे में ओवैसी के चुनाव लड़ने की घोषणा से उसे थोड़ी राहत मिली है. ओवैसी की मुस्लिम कयादत के जवाब में हिन्दु नेतृत्व का माहौल अपने आप बनना शुरु हो गया है. और हिन्दु नेतृत्व की बात होते ही यूपी में मुख्यमंत्री योगी का प्रोफाइल अपने आप बढ़ जाता है. इस समय हिन्दु आशा, आकांक्षाओं के मामले में योगी, प्रधानमंत्री मोदी को भी कड़ा काम्पटिशन देने की स्थिति में हैं. केवल ब्राह्मण नाराजगी ही उनका एक कमजोर पाइंट है. जिसे बराबर करने के लिए उन्हें मुस्लिम कयादत का एक जोरदार मुद्दा मिल रहा लगता है. दूसरे मुद्दों से हटकर चुनाव का मुसलमान पर केन्द्रीत होना भाजपा के लिए बड़ा वरदान बन सकता है.

क्या सोचता है विपक्ष

विपक्ष सोच रहा था कि चुनाव में गंगा में बहती लाशें बड़ा मुद्दा बनेंगी. कोविड से निपटने में असफलता, बिगड़ती कानून व्यवस्था जैसे सवाल चुनाव में चर्चा का विषय रहेंगे. लेकिन अगर चुनाव फिर हिन्दु मुसलमान की पिच पर आ गया तो यह कांग्रेस और सपा दोनों के लिए बहुत कठिन हो जाएगा. बसपा इस चुनाव में बिल्कुल अलग अंदाज में है. तीन दशक में पहली बार वह मुख्य भूमिका में नहीं सहनायक की भूमिका में दिख रही है. जैसे पुरानी फिल्मों में हीरो का दोस्त हुआ करता था. जिसका पूरा जोर दोस्त के लिए गेम बनाने पर होता था. इस बार मायावती वही भाजपा के लिए करती दिख रही हैं.

ऐसे में बड़ा रोल बनता था मुस्लिम इंटेलजेंसिया ( बौद्धिक वर्ग) का. लेकिन बदकिस्मती से जो है नहीं, या बहुत कम है और जो है भी वह अब ईमानदार ओपिनियन देने से बच रही है. इन नाजुक स्थितियों में सहज राजनीतिक बोध (कामन सेंस, पोलिटिकल सेंस) ही काम में आएगा. मुसलमानों के लिए यह उनकी राजनीतिक समझ का एक बड़ा इम्तहान है. देखना है कि वे जज्बातों में बहते हैं या राजनीति को समझते हुए अपने दूसरे भाइयों की तरह वास्तविक मुद्दों पर वोट और समर्थन देते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)